“जब बालू चलाई करते हैं तो इतनी धूल उड़ती है कि पूरी मुँह के अंदर चली जाती है। अब क्या करें, पेट का सवाल है… काम नहीं करेंगे तो बच्चे भूखे मर जाएगे।”
रिपोर्ट – सुनीता, लेखन – सुनीता प्रजापति
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज ज़िले के शंकरगढ़ ब्लॉक में बसे शिवराजपुर, गाढ़ाकटरा और गुलराहाई गांवों में ज़िंदगी हर रोज़ बालू की धूल के साथ शुरू होती है। खासकर यहां की महिलाएं और आदिवासी समुदाय के के लोग बालू खनन और चलाई के काम में लगे हैं। सुबह-सुबह बोरी लेकर निकलना और शाम को दो वक़्त की रोटी के साथ लौटना, यही इनकी दिनचर्या है लेकिन इस रोटी में अब टी.बी की बिमारी की कड़वाहट घुल चुकी है। यह क्षेत्र गिट्टी-बालू के खनन के लिए जाना जाता है। लोग खदानों से बालू निकालते हैं और उसे बोरी में भरते हैं और ट्रकों में लादते हैं। यह काम रोज़गार तो देता है पर बदले में लोगों के शरीर में धूल और बीमारी भर देता है।
यहां की महिलाएं बताती हैं कि जब वे बालू चालती हैं तो इतनी धूल उड़ती है कि सांस लेना मुश्किल हो जाता है। यही धूल उनके फेफड़ों में जाकर जम जाती है जिससे टी.बी., फेफड़ों में सूजन और गुर्दा से जुड़ी बीमारियां पैदा होती हैं।
टी.बी. की बीमारी बन चुकी है आम बीमारी
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC) के टी.बी. विभाग के डॉक्टर हेमराज के अनुसार शंकरगढ़ क्षेत्र में बालू का काम महिलाएं और पुरूष दोनों करते हैं जो बालू का धूल उड़ के मुंह मे जाता है इससे ज्यादातर टी.बी. की बीमारी फैलती है। साथ ही पथरीला क्षेत्र होने के कारण हैण्डपम्प का गन्दा पानी पीने से भी बीमारियां होती हैं। वैसे तो कई तरह की बीमारी होती है पर ज्यादातर टी.बी. की बीमारी होती हैं।
हमारे यहां 35 टी.बी. के मरीज थे जिसमे से 25 मरीज ठीक हो चुके हैं। एक गर्भवती महिला को भी टी.बी. की बीमारी थी जो अब ठीक हो गई है। अभी 10 लोग टी.बी. के मरीजों का इलाज चल रहा है।
यूपी के कई जिलों में बालू से बढ़ती परेशानी
यूपी के प्रयागराज जिले में आने वाले कई गांव शंकरगढ़, शिवराजपुर,गाढाकटरा और गुलराहाई में बालू पत्थर का काम होता है। रोजगार की कमी के कारण इन्हें मजबूरन इस काम को करना पड़ता है, जबकि इस काम से उनके स्वास्थ पर असर पड़ता है। यहां की जो महिलाएं हैं, वह गिट्टी बालू को चालने और बोरी में भरकर ट्रक में रखने का काम करती हैं। महिलाएं इस काम को अपने परिवार और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए करती हैं क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं है।
सिलिका रेत/बलुआ पत्थर का काम करने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता असर | यूपी
साल 2023 में खबर लहरिया की रिपोर्ट के मुताबिक प्रयागराज के गुलराहाई गांव की कलावती कहती हैं कि, “बालू चलाई का काम आज 20 साल से हम लोग करते आ रहे हैं। जब बालू चालते (छानते) हैं तो इतनी धूल उड़ती है कि मुँह के अन्दर चली जाती है। धूल के कारण गांव में टीबी के मरीज बढ़ रहे हैं। हमारे पति को पांच साल से टीबी है, पर क्या करें? मजबूरी है। इसके अलावा कोई काम नहीं है। यदि काम नहीं करेंगे तो बच्चे भूखे मर जाएगें। हमारे गांव में इस समय टीबी की बीमारी से कम से कम 10 लोगों की मौत हो गई।”
सिलिका रेत/बलुआ पत्थर का काम करने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ता असर | यूपी
शंकरगढ़ क्षेत्र के 75 प्रतिशत आदिवासी परिवार की रोजी-रोटी बालू के रोजगार से चलती है। कुछ लोग बालू के चलाई का काम करते हैं तो कुछ बालू बोरी में भरते हैं, कुछ लोग ट्रक में बोरी लोड (रखते) करते हैं जबकि ये काम बहुत खतरे का है लेकिन रोज का पैसा उन्हें मिल जाता है।
2023 में प्रायगराज में टीबी के लगभग 469 मरीज़
2023 में भी जब खबर लहरिया ने इस पर रिपोर्टिंग की तब टीबी के लगभग 469 मरीज़ थे। शंकरगढ़ के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के टीबी डॉ. धुन्नी प्रसादकारण ने इसकी जानकारी दी थी और इसका गिट्टी-बालू का काम था।
WHO की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2019 में टीबी के 24 लाख केस सामने आए और 79,000 लोगों की टीबी से मौत हुई। टीबी के मरीज़ों की संख्या उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी, महाराष्ट्र में 9 फीसदी, मध्य प्रदेश में 8, राजस्थान और बिहार में 7 फीसदी है।
धूल बन रही जान की दुश्मन
यहां की रहने वाली कलावती देवी बताती है- “मैं यहां बीस साल से बालू चलाई का काम कर रही हूं। जब बालू चालते हैं तो धूल सीधे मुंह से शरीर के अंदर चली जाती है जिसकी वजह से गांव में टी.बी. और फेफड़ों की बीमारी बहुत फैल रही है। धूल के कारण टी.बी. और पथरी व किडनी खराब होने जैसी बीमारियां आम होती जा रही हैं। मेरे पति को पिछले पांच साल से टी.बी. की बीमारी है। मजबूरी में हम सब यह काम कर रहे हैं। अगर ये न करें तो बच्चों को क्या खिलाएंगे। इस समय गांव में पांच लोगो को टी.बी. की बीमारी है और अब तक लगभग दस से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।”
गर्भवती महिलाओं पर सबसे ज़्यादा असर
लखनपुर गांव की पूजा ने कहा कि गर्भवती महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा खराब होती है। महिलाएं दिन भर झुकी हुई स्थिति में केवल बालू नहीं चालती बल्कि 50 किलो की बोरी उठाकर ट्रक में भरने का काम भी करती हैं। धूल निगलना और भारी वजन उठाना उनके और गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य पर भारी असर डालता है।
वह बताती हैं- “जब मां कमजोर हो जाती है तो खून की कमी हो जाती है जिससे जच्चा और बच्चा दोनों को खतरा होता है। जब मां टी.बी. बीमारी से ग्रासित हो जाती हैं जिसका पूरा असर बच्चा के उपर पड़ता है। इस तरह से दो साल पहले दो दोनों गर्भवती महिलाओं की मौत हुई थी।”
मजदूरी का नाम मजबूरी
गाढाकटरा गांव की पूजा ने कहा कि शंकरगढ़ क्षेत्र के लगभग 75 प्रतिशत आदिवासी परिवार की रोज़ी-रोटी का यही सहारा है। कोई बोरी भरता है तो कोई ट्रक में लादता है। हम जानते हैं यह काम खतरनाक है। यह हमे बीमार बना रहा है लेकिन मजबूरी में हमे करना पड़ता है क्योकि रोज़ का पैसा मिल जाता है जो हमारे लिए बहुत जरुरी है।
रानी कहती है कि मनरेगा में काम करते हैं तो समय से पैसा नहीं मिल पाता है इसलिए मनरेगा में काम नहीं करना चाहते हैं। जब बालू चलाई का करने हम जाते हैं तो वहां पर हमे रोज पैसा मिल जाता है जिससे हम शाम को बच्चो का पेट भर पाते हैं। हमें मालूम है कि यह काम हमारे बच्चों की ज़िंदगी के लिए बहुत ही खतरनाक है पर आसपास कोई दूसरा काम न होने की वजह से यह काम करना पड़ता है। काम में अपने छोटे- छोटे बच्चे भी लेकर जाते हैं। जब हम काम करने लगते हैं तो बच्चे बालू में खेलते रहते है। मुंह में धूल भर जाती है जिससे बच्चों को अलग अलग तरह के बीमारी हो जाती है- जैसे पेट फूल जाना, बचपन से ही टी.बी. बीमारी की शिकायत हो जाना। गरीब लोग रोज कमाने खाने वाले हैं इतना पैसा नहीं हो पाता है की इलाज करवा पाये। सरकार की ओर से मनरेगा जैसी योजना है लेकिन वहां काम करने वालों को समय से पैसा नहीं मिलता। इसलिए हम लोग बालू में काम करने के लिए मजबूर है।
शंकरगढ़ की महिलाएं हर रोज़ बालू में उतरकर देश के निर्माण के लिए ईंट-पत्थर भेजती हैं, पर खुद की ज़िंदगी धूल में खो बैठती हैं।
उनकी थाली में नमक-रोटी है, लेकिन साथ में है खांसी, बुखार, दर्द और चुपचाप मर जाने की बेबसी। ये सिर्फ शंकरगढ़ की नहीं देश के हर उस मजदूर की कहानी है, जो रोज़ की रोटी के लिए रोज़ाना अपने शरीर से लड़ता है।
बालू में काम करने वाले मजूदरों की जान खतरे में है और उन्हें टीबी जैसी बीमारी से जूझना पड़ता है। उनके पास कोई और विकल्प भी नहीं है क्योंकि उनके पास रोजगार नहीं है। इस वजह से खतरे में रह कर वो इसका काम को करते जा रहे हैं। उन मजदूरों को पता है इस काम से भले उनकी आर्थिक स्थिति संभल जाए लेकिन उनके स्वास्थ्य पर इसक गहरा असर पड़ सकता है जो उनकी जान भी ले सकता है।
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