कुछ बातें बाबा आदम के जमाने से चली आ रही हैं जिसे आज की सोच के हिसाब से बदला जाना जरूरी है। खेलों में एक ऐसी ही बदनाम प्रथा है ‘जेंडर टेस्ट’। इसका महिलाएं शिकार होती हैं। जिसका जेंडर टेस्ट होता है उसके बारे में इतनी घटिया बातें होती हैं जो महिला के लिए असम्मानजनक होती है और कुछ खिलाड़ियों ने इस कारण अपनी जान भी दे दी। ये डायलॉग है हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म रश्मि रॉकेट का। जी हाँ दोस्तों आज हम इस फिल्म पर ही चर्चा करने वाले है तो चलिए थोड़ा फ़िल्मी हो जाते हैं।
हैल्लो दोस्तों उम्मीद करती हूँ कि आप सब स्वास्थ्य होंगे। जैसा की पहले ही बताया आपको कि आकर्ष खुराना निर्देशित रश्मि रॉकेट Zee5 पर रिलीज़ हो चुकी है। नाम सुन कर ही लगता है की ये फिल्म किसी खिलाड़ी पर होगी , मगर ये फिल्म सिर्फ़ एक एथलीट के संघर्ष या हार-जीत की कहानी नहीं है, बल्कि यह फ़िल्म इस खेल में बसी एक ऐसी बुराई की बात करती है, जो महिला एथलीटों के स्वाभिमान पर चोट करती है।
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कहानी भुज की रश्मि वीरा यानी तापसी पन्नू की है। जो इतनी तेज़ दौरति है कि उसके नाम के आगे ही रॉकेट शब्द जुड़ गया. एक दिन उस पर एक आर्मी कैप्टन गगन ठाकुर यानी प्रियांशु पेनयुली की नज़र पड़ती है तो उसके टैलेंट से प्रभावित होकर एथलेटिक्स प्रतियोगिताओ में शामिल होने का न्योता देता है। गगन ख़ुद एक पदक विजेता एथलीट रहा है और अब आर्मी में एथलीटों को ट्रेन करता है। रश्मि अतीत की एक घटना की वजह से दौड़ना छोड़ चुकी है, मगर मां भानुबेन के समझाने और दबाव देने पर राजी हो जाती है। गगन उसे ट्रेन करता है और रश्मि एक के बाद एक राज्य स्तरीय प्रतियोगिताएं जीती रहती है, जिससे वो एथलेटिक्स एसोसिएशन के सिलेक्टर्स की नज़र में आ जाती है।
रश्मि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिए पुणे की एथलीट अकादमी में भर्ती हो जाती है। जहां उसका सामना दूसरी एथलीटों से होता है। रश्मि में टैलेंट है, मगर टेक्निक नहीं। कोच मुखर्जी इसमें रश्मि की मदद करता है। मगर, रश्मि की प्रतिभा चैंपियन एथलीट निहारिका को रास नहीं आती, जो एथलीट एसोसिएशन के पदाधिकारी दिलीप चोपड़ा की बेटी है। हालांकि, निहारिका अपने पिता के पद से ज़्यादा अपने टैलेंट पर भरोसा करती है।
एशिया गेम्स में रश्मि, पदकों और शोहरत की रेस में निहारिका से आगे निकल जाती है। रश्मि का टैलेंट उसके लिए मुसीबत बन जाता है और जेंडर टेस्टिंग के लिए बुलाया जाता है। जांच में पता चलता है कि रश्मि के खून में टेस्टोस्टेरोन हार्मोन की मात्रा पुरुष एथलीटों से भी अधिक है(ये एक हार्मोन है जो महिला और पुरुष दोनों में पाया जाता है लेकिन ये पुरुषों में ज्यादा और महिलाओं में कम पाया जाता है। इस बिना पर एथलीट एसोसिएशन उस पर बैन लगा देती है। इतना ही नहीं, स्पोर्ट्स हॉस्टल में उसे पुलिस के हाथों ज़लील भी होना पड़ता है। मीडिया में भी यह केस खूब उछलता है।
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रश्मि के संघर्ष में हर क़दम पर गगन उसका साथ देता है। दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं और शादी कर लेते हैं। गगन, मां भानुबेन और वकील ईशित मेहता के ज़ोर देने पर रश्मि एथलेटिक्स एसोसिएशन के ख़िलाफ़ बॉम्बे हाई कोर्ट चली जाती है और बैन को चुनौती देती है। अब बैन हटता है या नहीं ये देखना मज़ेदार है और इस कहानी का मुख्य भाग भी लेकिन इसे जान्ने के लिए आपको पूरी फिल्म देखनी होगी।
अगर फिल्म के कहानी की बात करूँ तो मजबूत विषय पर जरूर बनी है, लेकिन इसके पहले भाग में जरूरत से ज्यादा ड्रामा डाला गया है. खासकर, वो भी तब जब ये तापसी पन्नू की फिल्म है, क्योंकि तापसी की पिछली फिल्मों में इस तरह की चीजें कम देखने को मिली हैं. एक लव एंगल था उसे भी अच्छी तरह से दिखाया नहीं गया है. ये एक प्यारी कहानी थी, जिसे बहुत ही संजीदगी के साथ दर्शाया जा सकता था. लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है की इस फिल्म में सिर्फ कमियां है बल्कि कुछ खूबियां भी है।
भले ही फर्स्ट हाफ थोड़ा सा बोझिल लगता है, लेकिन इसका सेकंड हाफ उस बोरियत को बिल्कुल दूर कर देता है. सेकंड हाफ ही फिल्म का असली विजेता है. अभिषेक बनर्जी की एंट्री के साथ ही फिल्म ने रफ्तार पकड़ी है. फिल्म का डायरेक्शन काफी जबरदस्त है. आकर्ष और उनकी टीम इसके लिए बधाई के पात्र हैं. आकर्ष की तारीफ इसलिए भी करनी बनती है कि उन्होंने एक ऐसे संवेदनशील विषय को उठाने की हिम्मत दिखाई है, जो काफी लंबे समय से बहस का मुद्दा रहा है।
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