खबर लहरिया औरतें काम पर भारत के भूमि क़ानून महिलाओं को भूमि अधिकार दिला पाने में सक्षम क्यों नहीं हैं?

भारत के भूमि क़ानून महिलाओं को भूमि अधिकार दिला पाने में सक्षम क्यों नहीं हैं?

भारत के भूमि क़ानून सैद्धांतिक रूप से तो महिलाओं को भूमि अधिकार देते हैं लेकिन इन्हें जिस तरह से लागू किया जाता है, वह एक बड़ी बाधा है।

                              दुनिया भर में भारत की महिलाएं सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सबसे अधिक पिछड़ी हुई हैं। | चित्र साभार: एडम कोहन / सीसी बीवाय

सेंटर फ़ॉर सोशल जस्टिस

दुनियाभर के देशों से तुलना करें तो भारत की महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे अधिक पिछड़ी हुई हैं। पिछले दिनों वैश्विक महामारी के कारण उनकी स्थिति पहले से बदतर ही हुई है। इसका पता इस बात से चलता है कि दुनियाभर में महिलाओं की भागीदारी और सुरक्षा को मापने वाले महिला शांति एवं सुरक्षा सूचकांक (वीमेन पीस एंड सेक्युरिटी इंडेक्स) में भारत 2019 के अपने 133वें स्थान से फिसलकर 2021 में 148वें पर पहुंच गया है। भारत में महिलाओं के ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर उपलब्ध मौजूदा आंकड़ा व्यापक नहीं है। लेकिन फिर भी यह एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में 80 फ़ीसद महिलाएं कृषि के क्षेत्र में काम करती हैं लेकिन उनमें से केवल 13 फ़ीसद महिलाओं के पास ही खेती की ज़मीन का मालिकाना हक़ है।

महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में भूमि अधिकारों का महत्व स्पष्ट है, क्योंकि यह महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, आय और आजीविका के अवसर प्रदान करता है। लेकिन भारत में भूमि से संबंधित मौजूदा कानूनी ढांचा महिलाओं के भूमि अधिकारों को कितनी गम्भीरता से लेता है? और वे कौन सी समस्याएं हैं जिन पर बात करने की आवश्यकता है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए सेंटर फ़ॉर सोशल जस्टिस और वर्किंग ग्रुप फ़ॉर वीमेन एंड लैंड ओनरशिप के अनुभवों के आधार पर इस लेख में तीन प्रकार के भूमि क़ानूनों और महिलाओं के भूमि अधिकारों पर पड़ने वाले उसके प्रभाव पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

राज्य में निहित भूमि – वितरण का विनियमन

भूमि अधिग्रहण (उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार) अधिनियम, 2013, (एलएआरआर) और वन अधिकार अधिनियम, 2006, (एफआरए) इस क्षेत्र में दो अभिन्न कानून हैं। एलएआरआर में नागरिकों से किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण शामिल होते हैं वहीं एफआरए के तहत उन्हें भूमि के अधिकार प्रदान किए जाते हैं।

एलएआरआर ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1984 को निरस्त कर दिया जिसका वर्णन एक क्रूर कानून के रूप में किया जाता रहा है क्योंकि इसके तहत विकास के नाम पर किसानों के साथ बहुत अन्याय किया गया। इसकी बजाय एलएआरआर क़ानून ने कई प्रगतिशील प्रावधान पेश किए, जैसे कि प्रभावित होने वाले परिवारों से सहमति प्राप्त करने की अनिवार्यता और मुआवजे की ऊंची दर वगैरह।

एफआरए वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों के हित के लिए बनाया गया क़ानून है। यह जंगल की भूमि तथा संसाधनों पर इन समुदायों के अधिकार की बात करता है जिन पर लोग अपनी आजीविका, आवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों के लिए निर्भर होते हैं। संसाधनों से भरपूर जंगलों का दोहन करने का प्रयास करने वाले उन पक्षों ने ऐतिहासिक रूप से इन समुदायों का शोषण किया है जिन पर ये भरोसा करते थे। इसलिए, एफआरए को इनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

ये क़ानून कई तरह से महिलाओं के भूमि अधिकारों को बढ़ावा देते हैं।

1. भूमि अधिग्रहण (उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार) अधिनियम, 2013:

  • ‘प्रभावित परिवारों’ की अपनी परिभाषा में एलएआरआर उन्हें शामिल करता है जो अधिग्रहित की जा रही भूमि के मालिक हैं और जो अपनी आजीविका के लिए अधिग्रहित की जा रही भूमि पर निर्भर हैं। भूमि पर निर्भर रहने वालों को शामिल कर, यह अधिनियम उन भूमिहीन महिलाओं के बड़े तबके को अपने दायरे में लाता है जो खेती, पशुपालन आदि माध्यमों से अपनी आजीविका चलाती हैं। यह उन्हें पुनर्वास का अधिकार देता है।
  • यह अधिनियम विधवाओं, तलाक़शुदा और परित्यक्त महिलाओं को अलग परिवार होने की मान्यता देता है। इससे महिलाओं के भूमि अधिकार के कारण सशक्त होते हैं क्योंकि यह अधिनियम एकल महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देता है।
  • मुआवजे में मिलने वाली ज़मीन से संबंधित प्रक्रिया भी अपेक्षाकृत अधिक समावेशी है क्योंकि एलएएआर कहता है कि मुआवजे में मिलने वाली ज़मीन को प्रभावित परिवार में पति एवं पत्नी दोनों के ही नाम पर आवंटित किया जा सकता है। इससे मूलरूप से भूमि पर पति का मालिकाना हक़ होने के बावजूद संयुक्त स्वामित्व की सुविधा मिलती है।

2. वन अधिकार अधिनियम, 2006:

  • संयुक्त स्वामित्व के माध्यम से व्यक्तिगत वन अधिकारों को मान्यता देकर यह भूमि पर पुरुषों के हक़ के बराबर महिलाओं के हक़ को मान्यता देता है (यानी कि पति और पत्नी दोनों के नाम से)।
  • अविवाहित, परित्यक्त महिलाओं तथा विधवाओं को व्यक्तिगत रूप से वन अधिकार प्रदान करता है।
  • जनादेश के अनुसार, वन अधिकार समितियों में महिलाओं का एक-तिहाई प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इससे वन अधिकार के दावों को पुख़्ता करने में मदद मिलती है। यह कानून दावों के सत्यापन और अनुमोदन प्रक्रिया में ग्राम सभा को सलाह देता है।

निजी भूमि के हस्तांतरण के नियम

धार्मिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए भारत की मौजूदा प्रणाली के तहत देश के विभिन्न धार्मिक समुदायों पर विभिन्न प्रकार के विरासत कानून लागू होते हैं। भारत की ज्यादातर महिलाएं हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों को नियंत्रित करने वाले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, (एचएसए) के दायरे में आती हैं।

2005 में एचएसए में हुए संशोधन से पहले, पैतृक सम्पत्ति पर केवल बेटों का ही अधिकार था। इस संशोधन में कहा गया है कि विवाहित और अविवाहित बेटियों को भी परिवार की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त, इसने उस प्रावधान को भी ख़ारिज कर दिया जिसके तहत यदि पुरुष उत्तराधिकारी अपने हिस्से के विभाजन का फ़ैसला लेता है तो केवल अनुमति प्राप्त महिला उत्तराधिकारी को ही विभाजन पर अपने हक़ के दावे का अधिकार होता था। इस संसोधन से पहले, कृषि भूमि का हस्तांतरण बहुत ही पुराने और अत्यधिक भेदभाव वाले राज्यवार कार्यकाल क़ानूनों (टेन्योरियल लॉ) द्वारा संचालित होता था। इस संशोधन ने स्पष्ट रूप से कृषि भूमि को एचएसए के दायरे में भी लाया।

ये क़ानून कहां कम पड़ जाते हैं

1. समावेशी लेकिन पर्याप्त नहीं

हालांकि एलएआरआर उन लोगों के अधिकारों को मान्यता देता है जो पुनर्वास के लिए ज़मीन पर ही निर्भर होते हैं लेकिन उनके पास ज़मीन नहीं होती है। इस क़ानून के अनुसार, इलाक़े की ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले 70–80 फ़ीसद परिवारों को अधिग्रहण के लिए सहमति देनी होगी। इस तरह ग़ैर-भूमि वाले परिवारों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर पुनर्वासित तो किया जाता है लेकिन इसके लिए उनसे सहमति नहीं ली जाती है। ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले परिवारों को मुआवजे, पुनर्वास और स्थान-परिवर्तन का अधिकार होता है। लेकिन भूमिहीन परिवार मुआवजे एवं पुनर्वास, दोनों के अधिकार से वंचित रहते हैं। मामूली रक़म, साल भर के अनुदान और आवास इकाई आदि वाले पुनर्वास पैकेज के अंतर्गत भी इन परिवारों को कोई अधिकार नहीं मिलता है।

एलएएआर एकल महिलाओं के अधिकारों को, पात्रता की एक अलग इकाई के रूप में मान्यता देता है। लेकिन जिस तरह से यह अधिनियम ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले और भूमिहीन परिवारों के बीच अंतर करता है, उससे भ्रामक स्थिति उत्पन्न होती है। अधिनियम “किसी भी लिंग के वयस्क, फिर चाहे वह जीवनसाथी या बच्चों या आश्रितों के साथ हो या उनके बगैर,” को एक अलग परिवार मानता है। इसलिए, एक ज़मींदार परिवार में, अविवाहित वयस्क बेटी को एक अलग ग़ैर-ज़मींदार परिवार के रूप में देखा जा सकता है। इसके चलते, उसके माता-पिता को एक ज़मींदार होने के नाते मिलने वाले सभी अधिकारों से वह वंचित हो जाएगी।

2. समुदायों के रहने के तरीके को बदलना

अपने काम के दौरान, हमने देखा है कि बड़े पैमाने पर सामूहिकता पर ज़ोर देने वाले इलाकों में लोगों के वन अधिकारों को मान्यता दिए जाने से एक-एक व्यक्ति को महत्व देने वाला नजरिया बनने लगा है। एक समूह के रूप में काम करने से इन समुदायों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर सामाजिक सुरक्षा मिलती है। इसलिए व्यक्ति केंद्रित सोच का उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सीमाओं के तय होने के कारण, भूमि आधारित प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच और उन पर नियंत्रण भी सवालों के घेरे में आ गया है। इससे परंपरागत रूप से, संसाधनों को साझा करने वाले समुदायों के बीच टकराव और तनाव की स्थिति पैदा हुई है। लॉकडाउन के दौरान, हमने गुजरात के डांग ज़िले के एक गांव का दौरा किया था जिसके पास एक ऐसा जलस्रोत था जिसका इस्तेमाल आसपास के सभी गांव करते थे। चूंकि लॉकडाउन के दौरान स्थानीय लोगों को अपने गांव की सीमाओं को पार नहीं करने का निर्देश दिया गया था। इसलिए, पीढ़ियों से इस पानी का उपयोग कर रहे लोगों से कहा गया कि वे अब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कहीं और जाकर पानी खोजें।

कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियां

हालांकि वर्तमान में जिस तरह से कानून बनाए गए हैं, उसमें महिलाओं के लिए कई तरह की सुरक्षा मौजूद है। लेकिन इन्हें जिस तरह से लागू किया जाता है, उसमें आने वाली कठिनाइयों के कारण महिलाओं को भूमि अधिकारों का लाभ नहीं मिल पाता है।

1. सामाजिक दबाव

एचएसए द्वारा संचालित ग्रामीण महिलाओं से हमारी बातचीत के अनुभव के आधार पर हमने पाया कि अधिकांश महिलाओं को इस अधिनियम के तहत पैतृक सम्पत्ति में बेटियों के अधिकार जैसे क़ानूनों की जानकारी है। लेकिन खुद पर पड़ने वाले सामाजिक दबाव के कारण ये महिलाएं अपने अधिकार नहीं मांग पाती हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं को इस बात का डर लगता है कि अपना हक़ मांगने से परिवार के भीतर वैमनस्य की भावना पैदा हो सकती है। या फिर उनसे यह कहा जा सकता है कि उन्हें अपने हक़ की बात भूल जानी चाहिए क्योंकि उनकी शादी के लिए दहेज दिया गया था। महिला समूहों की बड़ी उपस्थिति वाले क्षेत्रों में महिलाओं के लिए परिस्थितियां अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल हैं क्योंकि इन समूहों ने प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने के प्रयास किए हैं। लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम है और वे उनका एक हिस्सा भर हैं जिन्हें बेहतर संरचनात्मक समर्थन की आवश्यकता है।

2. विचाराधीन मुद्दे

एलएआरआर में कहा गया है कि मुआवजे की ज़मीन पति और पत्नी के नाम पर संयुक्त रूप से आवंटित किया जा सकता है। हालांकि, प्रावधान की भाषा में “सकता है” का प्रयोग विचार के लिए पर्याप्त जगह छोड़ता है और यह स्पष्ट नहीं करता है कि भूमि के दस्तावेजों में पत्नी का नाम दर्ज किया जाएगा। नतीजतन, ऐसा संभव है कि उस भूमि को पूरी तरह से केवल पति के नाम पर ही आवंटित किया जाए।

भारत की अनुसूचित जनजातियां, अपने जनजातीय प्रथा कानूनों को मानती हैं। ये क़ानून इन जनजातियों की महिलाओं के जीवन की वास्तविकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। उदाहरण के लिए, हमने दक्षिण गुजरात में जिस आदिवासी समुदाय के साथ काम किया था, उसमें दो विवाह करने की अनुमति है। जनजातीय प्रथा का विरासत क़ानून है, पति की सम्पत्ति में उसकी दूसरी पत्नी को भी बराबर के अधिकार देता है। दूसरी पत्नी को दिए जाने वाले अधिकार को इस बहुविवाह प्रथा के आधार पर मान्यता प्राप्त है जिस पर किसी और स्थिति में विचार भी नहीं किया जाएगा। हालांकि, हमारे अनुभव इस ओर संकेत करते हैं कि कभी-कभी इन समुदायों की प्रथाओं के प्रति संवेदनशील और ज़मीन स्तर पर काम करने वाले अधिकारी ही, अक्सर इन पर एचएसए लागू करने का प्रयास करते हैं। नतीजतन, वे दूसरी पत्नी का नाम दर्ज करने से मना कर देते हैं और उसे उसके अधिकारों से वंचित कर देते हैं।

3. राज्यविशिष्ट कृषि कानून बनाम एचएसए संशोधन

एचएसए संशोधन ने कृषि भूमि को अपने दायरे में लाने का काम किया है। लेकिन राज्य-विशिष्ट कृषि कानूनों और इसके बीच तनाव की स्थिति है क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची संकेत करती है कि कृषि पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के पास ही है। हालांकि केंद्र उत्तराधिकार पर कानून बना सकता है लेकिन अब भी कृषि भूमि के उत्तराधिकार से जुड़े कानून को लेकर विवाद चल रहा है।

परिणामस्वरूप, कृषि भूमि के उत्तराधिकार से संबंधित मामलों पर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय परस्पर विरोधी रहे हैं। जहां एक ओर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि एचएसए को राज्य के कानून द्वारा हटा दिया जाएगा, वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय और हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का मानना है कि राज्य के कानून को एचएसए द्वारा रद्द कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि संशोधन के मुताबिक कृषि भूमि एचएसए के अंतर्गत आएगी, लेकिन कोर्ट ने अधिनियम और अल्पकालिक कानूनों के बीच संवैधानिक संघर्ष पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की। इस स्थिति में इस मुद्दे की क़ानूनी स्थिति अब भी अनिश्चित है और कृषि संपत्ति अभी भी महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण पुरातन काश्तकारी कानूनों के अनुसार हस्तांतरित की जा रही है। इस प्रकार राज्य-विशिष्ट कानूनों पर एचएसए की शक्ति की पहचान एक विधायी और न्यायिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

कमियों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?

1. प्रशिक्षण और संवेदीकरण

महिलाओं के भूमि अधिकार, अक्सर भूमि कानूनों को लागू करने वाले निकायों की प्राथमिकता सूची में शामिल नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय और राज्य संस्थानों के क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का मार्गदर्शन करने वाली ग्रामीण विकास और पंचायती राज के लिए 2015 की राष्ट्रीय प्रशिक्षण नीति में महिलाओं के भूमि अधिकारों को शामिल नहीं किया गया है। ये विभाग ग्राम-स्तर के सरकारी अधिकारियों और भूमि राजस्व मामलों के प्रभारी के प्रशिक्षण के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसी स्थिति में उनके प्रशिक्षण कार्यक्रमों में महिलाओं के भूमि अधिकारों को शामिल नहीं करने से यह बात तय होगी कि महिलाएं अपना अधिकार पाने में सक्षम होगीं या नहीं।

अधिकारियों को महिलाओं के भूमि अधिकारों के उद्देश्य के प्रति अधिक संवेदनशील होने की भी आवश्यकता है। न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने वाली संस्था, राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी की समीक्षा से पता चलता है कि हालांकि इसने 2018 से 2021 तक सात लिंग संवेदीकरण प्रशिक्षण सत्र और 130 कार्यशालाएं आयोजित की हैं। लेकिन इनमें से किसी में भी महिलाओं के भूमि अधिकारों से जुड़े विषयों को शामिल नहीं किया गया है।1

कानूनी सेवा प्राधिकरण (एलएसए) पिछड़े तबकों को कानूनी सहायता और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। लेकिन उनके प्रशिक्षण निर्देशपुस्तिका (मैनुअल) में संपत्ति के अधिकारों वाले हिस्से में महिलाओं के भूमि अधिकारों का ज़िक्र भर शामिल किया गया है। इस प्रकार, इस मुद्दे पर उन लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि महिलाओं को उनका अधिकार मिले।

2. आंकड़े एवं लक्षित कार्यक्रम

भारत में महिलाओं की भूमिहीनता की सटीक सीमा निर्धारित करने के लिए महिलाओं के भूमि स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा की कमी इस मार्ग में आने वाली एक महत्वपूर्ण बाधा है। हालांकि नीति आयोग भूमि रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण पर काम कर रहा है, लेकिन भूमि के स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग डेटा एकत्र करने का कोई उल्लेख नहीं है। महिलाओं की भूमिहीनता की असल स्थिति का पता लगाना महिलाओं की भूमि के स्वामित्व की समस्या को दूर करने का पहला कदम है। इस क्रम में सटीक डेटा एकत्र करने के प्रयासों की कमी उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता की कमी को दर्शाती है।

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा विकसित राष्ट्रीय संकेतक ढांचे में भूमि स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा को शामिल करने से राज्यों को इस अंतर को दूर करने की दिशा में काम करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। विशेष रूप से, ऐसा चाहने वाले जिलों के लिए लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा के प्रावधान के साथ तय उद्देश्य और निरंतर निगरानी से, देश के कुछ सबसे अविकसित क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिहीनता के मुद्दे को लेकर जाएगा।

गुजरात में, हम भूमि अभिलेखों को अपडेट करने वाले एक सरकारी कार्यक्रम के साथ जुड़े और अपडेट किए जा रहे सभी भूमि दस्तावेज़ों में महिलाओं के नाम शामिल करने की वकालत की। यदि एलएसए महिलाओं के भूमि अधिकारों को समान रूप से प्राथमिकता देते हैं और इस काम में महत्वपूर्ण संसाधनों को पूरी तरह से लगाते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे अधिक प्रभावी ढंग से सहयोग करने में सक्षम होंगे।

अनाहिता सूर्या, आदित्य गुजराती, गाथा नंबूदरी, तन्वी सिंह और नूपुर सिन्हा ने इस आलेख को तैयार करने में अपना योगदान दिया है। साथ ही यह लेख वुमैनिटी फाउंडेशन द्वारा समर्थित है व पहली बार आइडीआर हिंदी पर प्रकाशित किया गया है।

 

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