खबर लहरिया Blog कुछ ऐसे मूल अधिकारों के मामले, जो कभी लोगों को मिले ही नहीं – मानवाधिकार दिवस 2021

कुछ ऐसे मूल अधिकारों के मामले, जो कभी लोगों को मिले ही नहीं – मानवाधिकार दिवस 2021

मानवाधिकार दिवस 2021 दिवस , 10 दिसंबर 2021 का इस बार का विषय “असमानताओं को कम करना और मानवाधिकारों को बढ़ावा देना।” है। भेदभाव से परे एक ऐसे भारत की कल्पना करना और सबको उनका अधिकार मिले, यह सपना भारत का हमेशा से रहा है लेकिन यह अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। देश में मौलिक और मूल अधिकारों की लड़ाई आज भी कई लोग लड़ रहे हैं और लड़ते आ रहे हैं। आज के समय में अधिकार पाना किसी “लक्ज़री” यानी ऐसी वस्तु से कम नहीं है जिसे सब हासिल करना चाहते हैं।

साभार – upscbuddy

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (UDHR) को अपनाया। यूडीएचआर एक मील का पत्थर दस्तावेज है जो उन अधिकारों की घोषणा करता है जो एक इंसान के रूप में उनकी जाति, रंग, धर्म, लिंग, भाषा, राजनीतिक, देश, मूल और जन्म की परवाह किए बिना हर कोई हकदार है।

मैंने अधिकारों को लेकर काफ़ी सोचा कि आखिर वो हैं क्या ? वो जो संविधान ने हमें दिए हैं या फिर वो जो समाज ने हमें दिया? जी, संविधान और समाज मेरे लिए अलग-अलग अधिकारों को दर्शाते हैं। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों मैंने बहुत कम अपने समाज में लागू होते हुए देखा है। ऐसा नहीं है कि समाज, संविधान में नहीं आता लेकिन समाज जिन लोगों से बना है और जिनके विचारों ने लोगों को प्रभावित किया, वहां संविधान द्वारा लोगों को दिए अधिकार नहीं चलते।

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अधिकार मिल पाना और अधिकार का इस्तेमाल करना भी ताकत और समाज में व्यक्ति के स्थान पर कई बार निर्भर करते हैं। ग्रामीण भारत में आज भी लोग अपने अधिकारों को नहीं जानते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि समाज में खुद को ऊँचा समझने वाला व्यक्ति दूसरे लोगों के अधिकारों का हनन करने लगता है। खबर लहरिया ने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान पाया कि, कई बार ऊँची माने जाने वाले जाति के लोग दलित वर्ग की महिलायें या लड़की से सिर्फ इसलिए रेप करते हैं क्यूंकि ऐसा करना उनकी ताकत और ऊँचे होने को दर्शाता है। वहीं दूसरी तरफ क्यूंकि वह छोटी माने जाने वाली जाति से संबंध रखते हैं, अपनी आवाज़ तक नहीं उठा पाते, खुद के लिए इन्साफ की लड़ाई तक नहीं लड़ पाते क्यूंकि उन तक कभी उनके अधिकार पहुंचे ही नहीं जिससे की उन्हें लड़ने का हौसला मिले।

जब यूपी में पंचायती राज चुनाव चल रहा था तो इसी दौरान बाँदा जिले के नरैनी ब्लॉक के अंतर्गत आने वाली बदौसा कस्बे में वर्तमान प्रधान के तौर पर दलित महिला प्रधान सरोज सोनकर का चुनाव हुआ था। जीतने के 5 महीनों बाद भी उन्हें प्रधान के तौर पर अधिकार नहीं दिया गया। अधिकारी बस यह कहते रहे कि जांच होगी लेकिन यहां यह बात साफ़ दिख रही थी कि इस बार प्रधान का दर्ज़ा एक दलित महिला को मिला है। शायद यही वजह थी कि महिला को उसके अधिकारों के लिए महीनों तक इंतज़ार करते रहना पड़ा।

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विधानसभा का चुनाव आने वाला है और अधिकतर पार्टियां दलित व छोटी माने जाने वाली जातियों को लुभाने में लगी हैं। इस समय वह उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं लेकिन इसके बाद अगर उन पर कोई समस्या आती है तो उन्हें देखने वाला कोई भी नहीं होता। ग्रामीण क्षेत्रों तक तो उन नेताओं की आवाज़ तक नहीं पहुंच पाती जो चुनाव के दौरान उन्हें विकास का वादा करते हैं।

यूपी-एमपी के ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकतर आबादी के पास आज भी आधार कार्ड नहीं है। ऐसा नहीं है कि लोगों ने बनवाने की कोशिश नहीं की लेकिन कई दिन तक चक्कर लगाने के बाद भी उनके आधार कार्ड नहीं बनते। मज़दूर ग्रामीण जनता के लिए ये चक्कर काटते दिन भूख से पीड़ा देने वाले होते हैं। इन दिनों में वह कोई आय नहीं कर पाते। सरकार ने तो कह दिया कि बिना आधार कार्ड व्यक्ति कुछ नहीं करवा सकता। यहां तक की बिना आधार कार्ड के तो उनकी पहचान तक साबित नहीं हो पाती।

भारत में ग्रामीण क्षेत्रो में स्कूलों की कमी के कारण, स्कूल में शौचालय न होने के कारण, गरीबी, जागरूकता की कमी के कारण बच्चों को उच्च या माध्यमिक कक्षा में आते-आते स्कूल छोड़ना पड़ता है। शिक्षा पाना सबका अधिकार है पर उन अधिकारों के बीच आने वाली समस्याओं को सुलझाया नहीं जाता।

कहने को तो हमें कई अधिकार दिए गए हैं लेकिन कभी लोगों से यह नहीं पूछा गया कि क्या वह कभी अपने अधिकारों का लाभ भी उठा पाए हैं या नहीं ? मूल अधिकार जो सबके पास होते हैं लोगों को वह तक नहीं मिल पाते फिर वो कौन-से अधिकार हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वह लोगों को मिले हैं?

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