खबर लहरिया Blog किसान हल-बैल की परंपरागत खेती को क्यों मानते हैं सबसे बेहतर?

किसान हल-बैल की परंपरागत खेती को क्यों मानते हैं सबसे बेहतर?

गांव खदरा के किसान बाबूलाल कहते हैं, हल-बैल से खेती करने की बात ही कुछ और होती है। भले ही मेहनत लगती है पर इससे ज़मीन अधिक उपजाऊ होती है।

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जिस प्रकार से खेती देश की रीढ़ की हड्डी है ठीक उसी प्रकार खेती की पारंपरिक क्रिया उसकी जड़ है। अगर हम पुरानी परंपरागत खेती के बारे में बात करें तो पहले किसान हल-बैल से ही खेतों की जोताई करते थे। आज इसकी जगह ट्रैक्टर ने ले ली है जोकि किसानों के लिए एक प्रकार से सहूलियत भी है तो किसी के लिए सुविधा से बहुत दूर। वहीं कई किसान आज भी खेती की पारंपरिक प्रक्रिया को ही सबसे बेहतर बताते हैं।

आज हम इस आर्टिकल में हल-बैल से खेतों की जोताई की पारंपरिक प्रक्रिया व इसका इस्तेमाल कर रहे किसानों के बारे में बात करेंगे कि वह खेती की पारंपरिक प्रक्रिया को सही क्यों मानते हैं?

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हल-बैल की परंपरागत खेती को लेकर किसानों की राय

खबर लहरिया की प्रकाशित वीडियो रिपोर्ट में पन्ना जिले के अजयगढ़ ब्लॉक, गांव खदरा के किसान बाबूलाल कहते हैं, हल-बैल से खेती करने की बात ही कुछ और होती है। भले ही मेहनत लगती है पर इससे ज़मीन अधिक उपजाऊ होती है। उन्होंने बताया कि एक खेत को तैयार करने में तीन दिन लग जाते हैं। महंगाई की वजह से काफ़ी लोग आज भी बैल से जुताई करते हैं।

बाँदा जिले के नरैनी क्षेत्र के शहबाजपुर गांव के किसान प्यारेलाल बताते हैं, अगर हल-बैल से खेती की जाए तो खेत में बीज सही रहता है। फसल भी अच्छी रहती है। किसानों ने कहा कि टेक्नोलॉजी उपकरणों के साथ खेती करने से जो उपजाऊ ज़मीन थी, वह भी नष्ट होती चली जा रही है। इसकी वजह से फसलें भी अब दवाइयों के ऊपर निर्भर हो गयी हैं।

मुगौरा गांव के किसान मोहन कहते हैं कि हल-बैल से खेती करने में न तो पेट्रोल-डीजल की ज़रुरत पड़ती थी और न ही इलेक्ट्रिक बैटरी की।

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महंगाई में परंपरागत खेती असरदार

बांदा जिले के पैलानी तहसील के अन्तर्गत आने वाले शंकर पुरवा के किसान चुन्नू ने खबर लहरिया को बताया कि हल-बैल की जगह ट्रैक्टर से जोताई होने लगी है। खेत और बैल का रिश्ता टूटने लगा है। यह बदलाव देश और प्रदेश में भी टेक्नोलॉजी क्रान्ति के साथ आया है, लेकिन यहां बहुत तेज़ी से आया।

 

बांदा जिले की खेती को टेक्नोलॉजी क्रांति का सबसे अच्छा मॉडल माना जाता था। शुरुआत में यहां पैदावार भी बढ़ी और खुशहाली भी आई,लेकिन इसके साथ कई समस्याएं भी देखने को मिली। गेहूं,ज्वार,बाजरा,सवां,कोदा और सरसों की पैदावार रुक सी गई है। खाद, बीज, कीटनाशक दवाई, डीजल, बिजली, मशीनों आदि की लगातार बढ़ती कीमतों ने किसानों को परेशानी में डाल रखा है।

जैसे अब इस साल ही तिल और मूंग की फसल खराब होने से किसानों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। महंगाई के चलते अब किसानों के पास दोबारा से जोताई या बुवाई के लिए पैसे नहीं हैं। ऐसे में जो किसान बैलों के सहारे पुरानी परंपरा को जीवित रख रहे हैं, वह तो किसी तरह खेती कर ही लेंगे।

हल-बैल से खेती करने के फायदे

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– मिट्टी की पपड़ी और अधिक गहराई तक जुताई की जा सकती है
– मिट्टी कंपैक्ट (ठोस) नहीं होती है। आधुनिक खेती में बड़ी-बड़ी मशीन ट्रैक्टर का चलन है जिससे कि मिट्टी कंपैक्ट हो जाती है और पौधे की जड़ नीचे तक नहीं जा पाती हैं। वहीं बैल से जुताई करने में ऐसा नहीं होता।
– डीजल-पेट्रोल में पैसे नहीं खर्च होते

हालांकि, आधुनिक युग में परंपरागत खेती को जीवित रखना काफी मुश्किल है क्योंकि आधुनिकता ने कहीं न कहीं किसानों के कामों को आसान कर दिया है। वहीं कुछ किसानों का यह भी मानना है कि परंपरागत खेती ही सबसे फायदेमंद है क्योंकि इससे न तो बीज को कोई नुकसान पहुंचता और न ही ज़मीन की उर्वकता में कमी आती है।

इसके साथ ही महंगाई की वजह से बढ़े डीज़ल आदि के दाम भी किसानों को नहीं सताते। महंगाई एक ऐसा पहलु है, जो आज किसानों को पारंपरागत खेती से जोड़े हुए हैं क्योंकि हर किसान आधुनिक तकनीक का न तो लाभ ले पाता है और न ही उतना पैसा लगा पाता है। वहीं पारंपरिक खेती में इन सब चीज़ो की चिंता नहीं होती है।

इस खबर की रिपोर्टिंग गीता देवी द्वारा की गयी है। 

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