खबर लहरिया खेती कृषि प्रधान देश में किसानों का हाल देखिए चीफ रिपोर्टर की डायरी, एपिसोड 51

कृषि प्रधान देश में किसानों का हाल देखिए चीफ रिपोर्टर की डायरी, एपिसोड 51

चीफ रिपोर्टर की डायरी, एपिसोड 51

हेलो दोस्तो में हूं मीरा, मेरे शो “चीफ रिपोर्टर की डायरी से” के 51वे एपिसोड में आपका बहुत बहुत स्वागत है। जून 2013 की बात है। महोबा जिले के झिर सहेबा गांव में बांध बनाने के लिए किसानों की खेतिहर जमीन ली जा रही थी। कुछ किसान इसका विरोध कर रहे थे पर प्रशासन मनमानी ढंग से जमीन ले रहा था। किसान माने तो उसको मुआवजे के रूप में कुछ पैसा दे दिया जाता था और जो न माने तो उसकी जमीन तो ले ली जा ही रही थी पर मुआवजा नहीं दिया जा रहा था। एक किसान ने विरोध में आग लगाकर खेत में आत्महत्या कर ली थी। पूरा प्रशासन का हुजूम मौके तक पहुंचा तो लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की।

इस मामले को कवरेज करने के लिए मुझे जाना था। बांदा से महोबा रोड पर अलीपुरा गांव उतरकर लगभग 5 किलोमीटर का रास्ता पैदल चलकर मैं गांव पहुंच गई। सुबह लगभग 8 बजे का टाइम था। सब लोग अपने अपने काम में विजी थे। महिलाएं कोई झाड़ू लगा रही थीं तो कोई बर्तन मांज रही थी। एक सरकारी हैंडपंप में भीड़ लगी थी पानी भरने की, कुछ महिलाएं और लड़कियां एक के ऊपर एक घड़ा रखे दूर से आते दिख रही थीं। कुछ पुरुष अपने मवेशियों को चारा पानी दे रहे थे तो कुछ एक तरफ बैठे बांध में जमीन जाने की बात कर रहे थे।

मुझे लगा कि इस बात को कहां से शुरू करुं क्योकि पूरे गांव में दुख का माहौल था। लोगों के चुप होने का कारण जानने की आड़ में मौका पाकर मैंने जमीन जाने की भी बात छेड़ दी कि वह अपनी जमीन बचाने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं। लोगों को इस बात से गुस्सा जैसे आ गई बोले कि एक ने तो जान गवां ही दी है क्या प्रशासन यही चाहता है, तब भी तो कोई सुनवाई नही हो रही। चूंकि वहां पर मीडिया बहुत कवरेज कर चुकी थी और मैं भी पहुंच गई तो लोगों ने मीडिया के ऊपर कई सवाल खड़े किए। आखिकार क्यों मज़ा ले रही है मीडिया और सजा दे रहा है प्रशासन। यही प्रशासन और मीडिया के लोग भी किसानों के ही वंशज हैं या फिर होंगे तो फिर उनको समझ में क्यों नहीं आती ऐसी गंभीर समस्याएं। आखिरकार किसी तरह से मैं गांव में कवरेज कर ही ली।

जब इस समस्या को लेकर मैं विभाग गई तो जवाबदेही से बचने के लिए विभागीय लोगों ने मुझे सिंचाई विभाग, लघु डाल विभाग तो नहर विभाग फिराते रहे। इसके लिए मुझे बांदा से तीन बार महोबा जाना पड़ा। ये बांध तो एकमात्र उदाहरण है। बुंदेलखंड के न जाने कितने गांव हैं जिनके नाम मैं गिना सकती हूं कि उनकी उपजाऊ जमीन बांध बनाने, नहर बनाने, कोई सरकारी सार्वजनिक इमारत बनवाने के नाम पर औने पौने दाम में ले ली गई। उससे किसानों को सिंचाई के लिए पानी भी तो नहीं दिया जाता। किस काम के बांध और नहर, जो किसान अनाज पैदा करने के लिए पहले से परेशान था उसको और परेशानी में डाल दिया। आखिरकार प्रशासन किसानों से चाहती क्या है। उनके अनाज मंडियों में खरीदकर सालों साल तक भुगतान नहीं कर पाती। उनको बीज और खाद के दाम हर साल बढ़ाती जाती है। कब तक परेशान रहेगा किसान, कभी इनके भी दिन बहुरेंगे। इन्हीं सवालों और विचारों के साथ अगले हफ्ते फिर आउंगी एक नए मुद्दे के साथ जो मेरी डायरी के पन्ने में कैद है।