खबर लहरिया Blog धार्मिक मुद्दे व हिंसक मामलों पर ग्रामीण महिला पत्रकार का पत्रकारिता का अनुभव

धार्मिक मुद्दे व हिंसक मामलों पर ग्रामीण महिला पत्रकार का पत्रकारिता का अनुभव

सांप्रदायिक सौहार्द्र, प्रेम, मिलवर्तन, भाईचारा क्या सिर्फ किताबों तक ही रहेगा या लोग कभी इससे आगे भी इसे पूरी तरह से अपना पाएंगे? यह सवाल हर बार किसी मंदिर तो कभी मस्जिद से जुड़े फैसले के दौरान सामने आकर खड़ा हो जाता है पर उसका जवाब क्या है?

reporting experience of rural women journalist on religious issues and violent matters

राम मंदिर, बाबरी मस्जिद, ज्ञानवापी मस्जिद व बुलडोज़र से गिराए गए घरों को प्रदर्शित करती हुई सांकेतिक तस्वीर  (फोटो साभार : MidJourney)

आज 9 नवंबर 2022 है। आज से कुछ साल पीछे चला जाए तो आज के ही दिन 9 नवम्बर 2019 को राम मंदिर का फैसला आया था। यह तारीख, यह दिन हमेशा साम्प्रदायिक सौहार्द पर सवाल खड़ा करती रही है। फिर वही सवाल ज़हन में आता है, राम मंदिर का फैसला आने के बाद से देश का माहौल कैसा रहा?

राम मंदिर के फैसले को लेकर बाहरी तौर पर काफी दावे किये जा रहे थे कि कोई सार्वजानिक जश्न नहीं मनाया जायेगा पर हाँ, फैसले का जश्न तो मनाया गया क्योंकि इस फैसले का इंतज़ार लोगों को दशकों से था।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब ज़मीन ट्रस्ट को सौंपते हुए हिन्दू मंदिर बनाने का फैसला सुनाया गया तब लोगों से कोर्ट ने खुश रहने की भी अपील की। वहीं सवाल यह था कि क्या कहने भर से कोई खुश हो सकता है? क्या उनसे पूछा गया कि वह फैसले से खुश हैं भी या नहीं? या सिर्फ एक पक्ष की ख़ुशी ही काफी है?

सांप्रदायिकता से जुड़े मुद्दे व फैसले, हमेशा ही चर्चा का विषय बने रहते हैं लेकिन यह मुद्दे उतने ही संवेदनशील भी होते हैं। लोग इन मुद्दों पर खुलकर विचार प्रकट कर पाने में कतराते हैं।

खबर लहरिया साल 2002 से समाज के बीच उसके छोटे से बड़े मुद्दों पर काम करती आ रही है। खबर लहरिया की महिला पत्रकारों ने तब से लेकर अभी तक समाज में होते कई परिवर्तनों को करीब से देखा है जिसका अनुभव हम इस आर्टिकल के ज़रिये आपके साथ साझा कर रहे हैं।

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विद्यालयों से ही दिखने लगता है धार्मिक भेदभाव

मैं (खबर लहरिया की प्रबंध संपादक मीरा देवी) सोलह सालों से सामाजिक मुद्दों पर रिपोर्टिंग कर रही हूं। मैंने इस बदलते माहौल को करीब से देखा और समझा है। इतने ही साल का नहीं बल्कि आपके साथ अपने बचपन की भी बातें बताऊंगी। जब मैं स्कूल और कॉलेज में थी तो सभी धर्मों में से हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई धर्म के मेरे सहपाठी रहे हैं लेकिन मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया कि कौन किस धर्म से है।

त्योहारों में सबके घरों से लंच में व्यंजन हुआ करते थे। अपने आस-पास भी इस चीज़ पर न तो कभी गौर किया और न ही कभी यह बात जाने की महसूसियत समझी कि कौन, किस धर्म से है। हाँ, सबको एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होते बहुत देखा था।

जब मैं यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के बाद जॉब पर आई और खुद के बच्चों को स्कूल भेजा तब थोड़ा हिन्दू-मुस्लिम धर्म के नाम की आवाजें सुनाई दीं जो शब्द मेरे लिए अभी तक बस किताबों तक सीमित थे।

बच्चों को हिन्दू-मुस्लिम के फर्क को समझाने के लिए मुस्लिम स्कूल में डाला जहां हिन्दू बच्चों को मुस्लिम बच्चों से कुछ घंटों के लिए अलग पढ़ाया जाता था। इससे यह समझ आया कि मुस्लिम धर्म में हिन्दू बच्चों को नहीं पढ़ाया जा सकता। मेरे बच्चों को उर्दू पढ़ने का शौक था लेकिन इस पर किसी को भरोसा नहीं होता था। हार मानकर फिर मैनें अपने बच्चों को हिन्दू विद्यालय में डाला। वहां यह पता चला कि जो पूर्व विद्यालय में हिन्दू बच्चों के साथ होता था, यहां मुस्लिम बच्चों के साथ किया जा रहा है। फर्क इतना था कि मुझे यह मंज़ूर नहीं था लेकिन इस तरह के भेदभाव से मुस्लिम छात्रों के परिवारों को कोई आपत्ति नहीं थी।

जब मैं खबरों की कवरेज के लिए जाती तो हिन्दू-मुस्लिम बस्तियों में विकास के मुद्दे अलग तरह से देखने को मिलते। अब धीरे-धीरे फर्क समझ आ रहा था। फिर जैसे ही भाजपा की सरकार सत्ता में आई तो ऐसा माहौल हो गया कि अब सब हिन्दू बन जाएंगे। यह देखने और सुनने को मिलने लगा कि सब एकजुट हैं क्योंकि सबने मिलकर मोदी की आंधी चलाई और सरकार बनवाई।

यहां बात सिर्फ सरकार बनाने तक सीमित नहीं थी। धर्मों के बीच बढ़ती गहराई में उत्तर प्रदेश की बढ़ती भूमिका को देखा गया जिसे भाजपा का गढ़ कहा जा सकता है। युवक अंधभक्तों की तरह एक धार्मिक विचारधारा की तरफ दौड़ते नज़र आये। अब धर्म शब्द ने लोगों के बीच डर की जगह ले ली थी। हमने देखा कि लोगों से उनका अभिव्यक्ति का अधिकार छिन रहा था। इन सब चीज़ों का अनुभव मुझे अपनी साथी रिपोर्टर के साथ तब हुआ जब मैं इन मुद्दों पर रिपोर्टिंग के लिए निकली।

अगर मंदिर नहीं तो मस्जिद कैसे?

बात, 5 अगस्त 2020 की है। यूपी के महोबा जिले में मदीना मस्जिद तोड़ी गयी थी जिसे लेकर प्रशासन और हिन्दू संगठन का दावा था कि यह मस्जिद पीडब्ल्यूडी विभाग के ज़मीन में आ रही है। वहीं कुछ मुस्लिम और हिन्दू जानकारों से पता चला कि वास्तविक कारण यह था कि सड़क चौड़ीकरण में मंदिर और कई पेड़ जो हिन्दू आस्था से जुड़े हुए थे उनको हटाया गया है। मदीना मस्जिद का कुछ ही हिस्सा गिरना था लेकिन प्रशासन द्वारा देर रात 2 बजे अचानक से मस्जिद का नामोनिशान मिटा दिया गया। प्रशासन से यह मांग हिन्दू संगठन ने रखी थी। यह भी कहा गया था कि अगर मस्जिद नहीं गिरी तो बड़ा आंदोलन होगा। प्रशासन ने इस पर चुप्पी साध ली थी।

हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे पर रिपोर्टिंग के दौरान जब मैं लोगों से बात कर रही थी तो कई हिन्दुओं ने खुलकर बात की तो वहीं मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इस शर्त पर बात रखी कि उनकी पहचान गुप्त रखी जाए। प्रशासन ने तो पूरे मामले में चुप्पी साधने के लिए अलावा कुछ नहीं किया लेकिन लोगों से इस बारे में बात करते हुए मैनें उनकी आँखों में डर ज़रूर से देखा।

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बुलडोज़र के एकतरफा धार्मिक पहिये

मेरी एक सहेली ने मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले से एक स्टोरी कवरेज की थी। स्टोरी थी कि बुल्डोजर से लोगों के घर गिराकर उनको बेघर किया जा रहा था। उनके ऊपर आरोप लगाया गया था कि वह अपराधी हैं। उन्होंने क्राइम किया है।

इस मुद्दे की कवरेज कर रही महिला रिपोर्टर ने कहा, “वाराणसी ज्ञानवापी मस्जिद मामले में मैंने देखा कि चप्पे-चप्पे पर पुलिस का पहरा था। माहौल बहुत ज़्यादा गर्म था। एक तरफ हिंदुत्व के लोग मस्जिद को काशी विश्वनाथ की भूमि बता रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय के लोग उसे ज्ञानवापी मस्जिद कह रहे थे। इस गर्म माहौल के बीच लोगों को सिर्फ अदालत के फैसले का इंतज़ार था। मैंने गंगा घाट में देखा कि किस तरह से वहां पर हिंदू आवाजें बुलंद थीं। वहीं मुस्लिम मौलाना के घरों में पुलिस का जमावड़ा था। मैं सोच रही थी कि मंदिर हो या मस्जिद अगर देश में दोनों समुदाय के लोग हैं तो दोनों धर्मस्थल होने चाहिए। इसमें भाईचारा बनाकर चलने में क्या बुराई है? जब हिंदू और मुस्लिम के घरों की दीवारें एक हो सकती हैं तो मंदिर और मस्जिद की क्यों नहीं? इसको क्यों इतना बड़ा बखेड़ा बनाया जा रहा है? क्यों लोग जाति और धर्म के नाम पर आपसी भाईचारे को भूल रहे हैं?

इसी मुद्दे से जुड़ी अपनी दूसरी कवरेज को लेकर वह कहती है, “जून के महीने में मैं छतरपुर बुल्डोजर स्टोरी कवरेज के लिए गयी। मैंने देखा कि वहां करोड़ों की बनी बिल्डिंग डीजे-बाजे व पूरी पुलिस फ़ोर्स के साथ धाराशायी कर दी गयी। जब इमारत को गिराया गया तो गली-मोहल्ले से लोगों की आवाज़ें सुनाई दे रही थी। इमारत को गिराने को लेकर पहले कोई सूचना नहीं दी गयी थी। स्थानीय लोगों ने बताया कि जिस व्यक्ति ने अपराध किया है, उसके घर की इमारत गिराई गयी है।

अपराधियों को सज़ा देने के इस सिलसिले में सिर्फ मुस्लिमों के घर टूटे और एकाध हिंदुओं के घर भी। बाकी हिन्दुओं के घर सही-सलामत खड़े दिख रहे थे जिससे यह बात तो साफ़ थी कि सिर्फ मुस्लिमों को ही टारगेट किया जा रहा है। लोगों से इस बारे में बात करने की कोशिश करती तो लोग जगह छोड़कर चले जाते। अपने घर के दरवाज़े बंद कर लेते। एक घर में कई लोग रहते हैं। हो सकता है कि क्रिमिनल बेटा हो, बाप के नाम या मां के नाम घर हो लेकिन एक ऐसा व्यक्ति होने से उसका पूरा घर गिरा देना यह कोई न्यायिक मामला नहीं है।

हमीरपुर में भी इस तरह से कुछ लोगों को अपराधी बताकर बुलडोज़र से उनके घर गिरा दिए गए। उस दिन से वहां पर लोगों को किराये के कमरे नहीं मिल रहें हैं। यहां किराये पर रह रहें लोग औद्योगिक क्षेत्र से जुड़े हुए हैं और दूर-दूर से यहां आकर रोज़गार के लिए बसे हुए हैं। यहां रह रहे किरायदारों से मकान खाली करा दिए गए।

एक तरफ जहां सरकार हर घर को छत देने के वादे पर काम कर रही है ताकि लोग बेघर न हो, वहीं दूसरी तरफ इस तरह के महौल उत्पन्न होने की वजह से लोग बेघर हो रहे हैं और भाईचारा बिगड़ रहा है। इसके बारे में कोई क्यों नहीं सोचता, क्या क्रिमिनल लोगों के घर बुलडोजर से गिराने से क्राइम बंद हो जाएगा? क्या मंदिर और मस्जिद करने से जो ‘सबका साथ, सबका विकास’ हो पाएगा।”

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बाबरी मस्जिद के पक्ष में फैसला आता तो?

बाबरी मस्जिद को लेकर अन्य महिला पत्रकार ने बताया, “जब मैं कक्षा 9 में थी तब बाबरी मस्जिद को लेकर काफी कुछ सुना था। हिन्दू लोग कहते मंदिर बनेगा तो मुस्लिम समाज के लोग कहते मस्जिद बनना चाहिए। फिर यह फैसला कोर्ट में चला गया। जब भी इस मुद्दे को लेकर सुनवाई का दिन आता तो लोगों में फिर भय बैठ जाता क्योंकि इस मुद्दे पर कई बार दंगे भड़क चुके हैं। कई लोगों को जानें जा चुकी हैं। हिन्दू-मुस्लिम की इस लड़ाई में काफी खून बहा है। काफी घर जल जले हैं।

धीरे-धीरे यह बात फैल गई कि कोर्ट का जो भी फैसला आएगा, वह दोनों पक्षों को मानना पड़ेगा। फैसले की सुनवाई की तारीख को आने में 2 दिन बाकी थे तब से सारे स्कूल, कॉलेज व कोचिंग सब बंद कर दिए गए थे। मैं खुद एक कोचिंग में जाती थी। वहां 6 नवंबर से एक हफ्ते के लिए कोचिंग बंद कर दिया गया था। अदालत के फैसले को लेकर हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही पक्ष डरे हुए थे।

उस समय मैं खबर लहरिया के लिए अयोध्या जिले से रिपोर्टिंग कर रही थी। 9 नवंबर 2019, फैसले वाले दिन मुझे रिपोर्टिंग करना था। मन में काफी डर था फिर भी अपने डर के साथ और अपने कैमरा व माइक के साथ मैं सुबह 6:30 बजे रिपोर्टिंग के लिए निकल पड़ी। मन में डर था कि कहीं दंगा-फसाद न हो जाए। मैं अपने आपको कैसे सुरक्षित रख पाउंगी। परिवार पर अगर कोई हमला होता है या फिर उधर बवाल होता है तो उन्हें कैसे बचाऊंगी। मेरा ये डर अकेले का नहीं था। यह हर एक अयोध्यावासी और हर एक नागरिक का डर था। फैसला मन्दिर के पक्ष में आया लेकिन दबी ज़ुबान लोगों ने कहा कि अगर फैसला मस्जिद के पक्ष में आता तो? ”

धार्मिक मसलों कभी कोई अंत नहीं रहा और तब तक नहीं हो सकता जब तक लोग एक-दूसरे के विश्वास व उनकी इच्छाओं का सम्मान करना नहीं सीखते। कहते आ रहें हैं कि “धर्म जोड़ता है बांटता नहीं” तो हमने क्यों खुद को बांट रखा है? कभी किसी के हक़ में फैसला आएगा तो कभी किसी के विरुद्ध। ऐसे में साम्प्रदायिक सद्भाव को ठेस क्यों पहुँचाना? जब सौहार्द की बातें की जा रही हैं तो समझाइश होना बेहद ज़रूरी हो जाता है और उसके लिए सबसे पहले एकतरफा धार्मिक विचारधाराओं से आगे बढ़ना होगा, फिलहाल के लिए। फिलहाल, यही पहली कड़ी है।

इस लेख को मीरा देवी द्वारा लिखा गया है। 

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