खबर लहरिया Blog ख़बर लहरिया के बीस साल और ऑस्कर-कथा पर हमारा पक्ष

ख़बर लहरिया के बीस साल और ऑस्कर-कथा पर हमारा पक्ष

photo by khabar lahariya

ख़बर लहरिया, देश का इकलौता ग्रामीण मीडिया समूह है जिसका नेतृत्व महिलाओं के हाथ में है। ख़बर लहरिया का प्रकाशन कभी स्थानीय भाषा के अख़बारों की शृंखला के रूप में हुआ करता था, लेकिन अब यह यूट्यूब पर साढ़े पाँच लाख से अधिक सब्स्क्राइबरों वाला पूर्णतः डिजिटल ग्रामीण न्यूज़ चैनल है, जिसे हर महीने औसतन एक करोड़ लोग देखते हैं। इस मीडिया समूह का नेतृत्व यूँ तो दलित महिलाएं करती हैं, लेकिन हमारी टीम में मुस्लिम, अन्य पिछड़ा वर्ग और उच्च मानी जाने वाली जातियों की महिलाएँ भी शामिल हैं। इस साल ख़बर लहरिया ने अपने बीसवें वर्ष में प्रवेश किया है। यह दो दशकों का सफ़र दर्शाता है कि किसी स्वतंत्र मीडिया संस्थान की वास्तविक विविधता कैसी हो सकती है।

 यह साल हमारे लिए ख़ास है। इस साल हम अपने बीसवें स्थापना दिवस का जश्न मना रहे हैं और इसके ज़रिये यह बताना चाह रहे हैं कि एक स्थानीय और ग्रामीण नारीवादी मीडिया संगठन होने का क्या अर्थ है। इस साल ख़बर लहरिया को एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में फीचर किया गया है जिसका चयन ऑस्कर पुरुस्कार के लिए किया गया है। इस पूरी फ़िल्म को संस्थागत रूप से हम हाल ही में देख पाए हैं। इस संदर्भ में हमें कुछ कहना है। पहली बात तो यह कि इस फ़िल्म में हमारे बारे में जो कुछ दिखाया-बताया गया है, वह अधूरा है।

निश्चित रूप से यह डाक्यूमेंट्री फ़िल्म एक सशक्त दस्तावेज़ है, लेकिन इसमें ख़बर लहरिया को एक ऐसे संगठन के रूप में पेश किया गया है जिसकी रिपोर्टिंग एक पार्टी विशेष और उसके इर्द-गिर्द संस्थागत रूप से फोकस है, यह ग़लत है। हम मानते हैं कि स्वतंत्र फ़िल्म निर्माताओं के पास यह विशेषाधिकार है कि वे अपने ढंग से कहानी पेश कर सकते हैं, लेकिन हमारा यह कहना है कि पिछले बीस वर्षों से हमने जिस तरह की स्थानीय पत्रकारिता की है या करने की कोशिश की है, फ़िल्म में वह नज़र नहीं आती। हम अपनी निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता की वजह से ही अपने समय के अन्य मुख्यधारा की मीडिया से अलग हैं। यह फ़िल्म हमारे काम के महज़ एक हिस्से पर केन्द्रित है, जबकि हम जानते हैं कि अधूरी कहानियाँ पूरी तस्वीर पेश नही करतीं, बल्कि कई बार तो अर्थ के अनर्थ हो जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है। 

 स्वतंत्र पत्रकारिता के हमारे 20 साल के सफ़र में, हमारी रिपोर्टिंग की नींव में हमारे मूल्य ही रहे हैं। ऐसे मूल्य जिनके आधार पर हम तय करते हैं कि किन ख़बरों को हम तवज्जो देंगे, किसकी आवाज़ को शामिल करेंगे, कैसे तथ्यों की पुष्टि करेंगे और कैसे अलग-अलग नज़रिए को शामिल करेंगे। फ़िल्म का जो संस्करण हमने देखा है, उसमें इन मूल्यों की एक झलक भी नज़र नहीं आती।

आज पूरी दुनिया में जो लोग हमें देख रहे हैं, जो हमें हीरो समझ रहे हैं, उनसे हम ये कहना चाहते हैं कि हमारी कहानी इतनी सरल नहीं है। राजनीतिक परिवर्तन के समय में बड़ी सियासी शक्तियों से बात करने वाले छोटे व्यक्ति की आसानी से पचने वाली, दिल को छू लेने वाली कहानी हमारी नहीं रही है। यह केवल एक राजनीतिक दल विशेष की रैलियों और कार्यालयों में जाकर, उनसे मुश्किल सवाल पूछने के बारे में नहीं है। हमारे दो दशकों के सफ़र में, अलग-अलग राजनीतिक विचारों और विचारधाराओं की महिलाएँ हमारे न्यूज़रूम का हिस्सा रह चुकी हैं। हमने उत्तर प्रदेश में कई पार्टियों के बारे में रिपोर्टिंग की है और दोस्ती भी की है। जब उन्होंने कहा कि वे गरीबों, हाशिए पर खड़े लोगों के अधिकारों के लिए खड़े होंगे, तो हमने उनकी प्रशंसा की और जब हमने पाया कि उन्होंने अपने वादे के मुताबिक काम नहीं किया है तो हमने उन सबको आईना भी दिखाया है।

तो फिर क्या है खबर लहरिया की पूरी कहानी?

यह 20 साल का सफ़र, अंगारों पर चलने जितना जटिल और चुनौतीपूर्ण रहा है।

 इस  दौरान मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करते हुए हमारे मन में बार-बार यह संदेह भी उभरता रहता था कि क्या हम इस न्यूज़रूम को आगे चला पाएंगे? हम ऐसे दौर से गुज़र रहे थे जब दुनिया भर के अख़बार बंद हो रहे थे और पत्रकार बेरोज़गार हो रहे थे। ऐसे दौर में जब हमसे कहा जा रहा था कि ‘ठोस’ असर दिखाने वाली ख़बरों पर फोकस करो, तभी फंड देने वालों को प्रभावित किया जा सकेगा। हम रोज़ इन सवालों से जूझ रहे थे कि अखबार के नए संस्करण खोलना वाजिब है या नहीं, क्योंकि लोकल न्यूज़ की ज़रूरत तो हर जगह थी लेकिन अख़बार का वितरण बड़ा ही चुनौतीपूर्ण काम था। इन सब सवालों के साथ लगभग रोज़ ही हम ऐसे परिवार वालों से भी जूझते थे जो यह कहते हुए थकते नहीं थे कि ‘हमें अपनी औरतों से काम नहीं करवाना है’, यह जानते हुए भी कि ख़बर लहरिया की पत्रकार ही उनके परिवार की एकमात्र कमाऊ सदस्य है।   

 क्षेत्रों में, गाँवों में, आँगनबाड़ियों में, स्कूलों में, धूल भरे ज़िला प्रेस क्लबों में, प्रशासनिक ब्लॉकों में, पंचायत भवनों में, प्रखंड कार्यालयों में, ज़िलाधिकारी कार्यालय में, राजनीतिक दलों बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, पीस पार्टी, अंबेडकर समाज पार्टी, बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा, स्वतंत्र जनता पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, जन अधिकार पार्टी, भीम आर्मी के कार्यालयों में; मीडिया नेटवर्क में सभी तरह के पत्रकारों के साथ पेचीदा दोस्ती और रिश्ते बनाते-बनाते 20 साल होने को आए। 

 महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा पर 20 साल से रिपोर्टिंग करते हुए भी हमने क्या कुछ नहीं देखा और भुगता है। हिंसा के विरुद्ध दर्ज FIR के गहरे समुद्र से गुज़रना, हिंसा के जो केस दर्ज नहीं हुए उनको हाइलाइट करना, पोस्टमॉर्टम रूम के बाहर बैठना, जहाँ पीड़ित परिवार महिला का शव लेने की जद्दो-जहद करते नज़र आते हैं, भ्रष्ट कर्मचारी शव देने के लिए भारी क़ीमत माँगते हैं, पीड़ित परिजन समझौते करते हैं। सच तो ये है कि हिंसा की शिकार महिला के खिलाफ़ यह अंतिम और सबसे क्रूर क़िस्म की हिंसा है।

 यह सड़क, बिजली, पानी, स्वच्छता, विकास योजनाओं और अन्य चौंकाने वाली ख़बरों को उजागर करने के 20 साल हैं। इस दौरान हमने चुनाव से कहीं ज़्यादा स्वच्छता जैसे मसलों पर रिपोर्टिंग की है और हमें इसके लिए धन्यवाद भी दिया गया है, और प्रेस कॉन्फ्रेंस और ऑनलाइन मंचों से धमकियाँ भी दी गई हैं, दुर्व्यवहार किया गया है और मज़ाक भी उड़ाया गया है।

 हमारी पत्रकारिता रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ी स्थानीय और साधारण घटनाओं के महत्तव को बढ़ाती है। अपने 20 वर्षों में इस ज़मीनी स्तर की पत्रकारिता के दौरान, हमें यह पता नहीं होता था कि हम एक और हफ़्ते, या एक और महीने, या एक साल तक काम जारी रख पाएँगे या नहीं। यहाँ तक ​​कि जब हम यह लिख रहे हैं और हमारी कुछ स्टोरीज़ एकैडमी पुरस्कार की चकाचौंध तक भी पहुँच रही हैं – हम अब भी उसी असुरक्षा की भावना की गिरफ़्त में हैं।

 यह सफ़र सिर्फ़ अपनी जातिगत पहचान की वाहवाही का सफ़र नहीं है। हमें कई मौकों पर ऐसी स्टोरी तक पहुँच बनाने के लिए, जो हमें महत्तवपूर्ण लगती हैं, अपनी जातिगत पहचान को छिपाना भी पड़ा है। और यहाँ तक कि अगर हमने अपनी विशेष जातिगत पहचान के साथ लिखा और रिपोर्ट किया है, तब भी हमें अपने परिवारों की निजता की हिफ़ाज़त का अधिकार है। ख़ासकर हमारे बच्चों की निजता का, जो इन लड़ाइयों में आने वाले समय में अपने तरीक़े से शामिल होंगे।

 हमने महिला हिंसा से जुड़ी घटनाओं को कवर किया है, इसलिए नहीं कि महिला पत्रकार होने के नाते हमें ऐसा करना चाहिए, बल्कि इसलिए कि यह एक राजनीतिक मुद्दा है; हमने कभी भी हिंसा की घटनाओं को कवर करते हुए पीड़ित की पहचान का खुलासा नहीं किया, लेकिन हमें यह देखकर अफ़सोस हुआ की फ़िल्म में उनकी पहचान को उजागर कर दिया गया है।

 हम किसी शून्य से नहीं उभरे हैं, बल्कि महिला सशक्तिकरण, साक्षरता, डिजिटल दुनिया में दखल जैसे मुद्दों पर दशकों से किए जा रहे ज़मीनी काम की बदौलत यह मुमकिन हुआ है। हमने अपनी ज़रूरत के हिसाब से टेक्नोलॉजी को सही वक़्त पर अपनाया, यह भी इसका एक कारण है। हमें न केवल अपनी स्टोरी के बारे में, बल्कि अपने घरों, अपने दफ्तरों, संसाधनों के बारे में भी सोचना पड़ा ताकि हमारी टीम के सदस्यों के पास नियमित रूप से काम करने की सुविधाएँ बनी रहें। इसके लिए कई तरह की रणनीति और साझेदारी की ज़रूरत पड़ती है। जब हम ऑफिस के बाहर किसी जगह (ऑफसाइट) जाते हैं तो हम तमाम मुद्दों पर चर्चा करते हैं, न कि सिर्फ इस बात पर कि हम क्या महसूस करते हैं जब कोई विशेष पार्टी चुनाव जीतती है।

 इस महत्तवपूर्ण वर्ष में, जबकि हम खुद को बड़े परदे पर देख रहे हैं, हम अपने काम की जटिलता के बारे में और ज़्यादा बात करना चाहेंगे। हम उस कहानी के बारे में बात करना चाहेंगे जो वास्तव में महिलाओं के नेतृत्व वाली, स्वतंत्र ग्रामीण मीडिया को सम्भव बनाने की कहानी है। और यह कहानी ऑस्कर के लिए चयनित कहानी से कहीं ज़्यादा पेचीदा, अहम और ज़रूरी है।

 

अंग्रेज़ी में यह प्रेस विज्ञप्ति पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

 

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