ओडिशा के बालासोर में हुए भीषण रेल हादसे ने लगभग 42 साल पुराने बिहार में हुए रेल हादसे को ताज़ा कर दिया है। हर रोज चैनलों और अखबारों में यही खबरें पढ़ने को मिल रही है,जिससे मेरे रोगंटे खड़े हो रहे है, तो हादसे में मौजूद रहे हैं,उन लोगों के परिवारों का क्या हाल होगा। जिनके परिवारों के 278 लोग मरे हैं और लगभग 1,100 लोग घायल हुए हैं। क्या सरकार और रेल मंत्रालय उन परिवारों के लोगों की हुई मौत तो की भरपाई कर पाएगा और अपनी गलती मानेगा।
बुंदेलखंड में भी ट्रेनों की बुरी स्थिति है। हर रोज हज़ारों की संख्या में लोग यहां से पलायन करते हैं, बाहर देशों में कमाने के लिए जाते हैं। ट्रेनें खचाखच भरी होती हैं, यहां तक कि बैठने की जगह नहीं होती। लैट्रिन के डिब्बों में भी लोग घुसे होते हैं बोरों की तरह। पटले में बैठे होते हैं जहां पर सबसे ज़्यादा खतरा होता है क्योंकि जब ट्रेन रफ्तार से चलती है तो वह पूरा पटला खुलता है और जुड़ता है पर लोग पेट के लिए बैठकर जाते हैं। महिलाएं जो जंगल से लकड़ी काटकर लाती है वह भी इस तरह से बैठकर जाती हैं।
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अगर मैं बात करूं कोविड-19 कि जब सारे साधन बंद थे, ट्रेनें भी बंद चल रही थी लेकिन उस समय भी रेलवे विभाग की कहीं ना कहीं लापरवाही थी तभी तो रेलवे पटरी पर सो रहे मजदूर जो पैदल बाहर प्रदेशों से चल-चल के आ रहे थे और थक हार कर रेलवे ट्रैक पर ही सो गए क्योंकि उन्हें तो यह था कि ट्रेन बंद है लेकिन इतनी बुरी तरह मालगाड़ी से उनकी दर्दनाक मौत हुई कि वह बेचारे वहीं के वहीं सोते रह गए, यह भी तो एक लापरवाही ही है ना।
मैं अपने ही जिले का उदाहरण देती हूं, हाल ही में कानपुर से चित्रकूट आने वाली इंटरसिटी एक्सप्रेस से 28 मई को हम कानपुर से बांदा वापस आ रहे थे जिस कोच में हम बैठे थे उसी कोच में अचानक से आग लग गई, ड्राइवर गाड़ी रोकता है थोड़ा देखता है और फिर ट्रेन चालू हुई। ट्रेन किसी तरह से बांदा आई और वहां पर बनाई गई। जब डिब्बे से धुआं उठ रहा था तो सवारियां बाहर निकल कर बैठ गई, लोग डरने लगे कि क्या हुआ फिलहाल छोटी बात थी क्योंकि धुआं उठा, आग जलने लगी तो लोगों ने तुरंत देखा तो फॉल्ट था लेकिन ऐसी छोटी-छोटी लापरवाहियों से ही बड़ी घटनाएं होती हैं।
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