बुंदलेखंड के छतरपुर ज़िले अंगरौठा गाँव एक ऐसा गाँव है जहाँ आज भी महिलाएं बड़ों के सामने चप्पल के बिना जाती हैं। लोगों की मानें तो अपने से बड़ों की इज़्ज़त करने के लिए महिलाओं को उनके सामने चप्पल उतारने को बोला जाता है। 21वीं सदी में भी ऐसी रूढ़िवादी परंपराओं का भुगतान महिलाओं को ही भरना पड़ रहा। इस प्रथा को रिवाज़ का नाम देकर महिलाओं को आज भी समाज की सोच के तले दबना पड़ रहा है।
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जहाँ गाँव की कुछ महिलाएं अब इस प्रथा से बाहर आना चाहती हैं लेकिन उन्हें समाज का डर आज भी सताता है, वहीँ पुरुषों से जब हमने इस बारे में बात की तो पुरुषों ने भी इस प्रथा को पुराना रीति-रिवाज़ बता कर ही टाल दिया। और इस प्रथा को ख़तम करने की बात नहीं की।
जहाँ एक तरफ आज हमारे देश की महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ रही हैं, वहीँ देश के इस छोटे से गाँव में महिलाओं को इतना भी हक़ नहीं कि वो अपनी मर्ज़ी से चप्पल पहन सकें। क्यों आज भी महिलाओं को रीति-रिवाज़, परंपरा के चंगुल में बाँध रखा है? क्या ये परंपराएं पुरुषों पर लागू नहीं होती? या समाज को एक महिला के ऊपर पाबंदी लगाने के आगे कुछ दिखाई ही नहीं देता?
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