‘कजलिया’ प्रकृति, प्रेम और खुशहाली से जुड़ा हुआ त्यौहार है। इसे राखी के दूसरे दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का प्रचलन कई सदियों से चला आ रहा है। इसे ‘भुजलिया’ या ‘भुजरिया’ के नाम से भी जाना जाता है। बुज़ुर्गो के मुताबिक यह पर्व फसल की उन्नति का प्रतिक है। कजलिया का पर्व नागपंचमी से शुरू होता है और रक्षा बंधन के अगले दिन इसको तालाब में बहाकर इसका समापन किया जाता है। यह पूरे 9 दिन का पर्व होता है।
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बुंदेलखंड के बाँदा और महोबा जिले में इस पर्व को बड़े उल्लास से मनाया जाता है। इस 9 दिवसीय पर्व में नागपंचमी के अगले दिन मिट्टी तालाब के पास से खोद कर लायी जाती है और उसमें गेहूं और जौ के बीज डाले जाते हैं। इन पौधों की खूब देखभाल भी की जाती है। फिर इन पौधों को औरतें रक्षाबंधन के अगले दिन तालाब के पास लेकर जाती हैं। इससे सम्बंधित गीत गाती हैं। इसके बाद इन पौधों को तालाब में विसर्जित कर देती हैं।
इस साल कजलिया 3 अगस्त को बाँदा और चित्रकूट में मनाया गया। वहीं महोबा में यह त्यौहार 5 अगस्त को मनाया जाएगा।
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‘कजलिया’ त्यौहार का इतिहास
‘कजलिया’ त्यौहार का इतिहास बहुत ही रोमांचक है। प्रचलित कथाओं के अनुसार महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता की गाथाएं आज भी बुंदेलखंड में सुनी व समझी जाती है। बताया जाता है कि राजा परमाल की बेटी राजकुमारी चन्द्रावली का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर हमला किया था। राजकुमारी को बचाने के लिए इन सिंह सपूतों ने वीरता से राजा पृथ्वीराज का सामना किया था।
इस लड़ाई में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। वहीं लड़ाई में राजा परमाल के बेटे रंजीत भी शहीद हुए थे। लेकिन उन्होंने बड़ी बहादुरी से इस लड़ाई में पृथ्वीराज की सेना को हराने में जीत हासिल की थी। यह प्रथा इतनी प्रचलित हुई कि इसको मनाने की ख़ुशी में कजलिया का पर्व पूरे बुंदेलखंड में मनाया जाता है। इसे ‘विजयोत्सव‘ के रूप में भी मनाया जाता है।
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