खबर लहरिया Blog आत्मनिर्भर बनने की सीढ़ियां चढ़ रहीं ग्रामीण महिलाएं

आत्मनिर्भर बनने की सीढ़ियां चढ़ रहीं ग्रामीण महिलाएं

इन महिलाओं ने रोज़गार के छोटे-छोटे ज़रिए ढूंढ निकाले हैं जिसकी मदद से यह घर के कामों को करने के साथ-साथ परिवार की आर्थिक रूप से भी सहायता कर रही हैं।

उत्तर प्रदेश को वैसे तो भारत का वो राज्य माना जाता है जहाँ संस्कृति और कला कूट कूट कर भरी है। लेकिन इसके साथ यूपी महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा और महिलाओं की सुरक्षा में पीछे रहने के लिए भी महशूर है। लेकिन इस बीच प्रदेश की कुछ महिलाएं अपने घर की कठिन परिस्थितियों को सुधारने के लिए समाज की रूढ़िवादी सोच को चुनौती दे रही हैं और वो अपने पैरों पर खड़ी होकर अपना घर चला रही हैं । इन महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि अगर आपके अंदर कुछ कर दिखाने की लगन हो तो आप लोगों की सोच को हराकर जग जीत सकते हैं। इन महिलाओं ने रोज़गार के छोटे-छोटे ज़रिए ढूंढ निकाले हैं जिसकी मदद से यह घर के कामों को करने के साथ-साथ परिवार की आर्थिक रूप से भी सहायता कर रही हैं।

आज हम आपको ऐसी ही कुछ महिलाओं की सफलता की कहानी बताने जा रहे हैं, जो न ही सिर्फ आज अपने पैरों पर खड़ी हैं बल्कि देश की हर महिला के लिए एक मिसाल हैं।

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दुग्ध उत्पादन कर चला रहीं अपना घर-

बांदा जिले की ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक तौर पर सशक्त बनाने के लिए वैसे तो कई योजनाओं का संचालन किया जा रहा है, लेकिन इनमें से एक ऐसी योजना है, जिससे अबतक कई महिलाओं को फायदा हो चुका है। महिलाओं की आए बढ़ाने और दूध रोजगार को भी नया रूप देने के लिए बुंदेलखंड में काम कर रही बालनी दूध उत्पादन डेयरी की सहायता से एन आर एल एम समूह की महिलाएं जुड़ी हैं, और वो दूध बेचने का व्यापार कर रही हैं।

एन.आर.एल.एम यानी राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत गठित स्वयं सहायता समूह द्वारा विभिन्न व्यवसायिक गतिविधियों के जरिए महिलाओं के आर्थिक रूप से स्वालंबन के लिए काम किया जा रहा है, मौजूदा समय में बांदा जिले में 6000 से अधिक समूह गठित हो चुके हैं। इसके साथ ही बुंदेलखंड पशुपालन के क्षेत्र में पहले से ही बहुत ही आगे था लेकिन अब महिलाओं के दूध उत्पादन से जुड़ने के बाद बांदा की महिलाओं ने रोज़गार का नया ज़रिया पा लिया है।

जब हमने इस बारे में गुढा कलां गाँव की महिलाओं से बात की जो विभिन्न स्वयं सहायता समूह के साथ जुड़ी हुई हैं, तो उन्होंने हमें बताया कि वो लोग पशु पालन करके दूध बेचती हैं और अपने साथ-साथ गाँव की और भी महिलाओं को इस समूह से जुड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। इन महिलाओं का कहना है कि डेयरी में दूध बेचकर उनकी अच्छी-खासी आमदनी हो जाती है। लेकिन उनका मानना है कि इस काम के लिए अभी भी पुरुष ही आगे आते हैं, ऐसे में ज़रूरी है कि महिलाएं अपने स्वावलंबन के लिए खड़ी हों और वो भी दुग्ध उत्पादन का काम करें।

दूध डेयरी के कर्मचारियों का कहना है कि अबतक बांदा ज़िले के 60 गाँव की महिलाएं स्वयं सहायता समूह की मदद से रोज़गार का लाभ उठा चुकी हैं। लेकिन हमारे देश के सामजिक ढाँचे और प्रथाओं के चलते अभी तो दुग्ध उत्पादन के लिए ज़्यादातर पुरुष ही आगे आते हैं लेकिन उनकी पूरी कोशिश है कि महिलाएं खुद इस काम को करने के लिए आगे आएं।

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स्वयं सहायता समूहों की मदद से महिलाओं को मिल रही अपने पैरों पर खड़े होने की आज़ादी-

जैसा कि हम सब जानते हैं कि समाज में बदलाव तभी आएगा जब महिलाओं को अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा, और इसका सबसे बड़ा उदाहरण पेश कर रही हैं चित्रकूट जिले के पंडरी गाँव की महिलाएं। पंडरी गांव की कुछ महिलाएं भी पूजा आजीविका स्वयं सहायता समूह से जुड़कर ऐसा काम कर रही हैं जिससे महिलाओं को रोजगार मिलने के साथ ही आत्मनिर्भर बनने के रास्ते भी निकल रहे हैं।

ये महिलाएं घर पर ही फिनायल, हार्पिक और विम लिक्विड बना रही हैं और आज आत्मनिर्भर हैं। इन महिलाओं के पास पहले ऐसा कोई साधन नहीं था जिनसे इन्हें कुछ आमदनी हो सके और इनका घर चल सके। मजबूरन इन्हें मजदूरी और छोटे-मोटे कामों पर निर्भर रहना पड़ता था। अगर किसी महिला को पैसों की जरूरत पड़ जाए तो उन्हें अपने पतियों का मुंह भी ताकना पड़ता था। लेकिन अब इस काम से शायद ये नए सपने देख पाएंगी और अपने सपनों को पूरा भी कर सकेंगी।

गावों में सबसे बड़ी समस्या रोजगार की होती है और जब बात महिलाओं की आती है तो कई सारे विकल्पों के दरवाजे तो अपने-आप बंद हो जाते हैं। मेहनत में यकीन रखने वाली इन महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए बस एक अवसर की तलाश थी। और अब ये महिलाएं वास्तव में बदलाव की नई कहानी लिख रही हैं।

इसी योजना के तहत हमने बात की पूर्णिमा से जो चित्रकूट जिले की कर्वी ब्लॉक के पड़री गांव की रहने वाली हैं। उन्होंने बताया 2018 से वो इस योजना से जुड़ी हुई हैं, उन्होंने बताया कि पहले वो कहीं आती जाती भी नहीं थी। सिर्फ 8वीं कक्षा तक पढ़ाई करने के चलते उन्हें रोज़गार एवं अन्य सुविधाओं के लिए आवाज़ उठाने में भी डर लगता था। लेकिन अब वो सभी अधिकारियों से बात कर लेती हैं, कहीं भी चली जाती हैं और उनका डर अब खत्म हो गया है। पूर्णिमा जैसी गाँव की अन्य महिलाएं भी आज अपने विचार दुनिया के सामने रखने में सक्षम हैं। ये महिलाएं समूह की महिलाओं के साथ उठती बैठती हैं, इन्हें रोज़ाना नयी जानकारी मिलती है और देश और दुनिया में हो रही हलचल के बारे में भी पता चलता है, जिससे इन्हें शिक्षा भी मिल रही है।

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ई-रिक्शा चलाकर बनीं अपने परिवार का सहारा-

वाराणसी की कंचन जैस्वाल की कहानी भी काफी प्रेरणादायक हैं, जहाँ समाज आज भी बेटियों को बोझ समझता है, वहीं कंचन आज अपने पूरे परिवार को अपने कन्धों पर लेकर चल रही हैं। कंचन कोरोना लॉकडाउन से पहले एक स्कूल में बनी कैंटीन में काम करती थीं लेकिन पिछले साल लॉकडाउन लगने के बाद स्कूल के साथ-साथ उनकी कैंटीन भी बंद हो गई और उनका रोज़गार का जरिया ठप्प हो गया।

इस दौरान उनके परिवार की स्थिति इतनी कमज़ोर हो गई कि उनके पास अपनी माँ की दवाई और घर का किराया देने के भी पैसे नहीं थी। पहले तो एक-दो लोगों ने उन्हें कुछ पैसों से आर्थिक मदद करी लेकिन ये मदद भी सिर्फ कुछ ही दिनों की थी। कई महीनों आर्थिक रूप से परेशान रहने के बाद कंचन ने बिना किसी झिझक के ई-रिकशा चलाने की ठानी और अपने परिवार का सहारा बनी। आज कंचन पूरे शहर में महिला ई-रिक्शा चालक और अपने मनोबल के लिए जानी जा रही हैं।

अभी भी कंचन के घर की आर्थिक स्थिति में पहले जैसे सुधार तो नहीं आए हैं, उन्हें प्रतिदिन 100 रूपए रिक्शे का किराया देना पड़ता है और घर के खर्चे भी निकालने पड़ते हैं। लेकिन अभी भी उनके दृणसंकल्प में कमी नहीं आई है और उन्हें बस इसी बात की ख़ुशी है कि वो अपने पैरों पर खड़ी हैं।

ये महिलाएं हमारे लिए एक मिसाल हैं। गाँव में रहकर भी न सिर्फ आज ये महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी हैं बल्कि बराबर से घर में आर्थिक योगदान भी दे रही हैं। हम सभी को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और सीखना चाहिए कि जीवन में चुनौतियाँ तो हज़ार आएंगी लेकिन उनको हराकर उम्मीद के दरवाज़े खोलना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है।

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