लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान बीबीसी की मार्च के महीने में प्रकाशित रिपोर्ट ने बताया गया, विश्लेषकों का कहना था कि 20 मिलियन से ज़्यादा लापता महिलाएं, यानी भारत के हर निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 38,000 महिला मतदाता गायब हैं। भारत के सबसे अधिक आबादी वाले और महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश जैसे स्थानों में, यह आंकड़ा हर सीट पर 80,000 महिलाओं के लापता होने तक पहुंच गया है।
Elections: पहले आम चुनाव के दौरान जब चुनाव आयोग के प्रतिनिधियों ने चुनावी डेटा इकठ्ठा करने के लिए गांवो का दौरा किया, तो बड़ी संख्या में महिलाओं ने अजनबियों के साथ अपना नाम साझा करने से इंकार कर दिया। इसके बजाय, उन्होंने खुद को किसी की पत्नी, माँ, बेटी, बहन या विधवा के रूप में पहचाना। नतीजा ये हुआ कि प्रथम चुनाव के दौरान मतदाता सूची में 28 लाख नाम हटा दिए गए।
निर्वाचन आयोग ने यह किस्सा हाल ही में लोकसभा चुनाव के दौरान अपने X अकाउंट पर शेयर किया। बता दें, पहला चुनाव 1951 में कराया गया था।
अब यहां ये सवाल करते हैं कि आखिर महिलाएं अपना नाम बताने से क्यों हिचकिचा रही थीं? क्यों वे अपने नाम की पहचान बताने की बजाय किसी और संबंध से अपना नाम, अपनी पहचान बता रही थीं? हालांकि, अगर वर्तमान समय की बात की जाए तो महिला मतदाताओं की संख्या हर चुनाव में बड़े नंबर में बढ़ती देखी गई है लेकिन क्या हम ऐसा ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कह सकते हैं? वह क्षेत्र जहां महिलाओं की पहचान आज भी अपने पति,पिता व बच्चों से हैं। साथ ही, ऐसा नहीं है कि शहरी क्षेत्रों में यह समस्या बिलकुल नहीं है, यह वहां भी देखी जा सकती है।
खबर लहरिया ने भी अपनी रिपोर्टिंग में हमेशा यह देखा है कि महिलायें सामने आकर अपनी पहचान नहीं बता पातीं, तब भी जब वह बेहद ज़्यादा ज़रूरी हो। उनकी जगह उनके पति या बच्चे सामने आकर बात रखते हैं। ऐसे में महिलाओं की पहचान किसी की परछाई के अंदर रहते-रहते एक दिन गायब हो जाती है, खत्म हो जाती है। उनका नाम कभी पहचान के रूप में दर्ज़ ही नहीं हो पाता।
हालांकि, एक तरफ पहचान न बताने को सुरक्षा के रूप में भी देखा जा सकता है लेकिन जब हम मतदान के परिदृश्य में इसे देखते हैं तो यह उनके अस्तित्व व पहचान की स्थायिता पर सवाल उठाने का काम करती है।
इसके साथ-साथ यह घबराहट,डर,सामने आकर अपनी पहचान न बताना इत्यादि सामाजिक ढाँचे व पितृसत्ता का स्वरूप है। वह ढांचा जहां यही सिखाया गया है कि दहलीज़ के बाहर कदम नहीं रखना, परिवार को छोड़कर किसी अन्य से बात नहीं करनी। अगर ऐसा किया तो समाज में इज़्ज़त का सवाल खड़ा हो जाएगा।
मतदाता सूची से महिलाओं के गायब होने को लेकर क्या कहती हैं रिपोर्ट?
पहले चुनाव के बाद आगे हुए चुनावों को लेकर भी ऐसी कई रिपोर्ट्स सामने आईं जिन्होंने यह बताया कि किस तरह से मतदान सूचियों से महिलाओं के नाम गायब थे या गायब हो गए थे। हमने यह देखा है कि निर्वाचन आयोग लिंग,उम्र व जनसंख्या अनुपात इत्यादि को देखते हुए यह निश्चित करने की कोशिश करता है कि कोई मतदाता न छूटे जोकि मत देने के योग्य है। फिर इतनी सब चीज़ों के बावजूद भी महिलाओं के नाम गायब क्यों है? महिलाएं मतदाता सूची में क्यों नहीं है?
वहीं जिन रिपोर्ट्स को हमने ढूंढ़ा उसमें भी यह साफ़ नहीं था कि आंकड़ा राज्य के शहरी क्षेत्रों से है या गाँव के। इसके आलावा गांव स्तर अमूमन उतनी रिपोर्ट मिलती भी नहीं है।
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लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान बीबीसी की मार्च के महीने में प्रकाशित रिपोर्ट ने बताया गया, विश्लेषकों का कहना था कि 20 मिलियन से ज़्यादा लापता महिलाएं, यानी भारत के हर निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 38,000 महिला मतदाता गायब हैं। भारत के सबसे अधिक आबादी वाले और महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश जैसे स्थानों में, यह आंकड़ा हर सीट पर 80,000 महिलाओं के लापता होने तक पहुंच गया है।
इसके साथ ही यह देखा गया कि हर पांच में से एक सीट लगभग 38,000 के कम वोटों के अंतर से जीती या हारी गई है। यह ये दर्शाता है कि लापता महिलाएं व उनकी पहचान कई सीटों के नतीजे बदल सकती है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में लिंग अनुपात महिलाओं के विपरीत है व औसतन मतदाता पुरुष हैं तो ऐसे में महिला मतदाताओं की प्राथमिकता को नज़रअंदाज़ करने की संभावना ज़्यादा बढ़ जाती है। ऐसे में उनके मत व पहचान एक बार फिर छाये में छिप जाते हैं।
महिलाओं व उनके पहचान के लापता हो जाने का किस्सा सिर्फ मत व चुनाव से ही नहीं बल्कि शुरू से है जोकि सामाजिक ढांचे व उसके नियमों व विचारों से जुड़ा है। जो आज भी महिलाओं को अपनी पहचान के साथ आगे नहीं आने देता।
साल 2018 में सरकार द्वारा एक रिपोर्ट पेश की गई थी जिसमें यह पाया गया कि भारत की आबादी से 63 मिलियन महिलाएं गायब थीं। इसकी वजह थी, लिंग-चयन जिसमें लोगों ने बेटों को प्राथमिकता दी, जिससे चयन के अनुसार भारी मात्रा में गर्भपात हुए।
लिखित रिपोर्ट के अनुसार,अर्थशास्त्री शमिका रवि और मुदित कपूर ने अनुमान लगाया कि 65 मिलियन से अधिक महिलाएं व उनमें लगभग 20% महिला मतदाताओं की संख्या गायब थी। इसमें वे महिलाएं शामिल थीं जो वोट देने के लिए पंजीकृत नहीं थीं। वे महिलाएं जो “उपेक्षा की वजह से जनसंख्या में नहीं थीं” (लिंग अनुपात में गिरावट को दर्शाती है)। उन्होंने यह कहा कि चुनाव यह दर्शाता है कि जनसंख्या किस तरफ झुकी हुई है व महिलाएं किस तरह से गायब हो रखी हैं।
यहां दोबारा से सवाल किया गया कि महिलाएं मतदाता सूची गायब क्यों हैं? क्या ऐसा इसलिए क्योंकि कई महिलाएं शादी के बाद अपना घर बदल लेती हैं और दोबारा से पंजीकरण नहीं करा पातीं ? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि परिवार अब भी मतदाता सूचियों में अधिकारीयों को महिलाओं की तस्वीरें लगाने देने के लिए इंकार करते हैं?
यह सारे के सारे सवाल व वजहें सामाजिक ढांचे, पितृसत्ता व धारणा से जुड़ी हुई है जिसने आज भी महिलाओं व उनकी पहचान को गायब/लापता कर रखा है।
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