खबर लहरिया औरतें काम पर जब ऐसी सोच पर सवाल उठता है तो…….

जब ऐसी सोच पर सवाल उठता है तो…….

8 मार्च को विश्व महिला दिवस के रूप में महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उत्थान की बात करके 10 मार्च को होली त्यौहार मनाकर उसी महिला के मान, सम्मान और अस्मिता को जलाकर महिलाओं को खत्म करके इस बात की खुशी मनाई जाती है कि बुराई पर सत्य की जीत है। हम और हमारी संस्कृति और परम्पराएं खुद से सवाल करने लगती हैं तब जवाब ढूढ़ना मुश्किल होता है। असल में बात यह है कि एक तरफ हम विश्व महिला दिवस मनाते हैं तो दूसरी तरफ होली त्योहार पर महिला का पुतला जलाकर उसकी जिंदगी को ही खत्म कर देते हैं। मैं नहीं जानती इसमें कितनी सच्चाई है पर हां ये समझ में आता है कि जब भी ऐसी रिवाज पर सवाल उठाया जाता है तो बहुत सारे लोग इसका विरोध करने लगते हैं। उनको लगता है कि इस तरह के सवाल उठाकर हिन्दू रीति रिवाजों को बुरा कहा जा रहा है। कहते हैं कि आखिरकार हिन्दू धर्म के त्यौहारों पर ही सवाल क्यों? लोग धर्म और कौम की बातें करने में उतारू हो जाते हैं। हां विचार सबके अलग अलग हो सकते हैं पर अगर महिलाओं को ध्यान में रखकर सोचें विचारें तो ये सवाल उठना लाज़मी है। क्योंकि ऐसी पितृसत्तात्मक सोच महिला हिंसा को जन्म देती है और उनके हक़ अधिकारों के खिलाफ है।

साभार: विकिमीडिया कॉमन्स

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस हर वर्ष, 8 मार्च को मनाया जाता है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है तो वहीं होली के त्यौहार से एक दिन पहले वह भी रात में सारे पुरुष मिलकर महिला रूपी मूर्ती को जलाते हैं। वह मूर्ती नहीं जलाते उसकी अस्मिता, मान, सम्मान, हक़, अधिकार सब कुछ जलाकर राख कर देते हैं। ऊपर से इस बुराई को छिपाने के लिए कहा जाता है कि सच्चाई में बुराई की जीत है। सवाल ये है कि आखिरकार बुराई का प्रतीक महिला (पूतना) ही क्यों? जबकि एक पुरुष (हिरणाकश्यप) ने इस तरह की कहानी रचने के लिए महिला को मोहरा बनाया। तो महिलाओं के प्रति इस तरह की कहानियां रचकर उनको समाज में नीचा दिखाने का काम पुरूष रूपी पितृसत्ता ने किया और हर साल या यूं कहें साल दर साल महिलाओं को यही पितृसत्ता जलाती है। इतना ही नहीं खुशी का इज़हार इस कदर कि रंग, गुलाल के साथ फुल मस्ती और हुड़दंग। ऊपर से महिलाओं के साथ ‘बुरा न मानो होली है’ की आड़ में उनसे छेड़छाड़ और साथ ही शारीरिक और मानसिक और यौन उत्पीड़न होता है।

अगर इन दोनों त्योहारों के बारे में सोचा जाए तो समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिरकार समाज में कायम पितृसत्ता महिलाओं के प्रति कितनी संवेदनशील है। फिर महिलाएं इतनी कमजोर तो नहीं जो हर साल इस तरह दोहरी रणनीति को समझ न रही हो? इसलिए ऐसी सोच पर सवाल उठाना, बहस करना और चुनौती देना बहुत जरूरी है।