खबर लहरिया Blog मकर संक्रांति के दिन उड़ती पतंगे हैं रोज़गार का ज़रिया

मकर संक्रांति के दिन उड़ती पतंगे हैं रोज़गार का ज़रिया

40 साल से दो बहनें पतंग बनाकर करती हैं रोज़गार। कई जगहों से आते हैं पतंग बनवाने के लिए आर्डर।

मकर संक्रांति के आने से पहले ही उसकी तैयारियां शुरू हो जाती है। पहले तो त्यौहार से पहले लोग घरों में ही पतंगे बनाना शुरू कर देते थे। आज तो लोग बनी-बनाई पतंग आसानी से खरीद कर उड़ाते है। हाँ, कुछ लोग हैं जो आज भी अपने हाथों से बनाई हुई पतंगे बनाते हैं और उड़ाते हैं। इस दौरान बच्चे काफी खुश नज़र आते हैं। नए-नए आकार की पतंगे आकर्षण का केंद्र बनी होती हैं। पतंग के शौक़ीन लोग पतंगबाज़ी या पतंग की प्रतियोगिता भी करते हैं कि किसकी पतंग का दबदबा आसमान की ऊंचाई पर होगा।

किसी के लिए यह त्यौहार मनोंरजन है तो किसी के लिए उसका रोज़गार। इस आर्टिकल में आज हम आपको दो बहनों के बारे में बताने जा रहे हैं जिनका रोज़गार पतंग बनाने से ही चलता है।

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पतंग है जीवनयापन का ज़रिया

वाराणसी जिले की पीली कोठी नगर क्षेत्र कटेहल का एक परिवार सालों से पतंग बनाने का काम करता आ रहा है। इसी से उनका रोज़गार चलता है। 50 वर्ष की नज़ीरून बानू व 40 साल की अफ़साना बानों, दोनों बहनें लगभग 40 सालों से पतंग बनाने का काम करती आ रहीं हैं।

नज़ीरून बानू कहती हैं, आज वह जिन हालातों से गुज़र रही हैं वह किसी को कह भी नहीं सकतीं। बच्चों के लिए सबसे बड़ा प्यार माँ-बाप का होता है जो उन्हें बचपन में ही छोड़कर चले गए थे। घर-परिवार में उनका कोई सहारा नहीं था। जब से उन्होंने होश संभाला है तब से जीवनयापन के लिए काम कर रही हैं। वह यह काम पूरे साल करती हैं। दीपावली के बाद पतंग की मार्केटिंग भी होती है। पहले वह 3 तीन रूपये में पतंग बनाती थीं। आज वही पतंग 20 या 100 रूपये में बन रहे हैं।

वह बनारस के एक कारीगर को पतंग बनाने के लिए देती हैं। उन्हें इस दौरान बैठने का भी मौका नहीं मिलता। वह लगातार पतंग बनाती रहती हैं और इसी से अपनी ज़रुरत पूरी करती हैं। सरकार की तरफ से उन्हें आज तक किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है।

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अफ़साना बानो हमें बताती हैं, उन दोनों बहनों ने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाये। वह कहती हैं, ‘आज के ज़माने में लोग सोचते हैं कि कब लड़कियों को घर से भगा दिया जाए। मां-बाप नहीं है तो और सारी चीजें हम लोग हड़प ले।’ इन्हीं चीज़ों को देखते हुए वह पतंग बना रही हैं। पहले वह एक दिन में सौ या डेढ़ सौ रूपये तक की पतंग बना लेती थीं। अब ज़्यादा उम्र हो जाने की वजह से उन्हें बैठने में भी दिककत आती है।

ज़्यादा पतंगे बनाने में सामग्री भी ज़्यादा लगती है। लकड़ियां, कागज़, चिपकाने के लिए ग्ल्यू, धागा आदि। एक पतंग बनाने में यह चीज़ें और 60 से 70 रूपये लग जाते हैं लेकिन वह लोग पेट भरने तक के लिए कमा लेती हैं। वह एक दिन में 80 से 90 पतंगे बना लेती हैं। पहले तो वह दोनों बहनें एक दिन में 200 से 250 पतंगे भी बना लेती थीं।

बनारस में कई दुकाने हैं जहां से उनसे पतंग बनाने का आर्डर दिया जाता है। वह कहतीं हैं कि औरंगाबाद, नई सड़क, पीली कोठी, चेतगंज, बिसेसरगंज मतलब बनारस में कोई ऐसी जगह नहीं होगी जहां से उनके द्वारा पतंग न बनवाया गया हो। उनकी पूरी उम्र पतंग बनाने में ही बीत गयी।

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इस खबर की रिपोर्टिंग सुशीला देवी द्वारा की गयी है। 

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