खबर लहरिया Blog ईंट-भट्ठों में शुरू हो रहा ज़िग-ज़ैग तकनीक का इस्तेमाल

ईंट-भट्ठों में शुरू हो रहा ज़िग-ज़ैग तकनीक का इस्तेमाल

बनारस के हरहुआ के रहने वाले ओम प्रकाश बदलानी के लिए ईंट-भट्ठा हमेशा से उनके जीवन का अहम हिस्सा रहा है। प्रयाग किलंस लिमिटेड के प्रमुख के रूप में, जो एक पारिवारिक व्यवसाय है, उन्होंने अपने भट्ठे में होने वाले संचालनों को बढ़ाया व इसके साथ-साथ ईंट के निर्यात हेतु अपने बेटे को भी इस कार्य में शामिल किया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है ईंटो के निर्माण के लिए ज़िग-ज़ैग तकनीक का इस्तेमाल करना।  

                                                                                             ज़िग-ज़ैग तकनीक से काम करते भट्ठा मज़दूर

उन्होंने कहा,“फिक्स्ड चिमनी ( फिक्स्ड चिमनी बुल्स ट्रेंच किल्न) के विपरीत ज़िग-ज़ैग तकनीक ने सीधे तौर पर श्रमिकों, उनके परिवारों, हमारे उत्पादन और पर्यावरण को लाभ पहुंचाया है।”

बदलानी, ईंट-भट्ठा मालिकों के एक बड़े समूह में से एक है जो धीरे-धीरे ज़िग-ज़ैग तकनीक को अपना रहे हैं। यह तकनीक दुनिया भर में लोकप्रियता बटोर रही है जिसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश व नेपाल जैसे पड़ोसी देश भी शामिल हैं। जहां एक तरफ व्यवसायों द्वारा इसे लागत-कुशल और काम कम करने वाले उपाय के रूप में देखा जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ़ कानूनी निकायों द्वारा इसे ईंट-भट्ठे में होने वाले प्रदूषण से लड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में भी देखा जा रहा है। 

                                        ओम प्रकाश बदलानी, ईंट-भट्ठा मालिकों के एक बड़े समूह में से एक है जो धीरे-धीरे ज़िग-ज़ैग तकनीक को अपना रहे हैं।

केंद्र और सुप्रीम कोर्ट द्वारा कई अवसरों पर पर्यावरण और श्रमिकों के अनुकूल चीज़ों को ध्यान में रखते हुए बात रखी गयी है। पर्यावरण (संरक्षण) संशोधन नियम 2022 के अंतर्गत नए ईंट-भट्ठों को स्थापित करने के लिए ज़िग-जैग तकनीक के साथ सिर्फ तीन तकनीकों का ही इस्तेमाल किया जा सकता है। यह भी बता दें कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली-एनसीआर में ज़िग-ज़ैग तकनीक के इस्तेमाल को अनिवार्य किया गया है। यहां तक कि हरियाणा जैसे राज्यों ने ईंट भट्ठों के उत्सर्जन कम करने वाली तकनीक अपनाने का भी आग्रह किया है।

भारत में, पारंपरिक ईंट-भट्ठों का 70% ईंट उत्पादन होता है। इसे ‘फिक्स्ड चिमनी बुल्स ट्रेंच किल्न’ (एफसीबीटीके) भी कहा जाता है और भारत के ईंट-भट्ठा उद्योग में ज़्यादातर इसी  का इस्तेमाल होता है । इसके साथ ही, वे भारत की वर्तमान ईंट-भट्ठा प्रदूषण की समस्या को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और नदी प्रदूषण के स्रोत के रूप में भी परिभाषित करते हैं।

यह तकनीक इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इससे एक बार में कई सारी ईंटें बनाई जा सकती हैं, जो घर व अन्य चीज़ें बनाने में मदद करती हैं पर यह काफी धुआं व वायु प्रदूषण भी पैदा करती हैं जो पर्यावरण व लोगों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस  वजह  से लोग लगातार ईंट निर्माण को अधिक कुशल और कम हानिकारक बनाने हेतु नए-नए रास्तों की तलाश कर रहे हैं। 

ज़िग-ज़ैग तकनीक ईंटों की उत्पादन प्रक्रिया को आसान और पर्यावरण के अनुकूल बनाती है।

एक लंबे व संकीर्ण ट्रेंच के बजाय, ज़िग-ज़ैग तकनीक एक विशेष भट्ठे का उपयोग करती है जो देखने में सीढ़ियों  की तरह दिखाई देता है। 

एफसीबीटीके की तरह, लोग ज़मीन से मिट्टी इकठ्ठा करते हैं और उसे ईंटों का आकार देते हैं। इसके बाद वह ईंटो को ज़िग-ज़ैग वाले भट्ठे के अंदर रखते  हैं। भट्ठे को सीढ़ीनुमा या ज़िग-ज़ैग के पैटर्न में बनाया जाता है जहां ईंटें रखी जाती हैं। 

भट्ठे का अनोखा डिज़ाइन आग से ज़्यादा से ज़्यादा गर्मी बनाने में मदद करता है ताकि कम नुकसान के साथ लोग उसका कुशलतापूर्वक इस्तेमाल कर सकें। 

यह तकनीक इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह भट्ठे को चलाने के लिए कम लकड़ी और ईंधन का उपयोग करते हुए ईंटों को अधिक कुशलतापूर्वक बना सकती है। इससे हमें संसाधनों को बचाने और पर्यावरण की रक्षा करने में मदद मिल सकती है।

बदलानी ने कहा,”ज़िग-ज़ैग तकनीक को अपनाने के बाद, हमने काले धुएं में 75% से 80% की कमी देखी है। असल में, मैंने 2014 में इस तकनीक के पेटेंट के लिए आवेदन किया था और वह मुझे मिल भी गया।”

ये भी देखें – बुंदेलखंड : ईंट-भट्टे में काम करने वाले मज़दूरों की मुश्किलें और परिस्थितियों की झलक

बदलानी की ज़िग-ज़ैग तकनीक की यात्रा

1998 में ऑस्ट्रेलिया के मिस्टर हैलवा  के साथ बातचीत में बदलानी ‘ज़िग-ज़ैग तकनीक’ की क्षमता से काफी प्रभावित हुए। वह अपने ईंट-भट्ठों को इस तकनीक के अनुकूल बनाने के इच्छुक थे लेकिन उसमें एक बाधा थी: खर्चे।

बदलानी पुरानी बातचीत को याद करते हुए कहते हैं, “मिस्टर हैलवा  ने सिर्फ तकनीक देने के लिए 5 करोड़ मांगे थे। यह हमारे बजट से बिल्कुल बाहर था। हमने देखा था कि यह कैसे काम करता है और इससे प्रभावित भी थे, लेकिन हमारे पास इस पर खर्च करने के लिए ज़्यादा पैसा नहीं थे।”

साल 2000 में बदलानी ने कम लागत वाले ज़िग-ज़ैग ड्राफ्ट-प्रेरित पंखे में निवेश करके प्रौद्योगिकी का उपयोग करना शुरू किया। चार साल बाद उन्होंने ज़िग-ज़ैग की प्राकृतिक ड्राफ्ट टेक्नोलॉजी को अपना लिया। धीरे-धीरे हर दो से तीन सालों में वह अपने व्यवसाय में टेक्नोलॉजी की सीमाओं का विकास करते रहे। । 

साल 2008 तक उनके सभी ईंट-भट्ठे ज़िग-ज़ैग तकनीक पर चल रहे थे। 2012 तक उन्होंने इस तकनीक को और अधिक ईंट भट्ठों को देना शुरू कर दिया। बदलानी ने दावा किया कि बनारस में कुल 90 प्रतिशत ईंट भट्टे जिग जैग में रूपांतरित हो चुके हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा, “जागरूक ईंट भट्ठा मालिकों ने इसे अपना लिया है।” 

इस तकनीक को दिखाने के उद्देश्य से प्रयाग लिमिटेड ने इस तकनीक को यूपी के लगभग हर जिले में एक से दो ईंट भट्टों में  बाँटा । कंपनी ने इस तकनीक को बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, त्रिपुरा, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में लगभग 20 से 30 ईंट-भट्ठों में वितरित किया। 

ईंट भट्ठों को इस तकनीक में उपयोगिता नज़र आई और उन्होंने इसे खुद ही विकसित करना शुरू कर दिया और 2014 में बदलानी ने इसका पेटेंट करवा लिया। 

तकनीक में निवेश का फायदा 

एक ईंट-भट्ठा व्यवसाय के मालिक के रूप में बदलानी, इसमें अनेक लाभ देखते हैं। अगर उनकी खुद की बात की जाए तो ज़िग-ज़ैग तकनीक के उपयोग से उन्होंने खुद के लिए 30 प्रतिशत ईंधन का खर्चा बचाया है। 

ज़िग-ज़ैग तकनीक के इस्तेमाल से कोयले की खपत कम हो गई है, और भट्ठा मालिक अब ईंधन के रूप में कोयले और कृषि वेस्ट के मिश्रण का उपयोग कर सकते हैं। यह भी देखा गया कि कई भट्ठों पर, कम ईंधन की खपत की वजह से उन्होंने दो-तीन सीजन के अंदर ही ‘ज़िग-ज़ैग तकनीक’ में परिवर्तन की लागत को भी वसूल कर लिया है। इस प्रकार की  लागत बचत,  जो नई और अधिक कुशल प्रौद्योगिकी में निवेश के आर्थिक लाभों को उजागर करती है, वह बदलानी जैसे व्यापार मालिकों के लिए फ़ायदेमंद है। प्रौद्योगिकी ने व्यावसायिक उत्पादन में भी वृद्धि की है।

“सामान्य फिक्स्ड चिमनी भट्ठों में, उत्पादित 50% से 60% ईंटें श्रेणी एक के अंतर्गत आती हैं। बाकी ईंटें निचली श्रेणी में आती हैं जिन्हें बेचना आसान नहीं होता। हालांकि, ज़िग-ज़ैग तकनीक के साथ, हम श्रेणी एक के तहत 80% से 85% ईंटों का उत्पादन कर सकते हैं, जिससे हमें प्रत्यक्ष तौर पर आर्थिक  लाभ मिलता है,” बदलानी ने कहा। 

उनके हिसाब से,, “काला धुआँ 75% से 80% कम हुआ है, जिसका सीधा लाभ पर्यावरण और श्रमिकों को मिल रहा है।”

चिमनी और ज़िग-ज़ैग भट्ठों से होने वाले उत्सर्जन पर एक अध्ययन से पता चलता है कि ज़िग-ज़ैग भट्ठों ने उत्सर्जन में बेहतर प्रदर्शन किया है। सभी प्रकार के ज़िग-ज़ैग भट्ठों से उत्सर्जन में औसत पीएम (पार्टिकुलेट मैटर) सांद्रता 250 mg/Nm3 से कम थी, जबकि पुराने पुराने तरीक़ों से चलने वाले भट्ठों में उत्सर्जन की औसत निश्चित सीमा से ज़्यादा थी। ईंधन के रूप में कृषि वेस्ट का उपयोग करने वाले एफसीबीटीके से कार्बन मोनोऑक्साइड का उत्सर्जन भी बहुत ज़्यादा था। 

जलवायु और स्वच्छ वायु संघ (सीसीएसी) के अध्ययन में पाया गया कि पाकिस्तान में ईंट-भट्ठों में ज़िग-ज़ैग तकनीक का उपयोग करने से काले कार्बन उत्सर्जन में 60 प्रतिशत की कमी आई है जिससे वायु की गुणवत्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार हुआ है। 

भट्ठों में अब छत भी हो सकती है, जो श्रमिकों को धूप और गर्मी से बचा सके, जो पुरानी व्यवस्थाओं में नहीं थीं। 

बदलानी के मुताबिक काम करने की क्षमता में भी सुधार हुआ है। “जहां पहले कर्मचारी काम पर अपने अंदाज़े से काम करते है,  अब उन्हें तकनीकी रूप से मजबूत बनाने  के लिए प्रशिक्षित किया गया है। प्रशिक्षित कर्मचारी भट्ठे के तापमान को मापते हैं, और प्रबंधक भट्ठे की छत, अंदरूनी हिस्से  और दीवारों के तापमान को नोट करते हैं,” उन्होंने कहा। 

बदलानी, श्रमिकों के लिए प्रशिक्षण प्रक्रिया के बारे में बताते हुए गर्व महसूस करते हैं। वह कहते हैं,“हमने अपने सभी कर्मचारियों को अच्छे से प्रशिक्षित किया है और यहां तक ​​​​कि स्कूल जैसा सेटअप भी किया है। हमने कुछ लोगों को अन्य साइटों पर श्रमिकों को प्रशिक्षित करने के लिए भी प्रशिक्षित किया।”

ईंट-भट्ठा मजदूरों के लिए बेहतर कार्य मॉडल

श्रम-गहन कार्य के लिए, ज़िग-ज़ैग तकनीक अत्यधिक कार्य के जोखिम को कम करती है।

कमलेश कुमार यादव जोकि भट्ठा पर्यवेक्षक हैं, वह उत्तर प्रदेश के 17 ईंट-भट्ठों में मजदूरों की देखभाल करते हैं। उन्होंने अपने काम में पर्याप्त प्रशिक्षण भी हासिल किया है। वे कहते हैं, “मैंने जिन मालिकों के अधीन काम किया, उनसे मुझे प्रशिक्षण मिला। पहले भट्ठों पर काम करना, शरीर पर पड़ने वाले दबाव को देखते हुए मुश्किल था। अब कम मेहनत में भी आमदनी में वृद्धि होती है।”

मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश में एक ईंट भट्ठा मालिक, जिन्होंने ईंट-भट्ठों में ज़िग-ज़ैग तकनीक को अपनाया है, वह भी बदलानी के बात से सहमत है और कहते है कि  ज़िग-ज़ैग तकनीक से पर्यावरण में प्रदूषण कम हुआ है । उन्होंने कहा, “ईंट पकाने की प्रक्रिया के लिए हम किसानों से कृषि वेस्ट खरीदते हैं। इससे उनकी आय में भी इज़ाफ़ा होता है।” उन्होंने ने भट्ठे में एक पंखा होने की भी बात की जो चिमनी से निकलने वाली काली ज़हरीली हवा को रोकने के लिए 24×7 चलता हो। 

बदलानी का ईंट भट्ठा कोई औसतन प्रतिष्ठान नहीं है। उन्होंने श्रमिकों के लिए बुनियादी न्यूनतम – अच्छा आवास – प्रदान करने में निवेश किया है। हालांकि इसे एक आदर्श आवास के रूप में नहीं माना जा सकता है लेकिन यह उद्योग में अन्य भट्ठों द्वारा निर्धारित मानकों को पार करता है। 

यह इस तथ्य का प्रमाण है कि नई तकनीक में बदलाव ने मालिक को श्रमिकों के जीवन को बेहतर बनाने में निवेश करने में सक्षम बनाया है। हालांकि, बदलानी की कहानी हज़ारो में एक है और वे सभी भट्ठा उद्योगों के  प्रतिनिधित्व नहीं बन सकते  हैं।

स्थानीय चुनौतियां 

बदलानी का अधिकतर काम अब मशीनों से होता है। वे लोडिंग और अनलोडिंग के लिए बैटरी/डीजल गाड़ियां भी उपलब्ध कराते हैं। जहाँ ज़िग-ज़ैग तकनीक व्यवसाय के लिए कुशल और लाभदायक दिखाई दे रही है, वहीं श्रमिकों को अधिक प्रशिक्षण और सहायता की ज़रूरत है। उन्हें अपनी नौकरी में एक सामाजिक सुरक्षा की भी ज़रूरत है क्योंकि भट्ठे तकनीकी रूप से विकसित हो रहे हैं, जिसका असर उनकी नौकरियों पर पड़ सकता है। जब हमने एक श्रमिक  भीमा से पूछा कि क्या उन्होंने इस तकनीक की वजह से कोई बदलाव देखा है, तो पास में खड़े एक श्रमिक  ने कहा, “हम ज़्यादा नहीं जानते हैं।”

इस बीच, भीमा बस कैमरे की तरफ देखकर थोड़ा-सा मुस्कुरा देते हैं।

यह कहानी बुनियाद के अंतर्गत आने वाली मीडिया श्रंखला का हिस्सा है, जहाँ हम उत्तर प्रदेश के ईंट भट्ठा उद्योग में, न्यायोचित बदलाव से जुड़े सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण से सम्बंधित कहानियों को लेकर आएंगे।

बुनियाद अभियान का केन्द्रीय विषय भारत के सबसे प्राचीनतम उद्योग “ईंट भट्ठा उद्योग” में नवीनतम, स्वच्छ एवं पर्यावरण अनुकूल तकनीकी को प्रोत्साहित करना है। साथ ही इस उद्योग में परस्पर रूप से सम्मिलित सभी मानव संसाधनों का न्यायपूर्ण कल्याण सुनिश्चित करना है। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य ईंट भट्ठा मालिकों, मजदूरों, संगठनों, तकनीकी विशेषज्ञों एवं सरकार के नीति निर्माताओं के साथ मिल कर उद्योग के लिए ऐसी स्वच्छ तकनीक की तलाश करना है, जो पर्यावरण प्रदूषण को कम कर सके और उद्योग से जुड़े सभी लोगों और समुदायों को लाभ दे सके। इस अभियान में क्लाइमेट एजेंडा, 100% उत्तर प्रदेश नेटवर्क और चम्बल मीडिया जुड़े हैं।

ये भी देखें – पटना : आओ तुम्हें ईंट-भट्ठे पर ले जाएं

लेखिका – निमिषा अग्रवाल, ट्रांसलेशन – शिवानी व संध्या 

 

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Comments:

  1. Samreen says:

    Nice work ???? ????

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