खबर लहरिया Blog लुप्त होती गोदना परंपरा अब शहरों में है “टैटू” के नाम से मशहूर

लुप्त होती गोदना परंपरा अब शहरों में है “टैटू” के नाम से मशहूर

गोदना भारतीय परंपरा का हिस्सा है। जो की आज परंपरा से ज़्यादा “टैटू” के फैशन के नाम पर ट्रेंड कर रहा है। जबकि भारत के इतिहास में गोदना की अपनी एक कहानी और मान्यता है।

पहले की परंपरा आज फैशन के दौर में बदल गयी है। हम बात कर रहे हैं ‘गोदना’ परम्परा की। गोदना जिसे आज लोग शहरों में ‘टैटू’ के नाम से जानते हैं। गोदना की परंपरा आज फैशन के नाम से विश्वभर में लोगों द्वारा अपनायी गयी है। चाहें बच्चा हो, जवान हो, महिलाएं हो या कोई बूढ़ा , हर कोई इसके पीछे पागल है।

लेकिन आज “गोदना” को परंपरा से ज़्यादा फैशन की वजह से लोगों में बीच में ज़्यादा जगह मिली है। आज का युग ही फैशन का है। जब तक आप फैशन के हिसाब से चलते हैं तो दुनिया आपके साथ चलती हैं। जब आप नए फैशन को नहीं अपना पाते तो आप दुनिया की दौड़ से पीछे रह जाते हैं। लेकिन गोदना की परंपरा कभी नई नहीं थी बस जिन्हें इसके बारे में नहीं पता वह उनके लिए फैशन बन गयी। गोदना भारत की पुरानी परंपराओं में से एक है जिसका अपना इतिहास, अस्तित्व और कहानी है।

कई लोग परंपरा के नाम पर गोदना गुदवाते हैं तो कई श्रृंगार या विरोध के रूप में। हर किसी के पास गोदना गुदवाने की अपनी-अपनी वजह है।

सावन में अधिकतर लोग गुदवाते हैं गोदना

ऐसा कहा जाता है कि जिन्हें गोदना आता है उनके लिए सावन का महीना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। पुरखों की कहावत है, ‘पहले ज़माने में शादी के बाद महिलाएं गोदना गुदवाती थी बिना गोदना गुदवाए वह ससुराल का पानी भी नहीं पीती थीं।’ आज के बदलते दौर में गोदना सिर्फ महिलाओं तक सीमित नहीं है बल्कि पुरुष भी बड़े चाव से गोदना गुदवाते हैं।

गोदने की परंपरा को लेकर लोगों की राय

हमने गोदना की परम्परा को लेकर जिला वराणासी में रहने वाले लोगों से बात की। कंचन कहती हैं कि उनके समय में गोदना गुदवाना बहुत आवश्यक होता था। वह कहती हैं कि, ‘ शादी के बाद एक हाथ में मायके पक्ष का गोदना गुदवाते थे और दूसरे हाथ में ससुराल पक्ष का।’

मनोज का कहना है कि पहले और आज में काफ़ी फर्क आ गया है। जब भी सावन आता है तो हर जगह गोदना ही नज़र आता है। हाथों पर गुदा हुआ नाम देखने में अच्छा लगता है। पहले तो गाँव में घूम-घूमकर गोदने वाले हाथों से लोगों के नाम आदि चीज़ें गोदते थे। लेकिन आज मशीन से आसानी से गुद जाता है।

पूनम कहती हैं कि उनकी शादी को छः महीने हो गए हैं। वह सावन के समय अपने हाथों पर स्टार गुदवा रही हैं क्यूंकि उन्हें पसंद है। गुदवाते समय दर्द तो होता है लेकिन यह जल्दी गुद जाता है।

जैसा डिज़ाइन होता है उसी प्रकार से गुदवाने के पैसे लिए जाते हैं जिसकी कीमत हज़ार या उससे ज़्यादा और कम भी हो सकती है।

गोदना – श्रृंगार, इलाज और विरोध

अगर हम आदिवासी समुदाय की बात करें तो वह गोदना मान्यताओं और गुलामी की जंजीरे को तोड़ने के लिए गुदवाते हैं। पत्रिका द्वारा प्रकाशित एक आर्टिकल में आदिवासी समुदाय के बारे में बताया गया।

आपने रामनामी संप्रदाय के बारे में तो सुना ही होगा जिनके पूरे बदन पर राम नाम का टैटू गुदा हुआ रहता है। यह धर्म के साथ ही एक विरोध का आंदोलन भी था। इसके अलावा सहरिया आदिवासी युवावस्था में अपने शरीद पर टैटू बनवाते है। इन लोगों का मानना है कि अगर बच्चा इससे होने वाले दर्द को सह लेता है तो वह बच्चा मर्द बनेगा। बैगा नाम की जनजाति की महिलाएं आठ साल की उम्र में ही शरीर पर गोदना बनवाना शुरू कर देती हैं और शादी के बाद भी वो गोदना बनवाती हैं। इन जनजातियों में गोदना महिलाओं के लिए श्रृंगार का एक हिस्सा है।

ये लोग इसे धर्म मानते हैं। वहीं इनमें मान्यता है कि बरसात को छोड़कर किसी भी महीने में गोदना गुदवाया जा सकता है। ऐसी भी मान्यता है कि जो बच्चा चल नहीं सकता, चलने में कमज़ोर है, उस के जांघ के आसपास गोदने से वह न सिर्फ चलने लगेगा बल्कि दौड़ना भी शुरू कर देगा। वहीं कुछ लोग मानते हैं कि इससे कई असाध्य रोगों का ईलाज भी संभव होता है और शरीर निरोगी रहता है। भारतीय राज्यों उड़ीसा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल के आदिवासियों में गोदना बहुत आम बात है। भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में संथाल, गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, बोडो, भील, खासी, सहरिया, गरासिया, मीणा, उरांव, बिरहोर वगैरह हैं और गोदना को लेकर इन सबकी अलग-अलग मान्यताएं हैं।

गोदना का इतिहास

गोदना के इतिहास की बात करें तो मिस्त्र की मम्मीज में गोदन के निशान मिले हैं। यानी दुनिया में टैटू की परंपरा कोई नई चीज नहीं है। लेकिन बात अगर भारत की करें तो यहां भी यह परंपरा सदियों पुरानी रही है। रामायण और महाभारत काल में भी इसका ज़िक्र आता है। कृष्ण लीला में गोदना गोदनी का जिक्र आता है। जिसमें बताया गया है कि कृष्ण नटीन के रूप में गोपियों के हाथों पर गोदना गोदा करते थे। इसके अलावा वैष्णव संप्रदाय के लोग भी सदियों से अपने हाथों पर शंख, गदा, कमल ओर चक्र का गोदन गोदवाते आ रहे हैं। वहीं शैव संप्रदाय वाले त्रिशूल गुदवाते हैं।

गोदना से जुड़ी मान्यताएं

गोदने को लेकर कई मान्यताएं भी है। महिलाएं माथे पर सुन्दरता के लिए बिन्दी की आकृति गुदवाती हैं जिसे लेकर मान्यता है कि इससे बुद्धि बढ़ती है। वहीं दांतो की मजबूती के लिए ठोड़ी में गोदना गुदवाया जाता हैं जिसे ‘मुट्की’ कहते हैं। नाक की गोदना को ‘फूल्ली’ और कान की गोदना को ‘झूमका’ कहते हैं। गले में हसुली सुन्दरता और आवाज में मधुरता के लिए गुदवाया जाता है। कलाई की गोदना को ‘मोलहा’ कहा जाता है। इसे गुदवाने से स्वर्ग में भाई-बहन के मिलने की मान्यताएं हैं। हथेली के पीछे गोदवाए जाने वाले गोदना को ’’करेला चानी’’ और हथेली के पीछे वाले को ’’हथौरी फोराय’’ कहते है। अंगूठा में मुन्दी और पेंडरी में लवांग फूल गुदवाया जाता है।

बात पैरों की करें तो ‘चूरा-पैरी’ और पंजा में ‘अलानी गहना’ गुदवाने की परंपरा पूरे भारत में है। पैर के अंगूठे वाले गोदना को ‘अनवठ’ कहते हैं। इसी तरह शरीर के प्रत्येक अंगों में हाथी पांज, जट, गेंदा फूल, सरसों फूल, कोंहड़ा फूल, षंखा चूड़ी, अंडरी दाद, हल्दी गांठ, माछी मूड़ी पोथी, कराकुल सेत, दखिनहा, धंधा, बिच्छवारी, पर्रा बिजना, हरिना गोदना अनेक अलग-अलग नामों से गोदना गुदवाये जाते हैं। इन सभी गोदना के अपने अलग-अलग महत्व हैं।

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ये जातियां आमतौर पर गोदती हैं गोदना

गोदना गोदने वाली जातियों की बात करें तो इस कला में सबसे ज्यादा निपुण वादी, देवार, भाट, कंजर, बंजारा, और मलार माने जाते हैं। वैसे इस काम को सबसे ज़्यादा महिलाएं ही करती हैं। गोदना गोदने के लिए सुईयों का इस्तेमाल होता है। सुईयों की संख्या गोदने की आकृति के अनुसार उपयोग में लाई जाती है। कम चौड़ी गोदना के लिए चार सुईयां और अधिक चौड़ी के लिए छः से सात सुईयों का इस्तेमाल होता है।

गोदने के रंग के लिए रामतिल या किसी भी तेल के काजल को तेल या पानी के साथ मिलाकर लेप बनाया जाता है। इसी लेप में सुईयों को डूबोकर शरीर में चुभा कर गोदना की मनमोहक आकृतियां बनाई जाती हैं। आकृतियां बनाने के बाद पानी या गोबर के घोल से इसे अच्छी तरह धोकर इसमें तेल और हल्दी का लेप लगाया जाता है। रेडी और हल्दी के लेप से सूजन नहीं होता है और गोदना जल्दी सूख जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि बहुत पहले बबूल के कांटे को बलोर के रस में डूबोकर गोदना गोदा जाता था।

पहले गोदने की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित थीं लेकिन आज यह शहरों का फैशन बन गया। लेकिन शहरों में इसे टैटू कहा जाता है। गोदने का अपना एक इतिहास रहा है जबकि टैटू सिर्फ फैशन के दौर का हिस्सा है।

इस खबर की रिपोर्टिंग सुशीला द्वारा की गयी है। 

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