खबर लहरिया Blog बसपा प्रमुख का ऐसा बयान, मच गया घमासान

बसपा प्रमुख का ऐसा बयान, मच गया घमासान

दलितों की मसीहा मानी जाने वाली नेता बसपा सुप्रीमो मायावती कितनी बड़ी अवसरवादी और दलबदलू हो गई हैं यह दलित समाज सोचकर हैरान है। भले ही उन्होंने लोगों के बीच पनप रही उलझन को ध्यान में रखकर अपने बयानों में सफाई दी हो। उदाहरण के तौर पर मीडिया चैनलों में आई खबरों के अनुसार बिहार में चल रहे विधानसभा चुनाव में मायावती ने 1 नवंबर को जिस तरह के बयान दिए है कि जब यहां एमएलसी के चुनाव होंगे तो सपा के दूसरे उम्मीदवारों को हराने के लिए बसपा अपनी पूरी ताक़त लगा देगी।

इसके लिए चाहे पार्टी के विधायकों को इनके (सपा) उम्मीदवार को हराने के लिए बीजेपी या अन्य किसी भी विरोधी पार्टी के उम्मीदवार को अपना वोट क्यों न देना पड़ जाए, तो भी देंगे। इस बयान के बाद ये कहा जा रहा है कि मायावती अब बीजेपी से गठबंधन कर सकती हैं और यह सांठगांठ उनकी पहले से तय हो चुकी है। समाजवादी पार्टी को हराने के लिए ही सही, लेकिन बीजेपी को समर्थन देने की बात मायावती कैसे कर सकती हैं।

बीजेपी से गठबंधन के बजाय संन्यास लेना पसंद

हालांकि 2 नवंबर को ऐसी भी खबर देखने को मिली कि उन्होंने कहा कि बीजेपी से गठबंधन के बजाय संन्यास लेना पसंद करेंगी। उनकी विचारधारा ‘सर्वजन सर्वधर्म हिताय’ की है। बीएसपी उनके साथ गठबंधन नहीं कर सकती। यह सभी जानते हैं कि बसपा एक विचारधारा और आंदोलन की पार्टी है और जब उन्होंने भाजपा के साथ सरकार बनाई तब भी मैने कभी समझौता नहीं किया। मेरे शासन में कोई हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ इतिहास इसका गवाह है।

बीएसपी पहले भी कर चुकी हैं गठबंधन

बीएसपी पहले भी सपा, बीजेपी और कांग्रेस से गठबंधन कर चुकी हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में बीएसपी ने सपा से गठबंधन किया था। लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह का माहौल बना हुआ है उससे बीएसपी पार्टी शायद ही गठबंधन करें। पार्टी मुखिया मायावती ने एक बयान में कहा कि बसपा सांप्रदायिक, जातिवादी और पूंजीवादी विचारधारा रखने वालों के साथ कभी गठबंधन नहीं कर सकती है। उन्होंने दावा किया कि वह सांप्रदायिक, जातिवादी और पूंजीवादी विचारधारा रखने वालों के साथ सभी मोर्चों पर लड़़ेंगी और किसी के सामने झुकेंगी नहीं।

*बसपा का लगातार गिरता जा रहा आस्तित्व*

2007 में उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ़ उसके बाद लगातार गिरता ही गया। विधानसभा चुनाव 2007 में उन्हें जहां 206 सीटें मिली थीं, वहीं साल 2012 में महज़ 80 सीटें मिलीं। 2017 में यह आंकड़ा 19 सीटों पर आ गया। यही नहीं, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें राज्य में एक भी सीट हासिल नहीं हुई। इस दौरान बीएसपी का न सिर्फ़ राजनीतिक ग्राफ़ गिरता गया, बल्कि उसके कई ऐसे नेता तक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए जो न सिर्फ़ क़द्दावर माने जाते थे बल्कि पार्टी की स्थापना के समय से ही उससे जुड़े थे।

उत्तर प्रदेश में दलितों की मसीहा मायावती

उत्तर प्रदेश जो सबसे बड़ा राज्य है, सबसे ज्यादा सीटें (80) हैं, सबसे ज्यादा जातिवाद राजनीतिक गढ़ है। यहां पर समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सरकारों में से बसपा सुप्रीमो मायावती के मुख्यमंत्री रहते समय को याद करते हैं। खासकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मुश्लिम व हासिए पर रहने वाले लोगों को बहुत हक के साथ ये अहसास था कि उनकी सरकार है। उनकी सरकार सुनती है, उनका ख्याल रखती है। अक्सर सुनने में मिल जाता है कि उनके मुख्यमंत्री रहते कानून व्यवस्था बहुत अच्छी रही। अब जैसे जैसे राजनीति में उम्रदराज़ होतीं जा रही हैं वैसे वैसे वह अपनी पार्टी के उद्देश्यों और मूल्यों पर शायद ही ध्यान दे पाएंगी फिर भी उम्मीदें अभी कायम हैं।

दलित तलाश रहा है विकल्प

अभी यह सब कहना शायद जल्दबाज़ी होगी। कांग्रेस पार्टी की सक्रियता, दलितों के प्रति दिखाई जा रही हमदर्दी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी की सक्रियता को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दलित भी विकल्प तलाशने लगा है और आगे भी तलाशेगा।