खबर लहरिया आओ थोड़ा फिल्मी हो जाए सत्ता के खेल में महिलाओं की हिस्सेदारी, देखें आओ थोड़ा फिल्मी हो जाए

सत्ता के खेल में महिलाओं की हिस्सेदारी, देखें आओ थोड़ा फिल्मी हो जाए

राजनीति में सर उठा कर चलना है तो कुछ कदम झुक कर चलने होंगे यही नियम है राजनीति का ये मेरा कहना नहीं है ये लाइन है 2003 में आई फिल्म सत्ता की। अभी तक तो आप समझ ही गए होंगे की आज हम बात करने वाले है फिल्म सत्ता की तो चलिए थोड़ा फ़िल्मी हो जाते है।

आप भी सोच रहे होंगे कहाँ मैं 2003 की बातें लेकर बैठ गई लेकिन आपको बता दूँ की अभी यूपी के विधानसभा चुनाव के कारण आज कल तो मुझे सपने में भी रैलियां ही दिखती है। तो सोचा कुछ राजनितिक फिल्म ही देखि जाय। फिर कहीं से मुझे ये फिल्म मिली और मैंने देख डाली। लेकिन फिल्म देखने के बाद मेरे मन में कई सवाल उभरने लगे। क्या सत्ता ऐसे हासिल होती है ? क्या महिलाओं का राजनीति में होना सिर्फ सीट भरने के काम आता है ? ओह सॉरी मैं आपको इस फिल्म के बारे में बताना ही भूल गई हो सकता है आप मेसे कई लोगों ने ये फिल्म देखि होगी पर फिर भी संक्षिप्त में इसकी कहानी बताती हूँ।

ये कहानी है अनुराधा शैंगर यानी रवीना टंडन की जो मुंबई के एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती है। परिवार में तलाक शुदा माँ के आलावा और कोई नहीं होती है। पढ़ी-लिखी बिंदास अनुराधा किसी भी मामले में बेबाकी से बोलती जरूर है पर उसे राजनीति एक गन्दी जगह के आलावा और कुछ नहीं लगती है। लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था तभी तो अनुराधा की मुलाक़ात विवेक चौहान जो एक नामी पॉलिटिशन का बेटा होता है जो खुद भी राजनीति में ही होता है। दोनों की मुलाक़ात जल्दी ही शादी में बदल जाती है। पर शादी के बाद उसे विवेक और उसके परिवार का असली रंग देखने को मिलता है जहाँ औरतों को काम करने बिजनेश में कुछ भी बोलने या राय देने की आज़ादी नहीं होती वही विवेक शादी के बाद भी अपनी गर्लफेंस से मिलता रहता है।

ये भी देखें : न्यूटन : चुनावी प्रक्रिया की सच्ची तस्वीर | UP Elections 2022

ये सब चीजें अनुराधा को बुरी लगती है और वो आवाज़ उठती है पर अफ़सोस कोई सुनने वाला नहीं होता। लेकिन कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब विवेक किसी का खून कर देता है और पुलिस उसे अरेस्ट कर लेती है चुनाव सर पर थे विवेक के परिवार वालों को अनुराधा के आलावा कोई और नहीं सूझता और अनुराधा को चुनाव लड़ने के लिए मनाते है। अनुराधा को कुछ समझ नहीं आता की वो क्या करे फिर अपनी दोस्त और माँ के समझने पर वो चुनाव मैदान में उतरती है और इसमें उसका साथ देता है यशवंत जो विवेक का भी राजनीतिक गुरु होता है। चुनाव लड़ने के बावजूद पार्टी और परिवार सब उसे बार बार अहसास दिलाते है की वो चुहान खानदान के लेबल के बिना कुछ भी नहीं और ये चोट अनुराधा को तोड़ती नहीं बल्कि लड़ने की हिम्मत लेती है। वो चुनाव जित जाती है पर उसके बाद उसे यशवंत और पार्टी के और भी लोगों की सच्चा साफ़ दिखने लगती है तब उसे समझ आता है यहाँ सभी मुखौटा पहने रखते बल्कि इसके पीछे एक खतरनाक भेडीया होता है अब इस चक्र्व्यू से अनुराधा कैसे बाहर निकलती है इसके लिए तो आपको फिल्म देखनी होगी।

फ़िलहाल मैं आपको बता दूँ की माना 2003 से 2022 तक में कुछ बदलाव आये है पर शायद राजनीति में शायद कुछ बदलाव नहीं आया। ऐसा नहीं है की महिलाये अच्छी लीडर नहीं रही रही इंद्रागाँधी से लेकर मायावती तक ने अपने नाम का लोहा मनवाया है। पर एक बात तो है कुछ लोग लालच में राजनीति में आते है तो कुछ मज़बूरी में कुछ समाज सेवा के लिए भी आते है पर वो अपना उदेश्य भूल जाते है। इस फिल्म में एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी जिसमे सत्ता का असली मतलब समझाया गया है। सत्ता का मतलब पावर नहीं बल्कि एक मौका है बदलाव लाने का पर जरुरत है यहाँ कुछ पढ़े-लिखे ईमानदार लोगों को आने की और चुनने की भी। क्योकि हम अक्सर कहते है राजनीति एक गन्दी जगह है पर इस गंदगी को साफ़ करने कोई आगे नहीं आना चाहता। खैर बहुत बातें हो गई अब मुझे दीजिये इज़ाज़त मिलती हूँ अगले एपिसोड में तब तक के लिए नमस्कार।

ये भी देखें : जनवरी की आने वाली फ़िल्में ? आओ थोड़ा फ़िल्मी हो जाए

(हैलो दोस्तों! हमारे  Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)