खबर लहरिया Blog पुरुष दिवस : पुरुषों का सामाजिक चित्रण, पुरुष होने की वास्तविकता नहीं

पुरुष दिवस : पुरुषों का सामाजिक चित्रण, पुरुष होने की वास्तविकता नहीं

आज 19 नवंबर 2020 अंतराष्ट्रीय पुरुष दिवस के मौके पर हम आपको पुरुषों के उन रूपों से रूबरू करवाएंगे, जिनके बारे में हम बहुत कम बात करते हैं या बिलकुल भी नहीं करते। जब भी हम पुरुषों या लड़कों के बारे में सोचते हैं तो हम आमतौर पर ताकतवर, पहाड़ की तरह मज़बूत, जो किसी से नहीं डरता, जो मुश्किल समय में भी नहीं घबराता आदि चीज़ों के बारें में सोचते हुए उनकी छवि बनाते हैं।

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लेकिन हमने कभी अपने दिमाग में भावुक पुरुष, विनम्र या डरेसहमे पुरुष की तस्वीर नहीं बनाई या ये कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि हमने ख्यालों में भी नहीं सोचा कि पुरुष की ऐसी भी कोई तस्वीर हो सकती है या वह ऐसा भी हो सकता है।

जिस तरह से हम महिलाओं के प्रति उत्पीड़न और मानसिक स्वास्थ्य की बात करते हैं, वैसे ही हमें पुरुषों की मानसिक स्थिति को भी समझने की ज़रूरत है।अंतराष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाने के पीछे भी यही वजह है कि हम उनकी भी परेशानियों, स्वास्थ्य को समझते हुए लैंगिक समानता को बढ़ावा दें।

क्या कहती है रिपोर्ट ?

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राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार 100 आत्महत्याओं में 70.2 प्रतिशत पुरुष होते हैं। जिनमें से 68.4 प्रतिशत पुरुष शादीशुदा होते हैं।  साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं से ज़्यादा पुरुष परेशानियों और अवसाद की वजह से आत्महत्या करते हैं। इनमे कई ऐसे पुरुष होते हैं जो अपनी भावनाएं किसी से साँझा ना कर पाने की वजह से हमेशा परेशान रहते हैं और आत्महत्या कर लेते हैं। कोई अपने पारिवारिक वजहों से परेशान रहते है और समाज द्वारा सिखाई गयी धारणा की वजह से कुछ कह नहीं पाते। 

पुरुषों को लेकर धारणाएं 

हमारे समाज में पुरुषों को लेकर बहुत सी बातें कही जाती हैं, जैसेमर्द को दर्द नहीं होता“, “लड़कों को रोना नहीं चाहिए“, “लड़के ताकतवर होते हैंआदि। इन वाक्यों ने कभी पुरुषों को खुलकर खुद को सामने रखने का मौका ही नहीं दिया। हर बात पर यह कहना, अरे! तुम आदमी होकर रोते हो। क्या पुरुषों को अपनी भावनाएं ज़ाहिर नहीं करनीं चाहिए ? जन्म से परिवार द्वारा लड़को को यह सिखाया जाता है कि उसे ही बड़े होकर घर को संभालना है, वही परिवार के कुल का दीपक है। उसे ताकतवर बनना है ताकि वह अपने परिवार और अपनी बहनों की रक्षा कर सके। 

 

सामाजिक दबाव और धारणाओं की वजह से पुरुष चाहकर भी अपनी बात नहीं कह पाता। जब हम समानता की बात करते हैं तो कई बार हम उसमें पुरुषों को शामिल करना भूल जाते हैं। समाज स्त्री और पुरुष, दोनों के मेलजोल से ही चलता है। लेकिन यह सोचना कि पुरुषों को क्या ही समस्या होती होगी और उनके मानसिक स्वास्थ्य के बारे में ना सोचना कितना सही है ? एक बात यह भी है कि जब कभी पुरुष, महिला के कामों में हाथ बंटाता है या उसकी बात मानता है तो लोगों द्वारा पुरुष को जोरू का गुलामकहकर सम्बोधित किया जाता है। कितनी अजीब बात है ना, एक तरफ समाज पुरूषों पर आरोप लगाता है कि वह महिलाओं का साथ नहीं देते और साथ देने पर उन्हें ताना भी मारा जाता है। 

आपने सावित्री बाई फुले के बारे में तो सुना ही होगा। वह छुआछूत,सति प्रथा, विधवा विवाह आदि कुरीतियों के खिलाफ खड़ी हुई थीं। 9 साल की उम्र में ही 13 साल के ज्योतिराव फुले से उनकी शादी हो गयी थी। लेकिन कुरीतियों के खिलाफ लड़ने का जज़्बा उन्हें कहाँ से मिला ? उनके पति ज्योतिराव फुले से। ज्योतिराव फुले ने अपनी पत्नी यानी सावित्री बाई फुले को समाज के विरुद्ध जाकर पढ़ाया। दोनों ने मिलकर समाज की रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़ा। एक समाज तभी आगे बढ़ता है जब पुरुष और स्त्री एक समान, एक स्तर पर साथ मिलकर कोई भी कार्य करते हैं। जिस तरह से स्त्री जननी है तो पुरुष जन्मदाता है। 

फिर समाज में पुरुषों को हमेशा गलत ही समझना कितना सही है ? हमेशा उन्हें अपनी धारणाओं की वजह से तोलना और उनके प्रति स्वयं ही विचार बना लेना। पुरुष में माता की ही तरह ममत्व और भावनाएं भरी होती हैं लेकिन पुरुषों के लिए समाज द्वारा किया गया चित्रण, शायद हमें पितृसत्ता से आगे कुछ सोचने ही नहीं देता। जब तक हम पुरुषों को पुराने तथ्यों के आधार पर चित्रित करते रहेंगे, हम उनकी भावनाओं और उन्हें कभी समझ नहीं पाएंगे। हमें सामाजिक नज़रिये से हटकर सोचने और समझने की ज़रुरत है। आखिर कब तक हम महिलाओं और पुरुषों को चित्रित करते रहेंगे कि कौन कैसा होना चाहिए?