खबर लहरिया ताजा खबरें टोक्यो ओलंपिक: भारतीय महिलाओं को खिलाड़ी की उपाधि क्यों नहीं दी जाती? द कविता शो

टोक्यो ओलंपिक: भारतीय महिलाओं को खिलाड़ी की उपाधि क्यों नहीं दी जाती? द कविता शो

नमस्कार दोस्तों !! द कविता शो के इस एपिसोड में आपका स्वागत है। मैं बहुत खुश हूँ। क्या आप भी मेरी ख़ुशी का कारण जानना चाहते हैं। अरे ये ख़ुशी है देश की बहादुर खिलाड़ी मीराबाई चानू, लवलीना, सिंधु और रवि दहिया के जीत की जिन्होंने अपनी ताकत दिखाई और जीत का झंडा विदेशो में गाड़ा है और देश की मीडिया ने जमकर लिखा इन महिला खिलाड़ियों के बारे में। मीडिया के लेखन पर मेरे कई सवाल हैं। ये सवाल मैं आपको आगे बताउंगी।

सबसे पहले इन बहादुर महिला खिलाड़ियों के बारे में जान लेते हैं। अब तक भारत में चल रहे 2020 टोक्यो ओलंपिक में 3 पदक जीते हैं, और तीनों भारतीय महिलाओं ने जीते है। मीराबाई चानू का वेटलिफ्टिंग में रजत पदक, सिंधु का बैडमिंटन में कांस्य पदक और लवलीना बोर्गोहेन का बॉक्सिंग में कांस्य पदक। मैं इन खिलाड़ियों को बहुत-बहुत बधाईयाँ और शुभ कामना देती हूँ।

हमारे देश में वैसे भी महिलाओं के स्पोर्ट्स को फंडिग और सपोर्ट कम मिलता है। इस साल पहली बार महिला और पुरुष की हॉकी टीम को सामान्य फंडिग मिली थी और नतीजा सबके सामने है। महिला खिलाड़ियों के जीत की चर्चा देश भर में है और उसमें भी समाज की सोच झलक रही है। जो खिलाड़ी मेडल जीतकर आते है वह अपने ही बल बूते पर और कड़ी मेहनत से करते हैं। तो जीत का पूरा श्रेय भी उन्ही को जाना चाहिए। उनकी काबिलियत और तकनीक पर चर्चा होनी चाहिए।

महिला खिलाड़ियों के संघर्ष पर मीडिया ज़रूर लिख सकती है लेकिन यह खिलाड़ी अपने संघर्ष तक सीमित नहीं है। वह उभरकर आये है इससे और कठिनायों के बावजूद अपना रास्ता खुद तय किया। मीडिया का काम केवल सहानुभूति जगाने का नहीं है। अपने लेख और रिपोर्टिंग द्वारा वह इन खिलाड़ियों के सम्मान, आर्थिक और सामाजिक सपोर्ट, अच्छी ट्रेनिंग फैसिलिटी, कोच और एक्सपोज़र के ऊपर रौशनी डालें तो केवल पदक जीतने वाले खिलाड़ी ही नहीं, महिला स्पोर्ट्स को एक अछि दशा मिल सकती है।

साइखोम मीराबाई चानू

टोक्यो ओलिंपिक में रजत पदक (49 किलो कैटेगरी) जीतकर मणिपुर की मीराबाई चानू ने भारतीय वेटलिफ्टिंग में नया इतिहास रचा। इस से पहले 2000 के सिडनी ओलिंपिक में भारत की कर्णम मल्लेस्वरी ने वेटलिफ्टिंग में कांस्य पदक जीता था।

पी.वी सिंधु, सिंधु ओलंपिक में दो पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बन गई है। सिंधु ने 2016 के रियो ओलंपिक में सिल्वर मेडल जीता था और इस बार के टोक्यो ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल जीता।

लवलीना बोर्गोहेन

असम की 23 वर्षीय लवलीना ने बॉक्सिंग के वेलटर (64-69 किग्रा) वर्ग में कांस्य पदक जीता सेमीफाइनल तक पहुँच कर, सेमीफाइनल में उसका मुकाबला वर्ल्ड चैंपियन बुसेनाज़ सुरमेनेली से हुआ था और लवलीना यह मुकाबला नहीं जीत पाई लेकिन भारत को कांस्य पदक दिलाया। लवलीना भारतीय बॉक्सर मैरी कॉम से बहुत प्रेरित है।

दोस्तों जब भी देश को कामयाबी मिलती है तो मीडिया की कवरेज भी मिलती है लेकिन कवरेज में मीडिया और सत्ता का नजरिया खुल कर दिखाई देता है और वही हुआ है ये महिला खिलाडियों के साथ। मैं कुछ मीडिया के लेखो की हेड लाइन पढ़ती हूँ।

ज़ी बिजनेश ने लिखा है Tokyo Olympic- भारत की बेटी का मेडल के लिए ‘पंच’, अपने पहले ही ओलिंपिक में रचा इतिहास।

आज तक ने लिखा है, चक दे इंडिया: इन 16 बेटियों पर नज़रें, इतिहास रचने उतरी भारत की महिला हॉकी टीम।दैनिक जागरण ने लिखा- म्हारी

छोरियां छोरों से कम हैं के..‘ टोक्यो ओलिंपिक में भारत की बेटियों का जलवा।

नवभारत टाईम्स लिखता है, चक दे इंडिया’- भारत की बेटियों ने रचा इतिहास, पहली बार ओलिंपिक के सेमीफाइनल में पहुंची।

तो सुना आपने हर मीडिया की हर सोच दिखी कोई पुरुष सत्ता की कोई बाप बना कोई भाई फूफा मामा और हेड लाइन में बेटी बेटी बेटी हर हेडिंग में बेटी लिखा. बेटी लिखना बुराई नहीं है। अरे वो बेटी ही हैं जाति से लेकिन अब वो देश के लिए खिलाड़ी हैं खिलाड़ी, और उनको बहन बेटी छोड़ कर खिलाड़ी का दर्जा देना होगा. महिलाओं को यहाँ तक पहुचने के रास्ते आसानी से नहीं मिलते हैं।

ये तो रही देश के बड़े स्तर की बात, लेकिन ग्रामीण भारत का जो हाल होता है ये भी जानना जरूरी है. न ही महिला खिलाडियों को सरकार की तरफ से अलग से कोई फंड मिलता है न ही ट्रेनिंग मिलती है। अगर मैं बात करू बुन्देलखण्ड के महिला खिलाडियों की तो उनको भी कहीं जगह नहीं मिलती है, न तो आर्थिक सपोर्ट मिलता। बाँदा की क्रिकेट खिलाड़ी शोभा है, वो बुन्देलखण्ड की पहली महिला खिलाड़ी है जिसने अपने दम पर यूपी स्थर की कप्तान बनी।

ये भी पढ़ें :

यूपी : महिलाओं के साथ होती हिंसाओं की ग्रामीण रिपोर्ट

 

(हैलो दोस्तों! हमारे  Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)