खबर लहरिया Blog बुंदेलखंड की मशहूर सुवासा की परंपरा जिसमें आज भी झलकती है महिलाओं की शक्ति की चमक

बुंदेलखंड की मशहूर सुवासा की परंपरा जिसमें आज भी झलकती है महिलाओं की शक्ति की चमक

शादियों में आज भी सुवासा का चलन मशहूर है जिसमें शादी के बाद दूल्हे के फूफा को दुल्हन के मायके वाले सजाते हैं। हमने हाल ही में महोबा और बांदा ज़िले में सुवासा की इस प्रथा को देखा। तो चलिए आपको भी इस प्रथा से परिचित कराते हैं।

suvasa ritual of bundelkhand

सुवासा प्रथा के अनुसार इस व्यक्ति को तैयार किया गया है। इसमें दूल्हे के फूफा को लड़की वाले सजाते हैं।

बुंदेलखंड को देशभर में 10वीं सदी में बनी मूर्तियों, किलों और पौराणिक कथाओं के लिए मशहूर माना जाता है। लेकिन यहाँ की कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो सदियों से चली आ रही हैं और लोग आज तक उनका पालन कर रहे हैं। यहाँ गाँव से लेकर शहरों तक में आज भी शादियों में पुराने रीति-रिवाज चलते हैं। ऐसी ही एक परंपरा है शादी के बाद सुवासा की। शादियों में आज भी सुवासा का चलन मशहूर है जिसमें शादी के बाद दूल्हे के फूफा को दुल्हन के मायके वाले सजाते हैं। हमने हाल ही में महोबा और बांदा ज़िले में सुवासा की इस प्रथा को देखा। तो चलिए आपको भी इस प्रथा से परिचित कराते हैं।

पुरुषों को परंपरा का हिस्सा बनने में नहीं आता आनंद-

हाल ही में बांदा के रहने वाले ओमकार की पत्नी के भतीजा की शादी हुई थी जिसमें ओमकार को दूल्हे का सुवासा बनने का मौका मिला था। सुवासा बनने के अपने इस अनुभव को बताते हुए ओमकार का कहना है कि व्यक्तिगत रूप से तो उन्हें दूल्हे का सुवासा बनने में बिलकुल आनंद नहीं आया लेकिन क्यूंकि सालों से ये परंपरा चली आ रही है इसलिए ज़्यादातर पुरुषों को महिलाओं के हाथों सजना पड़ता है।

दूल्हे के फूफे को परम्परा के अनुसार सजाती हुई महिलायें

उन्होंने बताया कि बुंदेलखंड में ज़्यादातर शादियों में बिना सुवासा के बिदाई नहीं होने दी जाती है। विदाई के एक घंटे पहले दूल्हे का कलेवा किया जाता है और दूल्हे के फूफा को सुवासा बनने के लिए बुलाया जाता है। दुल्हन की बुआ दूल्हे के फूफा के चेहरे पर अलग-अलग प्रकार के चित्र बनाती हैं, मांग में सिंदूर लगाती हैं, बिंदी, काजल और लिपस्टिक लगाकर उन्हें साज-सज्जा के साथ तैयार करती हैं। और कहानी यहीं ख़तम नहीं होती सुवासा को माला भी पहनाई जाती है। और यह कोई मामूली फूलों की माला नहीं होती, बल्कि गोबर, फटे-पुराने कपड़ों, टूटी-फूटी चीज़ों से बनी हुई माला होती है। और इस पूरी परंपरा में सबसे मज़ेदार मोड़ तब आता है जब पहले फूफा जी की विदाई होती है और उसके बाद दुल्हन को विदा किया जाता है।

ओमकार जो खुद अपने आप को इस परंपरा का शिकार मानते हैं, उनका कहना है कि सालों पहले इस परंपरा को मनाना समझ में आता था, दुनिया में इतनी उन्नति नहीं हुई थी, लोग इतने पढ़े-लिखे नहीं थे। लेकिन उनका मानना है कि अब इस प्रथा को रोक देना चाहिए ताकि पुरुषों का ऐसे पूरे समाज के सामने मज़ाक न बन सके। ओमकार की मानें तो पुरुष इस प्रथा को निभाने के लिए इस वजह से तैयार हो जाते हैं ताकि शादी की खुशियों में भंग न डले। लेकिन पुरुषों को क्या पता कि घर की चार दीवारी में रह रही महिलाओं के लिए उत्साह और शक्ति प्रदर्शन के यही कुछ पल होते हैं जिसे वो खुल के जीना चाहती हैं।

चार बार सुवासा बनने का है अनुभव

जिला महोबा के रहने वाले रामकिशन भी कई बार इस परंपरा की चपेट में आ चुके हैं। अपना अनुभव साझा करते हुए रामकिशन बताते हैं कि उनके ऊपर दुखों का पहाड़ तब टूट पड़ा जब उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी के एक नहीं बल्कि चार-चार भतीजे हैं और उन्हें भविष्य में चार बार सुवासा बनने का मौका मिलने वाला है। पहली बार जब रामकिशन को उनके पहले भतीजे के विवाह में सुवासा बनने को बोला गया तब उन्हें लगा था यह इतना भी मुश्किल काम नहीं होगा लेकिन शादी के दिन जैसे-जैसे समय बीता, महिलाएं आती गयीं और रामकिशन के रंग-रूप में बदलाव करती गयीं। दुल्हन की बुआ ने पहले तो उन्हें एक साड़ी पहनाई और गले में सुंदर सी जूतों की माला पहनाई।

रामकिशन अभी अपना यह नया पहनावा देख कर पूरी तरह से होश में आ भी नहीं पाए थे कि एक महिला हाथों में महिलाओं की “अंडर गारमेंट” लिए उन्हें पहनाने के लिए आकर खड़ी हो गयी। जब रामकिशन को पूरी तरह से दुल्हन के रूप में ढाल दिया गया तब बुलवाया गया बैंड-बाजा और पूरे जोश एवं उल्लास के साथ उन्हें घर की ओर विदा किया गया।

फूफा जी की मानें तो ये उनके जीवन का सबसे बुरा दिन था। उन्होंने इससे पहले इतनी शर्मिंदगी कभी महसूस नहीं की थी। लेकिन इस पूरे वाकये में सोचने वाली बात तो यह है कि महिलाएं तो रोज़ ही साड़ी, ज़ेवर और सिर पर पल्लू के साथ रहती हैं, ऐसे में सिर्फ एक दिन कुछ घंटों के लिए पुरुष महिलाओं का रूप धारण करने में इतने हताश और निराश आखिर क्यों हो जाते हैं?

रामकिशन का कहना है कि अब तो चार-चार बार वो सुवासा बन चुके हैं और उन्हें इतना अभ्यास हो चुका है कि अगर अब कोई इन रीति-रिवाजों को मनाने में आनाकानी करता है तो वो खुद जाकर उसे समझाते हैं कि इसमें बुरा मानने वाली कोई बात नहीं है, यह सिर्फ हंसी-मज़ाक के लिए किया जा रहा है।

पुरुषों को सकारत्मक तरीके से लेना चाहिए इसमें भाग-

तो इस अनोखी परंपरा के बारे में हमने पुरुष की राय तो जान ली। अब जानते हैं कि महिलाओं का क्या कहना है सुवासा नाम की इस परंपरा के बारे में। महोबा ज़िले की रहने वाली पुन्नी का कहना है कि शादियों में असली मज़ा तब ही आता है जब उनमें अनोखी और अलग परंपराएं होती हैं। इन रीति-रिवाजों का मकसद सिर्फ लोगों को हंसाने और माहौल को ठंडा रखने का होता है लेकिन कई बार सुवासा बन रहे पुरुष इस परंपरा के दौरान रूठ जाते हैं या गुस्सा करने लगते हैं। पुन्नी का कहना है कि जब एक लड़की दुल्हन बनती है तो दूल्हे से ज़्यादा दुल्हन को नयी-नयी परंपराओं का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक ससुराल जाकर भी ऐसे कई रीति-रिवाज होते हैं जिनका सामना सिर्फ दुल्हन को करना पड़ता है। ऐसे में पुरुषों को भी थोड़ा सा धीरज रखना चाहिए और महिलाओं के इस खेल में सकारात्मकता के साथ भाग लेना चाहिए।

पुन्नी का कहना है कि शादी में सुवासा के लिए लड़कियां एक दिन पहले से तैयारी करना शुरू कर देती हैं। साज-सज्जा के सामान से लेकर चेहरे पर चित्रकारी करने के लिए अलग-अलग रंगों का इंतज़ाम पहले से ही कर लिया जाता है। उन्होंने बताया कि सुवासे के लिए माला बनाना सबसे कठिन काम होता है। आलू, टमाटर, खीरा आदि के साथ कई मालाएं तैयार की जाती हैं। जैसे ही सुवासा आता है पहले तो उसके लिपस्टिक-पाउडर लगाया जाता है, फिर उसे माला पहनाई जाती है। और सुवासा को तब तक विदा नहीं किया जाता जबतक वो नेग में कुछ रकम न दे दे।

महिलाओं ने बताया कि वो बचपन से इस प्रथा को हर शादी में देखती आ रही हैं। पहले उनकी बुआ ये प्रथा करती थीं और अब वो खुद करती हैं। इन महिलाओं के लिए शादी के समारोह का मतलब ही यह है कि इस दौरान हंसी-मज़ाक हो, नाच- गाना हो, बिना इन परंपराओं के शादी का फंक्शन मानो अधूरा सा लगता है। इन महिलाओं की मानें तो पुरुष भले कितना भी नाराज़ हो लें और क्रोध प्रकट कर लें, वो आगे भी इस परंपरा को कायम रखेंगी और आने वाली पीढ़ी को भी इसका पालन करने के लिए कहेंगी।

इन महिलाओं के पास एक यही मौका होता है जब वो बिना समाज की परवाह करे पुरुषों को अपने रंग में रंग सकती हैं और पुरुषों को भी परंपरा होने के कारण उनकी बात माननी पड़ती है। असल जीवन में तो यह महिलाएं कई तरह के भेदभाव का शकार होती हैं लेकिन इन रीति-रिवाजों के चलते ही सही उन्हें कुछ पल खुश रहने का मौका मिलता है। सोचने वाली बात तो यह है कि सदियों पुरानी इन परंपराओं में आज तक महिलाओं की शक्ति और उनका साहसी स्वभाव झलकता है लेकिन आज के समय में समाज ने महिलाओं को इतना कमज़ोर और दुर्बल समझ लिया है कि उनकी इस शक्ति और आत्मविश्वास की सराहना करने के बजाय कदम-कदम पर समाज उनकी परीक्षा ले रहा होता है। तो आप भी इन परंपराओं को ख़तम करने के बजाय इनसे कुछ सीख लेने के बारे में ज़रूर सोचिएगा।

इस खबर को खबर लहरिया के लिए श्यामकली द्वारा रिपोर्ट किया गया है।

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