खबर लहरिया Blog महिला व महिला हिंसा के नाम पर बनते तथाकथित ब्रांड्स : चुनाव, राजनीति और सत्ता

महिला व महिला हिंसा के नाम पर बनते तथाकथित ब्रांड्स : चुनाव, राजनीति और सत्ता

यूपी में होने वाले नगर निकाय चुनाव में कई पार्टियों के प्रत्याशियों द्वारा तथाकथित ब्रांड नेम के तौर पर महिला हिंसा व उनकी सुरक्षा को तथाकथित ब्रांड बनाकर पेश किया गया है जिसके ज़रिये वे वोट बटोरने की तैयारी में है।

                                                                                                                       Graphics By – Niv

महिलाओं के नाम पर होती राजनीति, महिला शब्द, महिलाओं से जुड़े अपराधों पर बनते तथाकथित ब्रांड्स (so-called brands) सत्ता के खेल की एक अहम परम्परा बन चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरों तक इस परंपरा के इस्तेमाल को देखा जा सकता है।

इस समय यूपी में नगर निकाय चुनाव होने को है और कुछ समय बाद साल 2024 में लोकसभा का भी चुनाव आने वाला है। इस चुनाव में भी कई पार्टियों के प्रत्याशियों द्वारा तथाकथित ब्रांड नेम के तौर पर महिला हिंसा व उनकी सुरक्षा को तथाकथित ब्रांड बनाकर पेश किया गया है जिसके ज़रिये वे वोट बटोरने की तैयारी में है। बता दें, चुनाव में हमेशा आपको विकास के मुद्दे के साथ-साथ “महिला” शब्द ज़रूर से मिलेगा जिसे सत्ताधारियों ने ताकत प्राप्त करने हेतु मुद्दा बनाकर छोड़ दिया है और फिर बड़े ही रौब से महिलाओं के सम्मान दिखावा कर पेपर पर सजा दिया जाता है।

महिला, महिला हिंसा, महिलाओं के साथ होते बलात्कार के मामले, महिला सुरक्षा, महिलाओं का उत्थान, सम्मान, समानता, अधिकार इत्यादि शब्द चाहें शहर हो या ग्रामीण क्षेत्र, गंभीरता से ज़्यादा तथाकथित ब्रांड्स बनकर रह गए हैं या ये कहें कि बना दिए गए हैं। इन तथाकथित ब्रांड्स का इस्तेमाल सत्ता पाने की लालसा के लिए हर किसी के द्वारा किया जाता है या ये कहें कि महिलाओं के नाम का इस्तेमाल कर, महिला हिंसा शब्द का इस्तेमाल कर ताकत बटोरना या जीतना तो एक परंपरा सी बन गयी है जिसका इस्तेमाल करने से कोई नहीं चूकता।

जब-जब महिलाओं से जुड़े अपराधों को तथाकथित ब्रांड्स बनाकर यह कहा जाता है कि महिलाओं को हक़ व सम्मान मिलेगा, महिला को सुरक्षा मिलेगी, महिलाओं के खिलाफ होती हिंसाओं को लेकर कड़े नियम बनाये जाएंगे तब-तब ये बातें हास्प्रद से ज़्यादा कुछ और नहीं लगती। जब-जब ये दोगले वादे सत्ता की ताकत पाने वाले लोग करते हैं तब-तब ऐसा महसूस होता है कि ये महिलाओं के हक़ का वादा करने वाले लोग ही महिलाओं के स्वाभिमान को कुचल रहे हैं, उन्हें अपमानित कर रहें हैं। उनका उपयोग किया जा रहा है। क्या तथाकथित ब्रांड्स और सत्ताधारी व्यक्तियों के दोगले वादे से ऊपर उठकर भी महिलाओं से जुड़े गंभीर मामलों को कभी देखा जाएगा? क्या सत्ता से हटकर महिलाओं से जुड़े अपराधों को लेकर सोचा जाएगा?

अब बात आती है, जो सरकार या पार्टी महिलाओं के खिलाफ होती हिंसाओं को तथाकथित ब्रांड्स बनाकर मामलों को कम करने की बात करती है क्या कभी उसने ग्रामीण क्षेत्रों में होती हिंसाओं को लेकर कोई आंकड़ा निकाला है? उस तरफ जाकर सोचा है? क्या कभी खुद का इतना फैलाव किया है कि दबे क्षेत्रों से आने वाले मामलों को न्याय मिल पाए? अगर नहीं तो चुनाव में हर बार “महिला-महिला” चिल्लाने को क्या ढकोसला समझना सही होगा?

हर चुनाव में कोई खड़ा होता है “महिला” शब्द को लेकर राग अलापने लगता है जब तक उससे उसे वह हासिल न हो जिसके लिए उसने महिला शब्द को तथाकथित ब्रांड बनाया है।

खबर लहरिया सालों से महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम करती आ रही है। महिला हिंसा से जुड़े कई ऐसे मामले भी देखें हैं जहां क्राइम को ही पुलिस ने बदल दिया तो कभी आरोपी को जेल भेजने का दिखावा कर उसे आज़ाद कर दिया। ग्रामीण क्षेत्रों में हुए इन जैसे हुए अधिकतर मामलों में महिलाओं को इंसाफ नहीं मिल पाता क्योंकि आज भी उनकी पहुँच, इंसाफ से बहुत-बहुत दूर है तो कहने को चुनाव में खड़े होने वाले जनता के उम्मीदवार को क्या जनता का प्रतिनिधि कहना जुमला नहीं लगता? जब न्याय प्रणाली द्वारा चयनित व्यक्ति ही न्याय तक पहुँचने में बाधा है तो कोई इंसाफ तक कैसे पहुंचे?

हम इस आर्टिकल में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ होती हिंसाओं के उन मामलों और उनकी पहुंच को लेकर बात करेंगे कि प्रशासन व कानून का उन मामलों की तरफ क्या रवैया रहता है। यूपी सरकार जो महिलाओं को लेकर हर चुनाव में दोगले वादे करती है, उसका क्या चेहरा है व वह महिला हिंसा व महिलाओं को कैसे देखा जाता है।

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क्राइम का गवाह होने के बावजूद पुलिस ने नहीं लिखी रिपोर्ट

खबर लहरिया की रिपोर्ट के अनुसार, चित्रकूट जिले के एक गांव में 45 वर्षीय विकलांग महिला के साथ बलात्कार किया जाता है और पुलिस आरोपी को पकड़ने का दिखावा कर थोड़ी देर बाद उसे छोड़ देती है। घटना 18 नवंबर, 2022 की है। महिला अपने नाती के काम से आने का इंतज़ार कर रही थी। जब वह नहीं आया तो वह उसे देखने बाहर चली गयी। रात के लगभग साढ़े आठ बज रहे थे।

आरोप के अनुसार पड़ोस का ही रहने वाला आरोपी पप्पू उर्फ़ इरफ़ान ने महिला को पीछे से दबोचा। उसका मुंह दबाते हुए ज़बरन स्कूल के पीछे ले जाकर उसे ज़ोर से ज़मीन पर गिरा दिया और उसके साथ बर्बरता से बलात्कार किया। आरोपी के साथ एक आदमी और मुंह पर कपड़ा बांधे खड़ा था, जिस वजह से वह उसे नहीं पहचान पाई।

महिला ने बताया, वह चिल्लाने की कोशिश कर रही थी लेकिन मुंह को आरोपी ने हाथों से दबा रखा था जिसकी वजह से उसकी आवाज़ तक नहीं निकल रही थी। वह अपना बचाव नहीं कर पायी। आगे कहा, “अगर मेरे दोनों हाथ होते तो शायद कुछ कर पाती।” वो बलात्कार करके भाग निकला। जैसे-तैसे वह उठी। पड़ोसी से फोन लेकर पुलिस को बुलाया। मौके पर पुलिस ने आरोपी को भागते हुए पकड़ भी लिया।

कहा, ‘यौनि के ऊपरी हिस्से और घुटने में बहुत दर्द है।’

आरोप लगाते हुए आगे कहा कि पुलिस ने न तो उसका मेडिकल कराया और न ही कोई शिकायत लिखी। उसे घर वापस भेज सुबह आने को कहा। जब वह सुबह गयी तो पुलिस ने आरोपी पप्पू को छोड़ दिया था। पुलिस वालों ने खुद महिला की अवस्था को देखा था। इसके बावजूद भी आरोपी पप्पू के खिलाफ पुलिस द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी।

कहा, “मैं अकेली हूँ। मेरे साथ कोई नहीं है। मैं गरीब हूँ। गरीबों की न तो पुलिस सुनती है और न ही समाज साथ देता है।” पैसा नहीं है तो मैं लड़ भी नहीं सकती। आरोपी पप्पू मुझे जान से मारने की धमकी देता है।

जब पुलिस ने कुछ नहीं किया तो महिला ने अदालत का रास्ता अपनाया और धारा 156 के तहत मुकदमा दर्ज़ कराया लेकिन पैसे न होने की वजह से वह केस नहीं लड़ पा रही है। उनकी कोई मदद करने वाला भी नहीं है। हर कोई आरोपी पप्पू का साथ दे रहा है।

पैसे की कमी की वजह से महिला अपना इलाज करा पाने में भी असमर्थ है व केमिष्ट से गोली खरीदकर जैसे-तैसे ताकत जुटा रही हैं।

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पुलिस ने क्राइम को ही बदल डाला

दूसरा मामला है, हमीरपुर जिले का। इस मामले को ही पुलिस ने बदल दिया। मामला था दुष्कर्म का और पुलिस ने मामले को छेड़खानी का कर दिया। 17 सितंबर को भरुवा सुमेरपुर थाना अंतर्गत आने वाले एक गांव में एक लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म का मामला सामने आया था लेकिन पुलिस ने इस मामले पर छेड़खानी का मुकदमा दर्ज कर दिया। नवंबर 2022 में खबर लहरिया द्वारा इस मामले को लेकर रिपोर्टिंग की गयी थी। लगभग दो महीने बीत जाने के बाद भी मामले को लेकर कोई कार्यवाही नहीं की गयी। आरोपी द्वारा खुलेतौर पर पीड़ित परिवार को बराबर धमकियां दी जाती हैं।

परिवार ने बताया कि आरोपी का परिवार उन्हें डरा धमकाकर गांव में उलझाए रहा उधर आरोपियों का चालान हो गया। पीड़ित परिवार अपना वकील तक नहीं कर पाया जिससे आगे की कोई कार्यवाही हो। आरोपी चालान के बाद छूट कर घर वापस आ गए।

परिवार के मुताबिक पुलिस ने न तो मुकदमा दर्ज किया और ना ही कोई कार्यवाही हुई यानी पुलिस और कानून दोनों ही उनका साथ नहीं दे रहा है। हमीरपुर जिले के एसपी का कहना है कि मामले की जांच चल रही है और मामला कोर्ट में भी चला गया है। अब वहीं से फैसला होगा लेकिन कब?

ग्रामीण क्षेत्रों में होते हिंसा के मामलों में लोगों को इन्साफ के लिए काफी लंबा सफर तय करना पड़ता है क्योंकि इन मामलों को लेकर किसी पर कोई दबाव नहीं देखा जाता। क़स्बा, पुरवा, मजरा, समाज, ताकत, जाति, पुलिस, प्रशासन, कानून और सबसे बड़ी चीज़ ‘पहुँच’, इतना लंबा सफर तय कर पाना किसी के लिए कितना आसान या मुश्किल है आखिर कौन बता सकता है? शायद वही जो यह लंबा रास्ता तय कर रहा हो। वह क्षेत्र जो आज तक पिछड़े हुए हैं, विकसित तक नहीं हुए तो क्या इन क्षेत्रों में हुए मामलों को वो आवाज़ और न्याय मिलेगा, जिसे कानून हमेशा समानता का हवाला देते हुए बड़ा बन जाता है।

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यूपी में महिलाओं के साथ होते अपराधों को लेकर एनसीआरबी की रिपोर्ट

राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक़ यूपी में हर तीन घंटे में एक बलात्कार का मामला सामने आता है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि यूपी में महिलाओं को सबसे ज़्यादा अपराधों का सामना करना पड़ता है।

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित कुल 56,083 मामले दर्ज किए गए, जिसमें प्रति लाख जनसंख्या पर अपराध दर 50.5 प्रतिशत थी।

अतः हर चुनाव पार्टियां महिलाओं के साथ होते अपराध के मामलों को क्राइम्स की तरह न देखते हुए उसका इस्तेमाल चुनाव में तथाकथित ब्रांड्स के तौर पर करती है और यूपी सरकार कहती है कि वह महिलाओं का सम्मान करती है। महिलाओं के साथ होती हिंसाओं को हिंसा न समझकर एक राजनीति का मुद्दा समझा जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में होती हिंसाओं के मामलों को गंभीरता से नहीं देखा जाता। न्याय तक पहुँच में महिलाओं का साथ नहीं दिया जाता पर चुनाव के समय उन्हें तथाकथित ब्रांड बनाकर सत्ता तक पहुंचने का ज़रूर से ज़रिया बना लिया जाता है।

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