खबर लहरिया राजनीति उत्तर प्रदेश में मुसलमान विधायकों की संख्या में कमी, इस बार केवल 24 मुस्लिम विधायक

उत्तर प्रदेश में मुसलमान विधायकों की संख्या में कमी, इस बार केवल 24 मुस्लिम विधायक

साभार:इंडियास्पेंड

वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के साथ भारत के सर्वाधिक आबादी वाले इस राज्य में विधान सभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व मात्र 5.9% रह गया है। जबकि वर्ष 2012 में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 17.1% था।
ये आंकड़ा लगभग 25 साल पहले की कहानी की याद दिलाते हैं। वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद दंगों के बाद जब बीजेपी हिन्दुत्व के मुद्दे के साथ विधानसभा में 221 सीटों के साथ पहुंची, मुस्लिम प्रतिनिधित्व का आंकड़ा अचानक घटकर 4.1% के आसपास सिमट आया था। वहीं इमरजेंसी के बाद विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व काफी तेजी से बढ़ा था। आजादी के बाद मुस्लिम प्रतिनिधित्व 1951 और 1957 में 9 से 10 प्रतिशत के करीब रहा। 1977 से 1985 तक यूपी में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 11.53 प्रतिशत तक रहा।
‘भारतीय चुनाव आयोग’ और ‘द हिंदू सेंटर फॉर पॉलिटिक्स एंड पब्लिक पॉलिसी’ के आंकड़ों पर इंडियास्पेंड द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मुस्लमानों की संख्या 3.84 करोड़ है। यह आंकड़े राज्य के 20 करोड़ लोगों का 19.2% है। यह संख्या किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे ज्यादा और अनुपात के अनुसार असम और केरल के बाद तीसरे स्थान पर है।
2017 के विधान सभा चुनाव में जिन 24 मुस्लिम विधायकों ने जीत हासिल की है, उनमें से आधे से अधिक ने उसी निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीता है, जिससे वे पिछली बार जीते थे। जीते गए मुस्लिम विधायकों में छठा हिस्से में वे विधायक आते हैं, जो पिछले 15 सालों से अपने निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। 9.9% नए विधायक हैं, लेकिन इनमें से एक भी महिलाएं नहीं हैं।
वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में, स्वतंत्रता के बाद पहली बार मुसलमानों ने अपनी आबादी के अनुपात के अनुसार, राजनीतिक प्रतिनिधित्व (17.2%) प्राप्त किया था। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार उनकी आबादी 19.2% थी।
पांच साल बाद, मुस्लिम प्रतिनिधित्व आबादी के अनुपात में जो होनी चाहिए, उसकी एक तिहाई है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने बिना किसी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिए व्यापक जीत दर्ज की है। देखा जाए तो, सीटों के मामले में जबकि मुस्लिम प्रतिनिधित्व में लगभग 65% गिरावट हुई है।
आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश से चुने गए 80 सांसदों में से एक भी मुस्लिम नहीं है। वर्ष 2014 की बिजनेस स्टैंडर्ड की यह रिपोर्ट कहती है, “कई लोगों का मानना ​​है कि यह हिंदू-मुस्लिम दंगों के कारण हुआ है, विशेषकर मुजफ्फरनगर हिंसा, जो दोनों समुदायों को ध्रुवीकृत करती है। ”
वर्ष 2010 और 2015 के बीच, उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा में पांच गुना वृद्धि देखी गई, और गांव, कस्बों और शहरों में ध्रुवीकरण स्पष्ट हो गया है।
वर्ष 2017 के विधानसभा परिणाम 1991 के चुनावों की याद दिलाते हैं, जब भाजपा के लिए समर्थन तीन गुना बढ़ा था। और भाजपा के पास वर्ष 1989 में जहां विधान सभा की 57 सीटें थीं, वहीं अब यह बढ़कर 221 सीटों पर पहुंच गई थी और मुस्लिम प्रतिनिधित्व में आधे से अधिक की गिरावट हुई थी, 8.9% से 4.1 % तक। ये आंकड़े औपनिवेशिक भारत में सबसे कम हैं।
वर्नियर की रिपोर्ट के अनुसार, पूरे राज्य में असमान भौगोलिक वितरण, अनुसूचित-जाति के उम्मीदवारों के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के आरक्षण के कारण सीटों में नुकसान हुआ और एक ही निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने वाले कई मुस्लिम उम्मीदवारों के कारण हुआ “वोट-विभाजन” भी एक कारण बड़ा कारण बना।