खबर लहरिया Blog जाति ने सपने में डाली रुकावट, आज दूसरे बच्चों को कबड्डी सिखा 22 साल की युवा बनी प्रेरणा

जाति ने सपने में डाली रुकावट, आज दूसरे बच्चों को कबड्डी सिखा 22 साल की युवा बनी प्रेरणा

यह संघर्ष जाति का है। वो जाति जिसके साथ समाज में आज भी आगे बढ़ पाना एक चुनौती है। यह कहानी एक 22 साल की दलित लड़की कोमल (काल्पनिक नाम) की है। जो छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के एक छोटे से गांव की रहने वाली है। कोमल की यह कहानी जातिवाद के खिलाफ़ जाकर उसकी लड़ाई, उसके सपने, उसके जज़्बे को बताती है।

Ruled out of her team because of her caste, a 22 yr old girl now teaching kabaddi to many children

                                                                                                           Graphics by Jyotsana for Khabar Lahariya

“मैनें अब भी हार नहीं मानी है। मेरा संघर्ष अब भी ज़ारी है और रहेगा….।”

“मेरा नाम कोमल है। मुझे बचपन से ही बाकी खेलों से ज़्यादा कबड्डी खेलने में रुचि रही। मैनें जबसे स्कूल जाना शुरू किया तब से कबड्डी खेल रही हूँ। हाँ, मुझे पढ़ाई करना भी बहुत अच्छा लगता है। जब स्कूल में खेल के लिए छुट्टी होती थी तो मैं अपने से बड़ी कक्षा की दीदियों के साथ कबड्डी खेला करती थी। मुझसे बड़े होने के बावजूद भी वह मुझे पकड़ नहीं पाते थे।

हमारे क्लास टीचर पढ़ाई के साथ खेल में भी मेरी तारीफ़ किया करते। इससे मेरी कक्षा के बच्चे चिढ़ जाते थे। सब कुछ में मुझे शाबासी मिलती थी। स्कूल में मुझे बस एक चीज़ की कमी रह गई कि मेरा जन्म एक दलित परिवार में हुआ। इसकी वजह से मैं आगे बढ़कर भी पीछे रह जाती थी।

मेरी कक्षा में एक ही सहेली थी जो मेरे साथ बैठती। मुझसे टिफ़िन बांटती थी। हम एक ही बेंच पर बैठते थे। हम दोनों आज भी अच्छे दोस्त हैं।”

जब कबड्डी खेलने का मिला पहला मौका

मैं जैसे-जैसे बड़ी होती गयी, वैसे-वैसे कबड्डी में मेरी रुचि भी बढ़ी। स्कूल में होने वाले कबड्डी टूर्नामेंट में भाग लिया। कभी खेल में हार का सामना भी करना पड़ता लेकिन मुझे कबड्डी से इतना प्रेम है कि जितना भी खेलूं कभी मन ही नहीं भरता। घर में भी कबड्डी की प्रैक्टिस करती रहती। खाना बनाते समय, झाड़ू लगाते समय मैं कबड्डी को व्यायाम की तरह करती।

जब मैं 10वीं क्लास में गयी तो मेरे गाँव के बड़ी जाति के कहे जाने वाले भैया चंद्रभान ने मुझे उनकी कबड्डी टीम में शामिल होने को कहा। चंद्रभान भैया खुद भी एक वॉलीबाल, क्रिकेट व कबड्डी के खिलाड़ी हैं। उनकी कबड्डी के टीम में मेरे स्कूल की कई बड़ी दीदियां और कुछ उनसे कम उम्र की लड़कियां शामिल थीं।

मुझे भी उनके साथ खेलने के लिए कहा गया। मैं उस समय बेहद उत्साहित और खुश थी। मुझे ख़ुशी थी कि मुझे टीम में शामिल किया गया है। चंद्रभान हमारे कबड्डी टीम के कोच थे।

मेरी परीक्षा पास ही थी जब हमारे कोच द्वारा हमें दूसरे गांव में टूर्नामेंट खेलने के लिए लेकर जाया गया। हम वहां जीत भी गए। हम लोग बहुत खुश थे। वहीं टीम के कुछ साथी ऐसे भी थे जिन्हें मेरे टीम में होने से दिक्कत होती थी। लेकिन कबड्डी के लिए मेरी रुचि और प्यार इतना था कि किसी और पर मेरा ध्यान ही नहीं जाता।

जाति की वजह से टीम में होता भेदभाव

मैं ऐसे ही पढ़ाई के साथ खेल भी खेलती रही और 12वीं कक्षा भी निकाल लिया। हमारे गांव में बहुत-सी कंपनियां आईं और उसमें से एक कंपनी ने महिलाओं की खेल प्रतियोगिता रखवाई जिसमें हमने भी भाग लिया। हमने इस प्रतियगिता के लिए बहुत मेहनत की थी। हमारी टीम पहले नंबर पर जीत गई। हमें उसका कप भी मिला। एक-एक मेडल भी। कुछ पैसे भी कंपनी द्वारा दिया गया लेकिन उस बारे में मुझे कोई खबर नहीं। टीम के बाकी लोगों को मिला की नहीं मुझे नहीं पता।

मुझे खेलने के लिए मैदान मिला इससे बड़ी खुशी मेरे लिए और कुछ नहीं है।

यहां से जीतने के बाद हमें सब जानने लगे। मेरे गांव के लोग जो हमें छुआ मानते थे वो भी हमसे बात करके पूछने आए। पापा से बात किए कि आपकी बेटी बढ़िया खेलती है।

मुझे पहले घर में भी मां-पापा खेलने देते थे लेकिन जब थोड़ी बड़ी हुई जैसे 15-16 साल की तो हाफ़ पैंट पहन कर खेलने से मना करते थे। कहते थे कि ये लड़कियों का नहीं लड़कों का खेल है। हाथ-पैर टूट गया तो कोई शादी नहीं करेगा। लेकिन जब मैं खेल में जीतती गयी तो घरवालों ने मुझे आगे खेलने से नहीं रोका।

मुझे पता नहीं था कि मेरी जाति की वजह से मेरे खेल में रुकावट आएगी।

                                                                 कबड्डी में जीत हासिल करने के बाद कोमल को मिला मेडल

जब हम फाइनल मैच जीत कर स्टेज पर इनाम लेने आए तो वहां हमारे गांव के जाने-माने अभिनेता और अमीर लोग आये हुए थे, जो मेरे पापा को जानते थे और मुझे भी। इनाम देते समय ऐसे देख रहे थे मानों मैं ज़बरदस्ती कुछ छीन रही हूँ।

मैं दलित थी। मैं बड़ी जाति के और उनके ही रिश्तेदारों के बच्चों के साथ खेल रही थी जो उन्हें रास नहीं आया। अब तो कोच भी मुझे इनाम लेते देख कुछ अजीब व्यवहार करने लगे, जैसे कि मुझे खेल में कुछ आता ही न हो। हम यहां फर्स्ट आए इसलिए कंपनी द्वारा सिलेक्ट होकर जिले के लिए खेलने के लिए आमंत्रण दिया गया जिसमें मेरा भी नाम था। अब हमारे कोच हमें रोज़ कबड्डी की ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल के मैदान में सुबह-शाम बुलाने लगे लेकिन मैं शाम को ही जा पाती थी।

इसी बीच हमारी कैप्टन कि एक चचेरी बहन आई हुई थी जो कबड्डी खेलने में रुचि रखती थी। सुबह मैं नहीं जा पाती थी तो वो ही मेरी जगह खेला करती थी क्योंकि कबड्डी में 7 लोगों का होना ज़रूरी है।

जब शाम को जाती तो कोच सर (चंद्रभान) मुझे कुछ टाइम बैठा देते थे। कैप्टन (सालू) की बहन सोनिया को खेलने देते थे। मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लगता था क्योंकि सीखना तो सबको चाहिए। धीरे-धीरे कैप्टन के चाचा जो कोच के अच्छे दोस्त थे और हमारे कोच का मेरे प्रति रवैया बदलने लगा। वो हर दिन मेरी जगह उसे खेलाने लगे। मैं अपने गांव से अकेले एक किलोमीटर दूर चलकर कबड्डी खेलने जाती थी तो थोड़ी देर हो जाती थी। तब तक कोई मेरा इंतज़ार नहीं करता था। सब प्रैक्टिस में लग जाते थे। पहुंचने के बाद उनकी एक बार की प्रैक्टिस खत्म करने तक एक घंटा, आधा घंटा मुझे इंतज़ार करना पड़ता था।

पहले एक्स्ट्रा प्लेयर बनाया फिर किया टीम से बाहर

कुछ समय बाद मेरी टीम में गांव की सरपंच की बेटी दुर्गा भी जुड़ी। दुर्गा, मुझसे बड़ी थी पर उन्हें खेलना नहीं आता था। मैंने उन्हें अपने साथ राइट ब्लॉकर, लेफ़्ट ब्लॉकर में रख कर खेलना सिखाया था। अब वो अच्छे से सीख गई थीं। लेकिन बाद में उन्होंने अपने ही गांव की एक लड़की जिनका नाम गुड़ो था उन्हें अपना खेल का पार्टनर बना लिया।

शायद उन्हें पता चल गया था कि मैं दलित हूँ।

इसी बीच एक गांव में ईनामी टूर्नामेंट शुरू हुआ। इस बारे में न तो मुझे कोच द्वारा बताया गया और न ही मेरी टीम की किसी साथी द्वारा।

इसी बीच मेरे हाथ और पैर में मोंच भी आ गयी। चलने में, कपड़े पहनने में भी दिक्कत हो रही थी। मैं हफ़्ता भर खेलने नहीं जा सकी। इसी बीच में सबने अपना-अपना पार्टनर चुन लिया और मुझे छोड़ दिया। जब मैं ठीक होकर गई तो मुझे एक्स्ट्रा प्लेयर में रखा गया। मुझे अजीब सा महसूस होने लगा था। ऐसा लग रहा था कि मैं कभी इस टीम की भागीदार रही ही नहीं।

मुझे कोच ने कहा, हम इन्हें सीखा रहे हैं तुम ही खेलोगी बाद में। हम कुछ दिन बाद जिला स्तरीय में बिना खेले ही सिलेक्ट होकर राज्य स्तरीय कबड्डी प्रतियोगिता में खेलने बालको ( कोरबा) चले गए। हम अंबेडकर स्टेडियम में खेलने गए थे। वहां कई दिक्कतों के साथ मैं खेल पाई। सबके लिए कोच ने नये जूते और बैंड लिया था। मेरे पास कुछ भी नहीं था। मुझे मैट में खेलना था और खेलने में भी मुझे मुश्किलें आईं।

मेरे इस मैच में खेलने की वजह से टीम के सब लोग गुस्से में थे। कोई मुझसे ढंग से बात नहीं करता था। खाना खाने के समय सबको एक साथ जाना होता था लेकिन वो लोग मुझे छोड़ देते थे। वापस आते वक़्त कोई मेरा इंतज़ार नहीं करता था। जिस दिन कोरबा में लास्ट दिन था और हमें घर आना था। उस समय सभी को बस के किराये के लिए कोच ने पैसे दिए पर कोच ने मुझे कुछ नहीं दिया। बाकी प्लेयर्स को स्पोर्ट्स ड्रेस दिया गया और मुझसे कहा गया कि तुम्हारे लिए बाद में ले लेंगे घर जाकर। यहां हमें हार मिली लेकिन मैं बहुत खुश थी कि मैं स्टेट लेवल तक खेल पाई।”

माँ-पापा मुझे पहली बार खेलता देखते पर……

कोरबा से वापस लौटने के बाद हमारे गाँव में केलो नदी पूजा के उपलक्ष्य में लड़के व लड़कियों की कबड्डी की प्रतियोगिता रखी गयी। इसे खेलने के लिए मैं बहुत उत्साहित थी। इस प्रतियोगिता में कई अलग-अलग जिले व गांव के लड़के व लड़कियां खेलने आये थे। प्रतियोगिता में प्रथम आने का इनाम 22 हज़ार, दूसरे स्थान पर आने का 11 हज़ार और तीसरा स्थान पाने पर 6 हज़ार था। हर कोई जोश में था। ऐसा पहली बार हुआ था कि जिले में कोई इनामी प्रतियोगिता आयोजित की गयी हो। हर किसी में जीतने की लालसा दिखाई दे रही थी।

मेरे पापा ने मुझे कबड्डी खेलते कभी नहीं देखा था। न ही मेरी फैमिली में किसी ने तो ये मैच देखने मेरी पूरी फैमिली आई थी। पापा ने अपने दोस्तों को बता रखा था कि वो 9 नंबर की पीले ड्रेश में मेरी बेटी है, जिसे मैं आज पहली बार खेलते देखूंगा। मेरे पापा और मां, मुझे खेलता हुआ देखने के लिए बहुत खुश थे। मैं तो उनसे भी ज़्यादा खुश थी कि मैं आज पापा को दिखाऊंगी कि मैं भी बाकी लोगों की तरह अच्छा खेल सकती हूँ।

पापा मुझे देखकर अंगूठा दिखाकर बेस्ट ऑफ लक बेटा कहने की कोशिश कर रहे थे और मैंने हँस कर सिर हिला दिया। उधर मेरे गांव की कई महिलाएं, पुरुष व बच्चे आए हुए थे। जो मुझे बखूबी जानते थे। खेल स्टार्ट किया गया। पहले लड़कियों की टीम को मौका दिया गया। उसके बाद लड़कों की टीम को। जब अपने टीम की बारी आई तो हमारी टीम को सीधे सीनियर टीम से खेलाया जाना था। मैं और मेरी टीम मैदान में तालियां बजाते हुए लाइन से उतरे। हमारे मैदान में उतरते ही कोच ने मुझे इशारे से अपने पास बुलाया। कहा कि इस मैच में सोनिया को खेलने दो, तुम एक्स्ट्रा प्लेयर में बैठ जाओ। अगले मैच में तुमको उतारेंगे।

मैं ठीक है कह कर सबके स्पोर्ट्स जैकेट्स को पकड़ के साइड में बैठ गई। पापा मेरी ओर देख कर इशारा किए कि क्या हुआ? मैंने इशारे से कहा अगली बारी मेरी है। वो मुस्कुराए और ओके कहा।

ये सेमीफाइनल मैच हमारी टीम जीत गई। मैं मन में सोच रही थी कि फाइनल मैच में अच्छे से खेलेंगे और जीतना ही है। जब फाइनल मैच में कोच ने कहा कि तुम नहीं खेल सकती तुम एक्स्ट्रा प्लेयर हो तो मानों एक पल के लिए कि लगा शरीर से प्राण अलग हो गया हो।

मेरी नज़रें पापा को ढूंढ़ती हुई इधर-उधर देखने लगी। पापा तो मुझे एक्स्ट्रा प्लेयर में देख कर ही समझ गए थे कि मेरा अब दोबारा खेलने का कोई मौका नहीं है। जब मैंने मन ही मन अपना कसूर ढूँढ़ा कि मेरी क्या गलती है?

जब जानबूझकर कोच ने मुझे छोटे टीम के साथ खेलने को कहा और मैं खुश होकर तैयार भी हो गई। फिर बाद में कोच ने मुझे अपने ही टीम से ये कह कर निकाल दिया कि तुम छोटे टीम के साथ खेली हो, अब बड़ी टीम में नहीं आ सकती। दरअसल वो मुझे टीम से निकालने का तरीका था।

मुझे पता नहीं था कि ये मेरी जाति की वजह से था। बाद में पता चला तो मैं कुछ समय तक गुस्सा थी कि मैं दलित क्यों पैदा हुई? मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? मैं एक दिन तक बिना खाये-पीये रोती रही।

लेकिन बाद में मैं खुश भी हुई कि जो इंसान जाति भेदभाव करता है उनके साथ खेलने से अच्छा है, मैं ऐसे सपने को छोड़ दूँ।

बच्चों को कबड्डी सिखा पूरा कर रहीं सपना

                                                                                                                               कोमल के घर में गांव के पढ़ते हुए बच्चे

कुछ साल बीतने के बाद जब मैं एक दीदी से मिली तो उनकी सहायता से मैंने अपने घर में लाइब्रेरी शुरू की। हम बच्चों को घर-घर बुलाने जाने लगे ताकि जो बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं उन्हें हम पढ़ा सकें। खासकर लड़कियों को शिक्षित करने के लिए। पर मेरी जाति की वजह से कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को मेरे घर भेजना नहीं चाहते थे। हमने मेहनत और संघर्ष नहीं छोड़ा। आखिर में बच्चों ने आना शुरू कर दिया।

शुरू में 5 से 6 बच्चे आने लगे। उन्हें देखकर और भी बच्चों ने आना शुरू किया। हम उन्हें खेल के तरीके से पढ़ाने लगे। उन्हें भी रुचि होने लगी। वह बुलाने जाने पर रोज़ आने लगे। हम दीदी के साथ उन्हें खेल के माध्यम से कहानी की किताबें पढ़ाने की कोशिश करते तब मुझे लगा कि क्यों न मैं इन्हीं बच्चों के ज़रिये अपना कबड्डी खेलने का सपना पूरा करूं।

मैंने बच्चों से उनके मन की बात भी पूछी कि क्या वो कबड्डी खेलना और सीखना चाहेंगे? उन्होंने पहले तो नहीं बोला क्योंकि गांव में रहने वाले बच्चों के घर में काम होते हैं जिसे वो स्कूल से आकर करते हैं। इस वजह से लाइब्रेरी आने में दिक्कत हो जाती थी। कभी ऐसा भी होता था हमारे साथ कि हम लाइब्रेरी खोलकर बैठे रह जाते थे और कोई आता ही नहीं था। बुलाने जाने पर भी कोई बोलता की मुझे काम है, कोई आ रहा हूँ बोलकर नहीं आता था। मैं उन्हें समझाती थी कि स्कूल में पढ़कर आने के बाद लाइब्रेरी में पढ़ना बोर लगता होगा इसलिए मैंने उन्हें एक दिन सिर्फ खेलने के लिए बुलाया तो कुछ बच्चे इकठ्ठे हुए।

                                                                                                                           मैदान में कबड्डी सीखते हुए बच्चे

आए हुए कुछ बच्चों के साथ मैं बाकी बच्चों को बुलाने जाती। खेलने के नाम से बच्चे आने लगे। मैं उन्हें कबड्डी सीखाने लगी। जैसे-जैसे उन्हें सिखाती थी, मुझे अपना बीता हुआ दिन याद आ जाता। कुछ दिनों बाद खेलने के दौरान बच्चों को थोड़ी बहुत चोट लगने लगी। इस वजह से उनके माता-पिता ने उन्हें आने से मना कर दिया।

मैंने भी हार नहीं मानी। मैनें पड़ोस में रहने वाली दादी के खाली पड़े खेत को कबड्डी का मैदान बनाने के लिए उनसे बात की। पहले तो उन्होंने डांट कर मना कर दिया। बाद में बोला की ठीक है मैदान बना लो लेकिन कोई नुकसान नहीं करना। मैंने अपने छोटे भाई और लाइब्रेरी आए कुछ बच्चों के साथ मिलकर मैदान बना लिया। ये जान कर बच्चों के मन में भी उत्सुकता हुई और उन्होंने फिर से आना शुरू कर दिया।

बच्चों को देखकर मेरा हौसला और बढ़ने लगा। अब रही बात उनके मां-पापा की तो गांव में केलो नदी के पूजा के उपलक्ष्य में ईनामी कबड्डी प्रतियोगिता होने को थी तो बच्चों को कबड्डी सीखने के लिए मेरे पास भेजने से किसी ने मना नहीं किया। ये मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी। बच्चों के बीच में से कोई प्रतियोगिता में खेले या न खेले लेकिन अपना मैदान भी किसी प्रतियोगिता से कम नहीं था।

हाँ, मुझे अपनी जाति की वजह से मैदान नहीं मिला लेकिन क्या पता इन बच्चों में से किसी को मिल जाए?

“मैनें अब भी हार नहीं मानी है। मेरा संघर्ष अब भी ज़ारी है और रहेगा….।”

(सुरक्षा की दृष्टि से आर्टिकल में सभी नामों को बदला गया है। )

 

इस लेख को गायत्री  व  संध्या द्वारा लिखा गया है।