खबर लहरिया Blog कैसे बचेगी पृथ्वी : भारत व बुंदेलखंड परिपेक्ष्य – ‘मैं भी पत्रकार सीरीज़’

कैसे बचेगी पृथ्वी : भारत व बुंदेलखंड परिपेक्ष्य – ‘मैं भी पत्रकार सीरीज़’

पृथ्वी को अगर आग का गोला कहें तो शायद यह गलत नहीं होगा। गर्म होते वातावरण, बढ़ते प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग को देखते हुए लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए सरकार द्वारा काफी दिवस मनाये जाते हैं पर वह सिर्फ कैलेंडर की तारीख तक ही सिमटकर रह जाते हैं जबकि इन दिवसों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत हैं।

वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग (भूमंडलीय ऊष्मीकरण), बढ़ते वायु प्रदूषण से सूरज की ओज़ोन परतों में बड़े छिद्रों, वर्तमान हाईवे- एक्सप्रेस वे, बड़े बांधों, वार्षिक कागजी पौधरोपण के विकास मॉडल पर सिर्फ मंथन करते नज़र आते हैं। पृथ्वी के निर्माण से लेकर आज तक जो कुछ भी मनुष्य ने रचनात्मक किया या अपनी ज़रूरत के हिसाब से धरती में रचा और उस अविष्कार को एक आकार देकर यहां बसाया या फिर विज्ञान की कसौटी पर परखकर उसे दुनियाभर में परोसा, उससे तो यकीकन एशियाई और पश्चिमी देशों ने पृथ्वी का भला तो नहीं किया है। कार्बन उत्सर्जन की होड़ में ताकतवर मुल्कों की आपसी प्रतिस्पर्धा,हथियारों की भुखमरी, प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार कब्जे की नियत ने आज इस बहस को दोयम कर दिया है कि आदमी की धरती में रहने की बुनियादी आवश्यकता क्या है ?

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वहीं यह भी बड़ी असमंजस की स्थिति हैं कि अब भविष्य में आदमी के अस्तित्व अर्थात प्रकृति के पंच तत्वों पर मंडराते संकट को सतही रूप से कैसे बचाया जा सकता हैं। हाड़-मांस के शरीर में जो कुछ भी है वह पृथ्वी से ही उत्पन्न हुआ है। आखिर में इसी पृथ्वी (प्रकृति संरचना ) में मिल जाना है।

पूरी दुनिया में अपनी क्षमतानुसार वैज्ञानिक दृष्टिकोण होते हुए भी प्राकृतिक पारिस्थिकी तंत्र को नष्ट करने की जंग चल रही हैं। जहां यह संर्घष कम प्रभावी हैं उन विकासशील देशों मसलन भारत यहां बेतरतीब चौतरफा अमेरिका, चीन,जापान,रसिया बन जाने की जुमलेबाजी राजनीतिक नज़र से समाज को प्राकृतिक विनाशकारी परियोजना की तरफ आकर्षित कर रही हैं। सारे जैव विविधता पूर्ण संसाधन से संपन्न भारत के वे राज्य जो जंगलों,नदियों,पहाड़ो और दूसरे खनिज साधन का गर्भगृह हैं उन्हें बहुत तेज़ी से खोखला करने की कोशिश की जा रही है । जनता द्वारा निर्वाचित पांच साल की सरकार जिसे यदि निर्वाचित राजसत्ता कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। उनकी नीति और ज़मीन पर हर प्राकृतिक ताने-बाने को तोड़ने की लालसा ने आज जंगलात व नदियों से लदे राज्यों का एक दुःखद चेहरा दे रखा है।

बात छत्तीसगढ़ की हो तो यहां अम्बानी-अडानी का कोयला खदानों से लेकर जंगल पर निर्भर दूसरी परियोजनाओं की ठेकेदारी में सरकार की कृपा से विकास के नाम पर सीधा दखल और इससे पीड़ित हजारों आदिवासियों,गरीब मेहनतकश किसानों, जंगलों के मूल निवासियों का वजूद ताक पर रखकर उन्हें विस्थापन की मांद में धकेलना क्या पृथ्वी को बचाना कहा जाएगा?

यही झारखंड राज्य की बदनसीबी हैं। जल जंगल ज़मीन बचाने की जद्दोजहद में आदिवासियों के आंदोलन, किसानों की करुण पुकार यह साबित करती हैं सरकार पृथ्वी को कंक्रीट के विकास मॉडल में अनियोजित तरीके से झोंकना चाहती हैं क्योंकि उसके हाथ देश के मुट्ठीभर उद्योग पतियों ने बांध दिए हैं। वह सरकार को प्रभावित कर सकते है। उनकी पार्टियों का करोड़ों रुपये फंड प्रत्यक्ष या परोक्ष स्रोतों से बन्द करा सकते है। पृथ्वी तपाने की श्रृंखला में जल जंगल ज़मीन ( नदी, पहाड़, जंगल) की टेंडर ( ठेकेदारी प्रथा ) धरती से जुड़े प्रत्येक घटक को आमूल चूल रूप से अस्थिर करेगी जो जैवकीय तंत्र अर्थात ईको सिस्टम अर्थात मानव के स्थाई व प्राकृतिक विकास में बड़ी बाधा पैदा कर रहा है। इसके उलट विध्यांचल बुंदेलखंड में ताबड़तोड़ नदियों के उत्खनन से उनका वजूद खतरे में है।

बुंदेली नदियां नदीखोर रसूखदार ठेकेदारों की चपेट में आकर अवैध खनन से पूरी तरह तबाह हो रही हैं। यह तब हैं जबकि केंद्र व राज्य सरकार की जल व सिंचाई बांध परियोजना इन्हीं मृत नदियों पर आश्रित हैं। केन बेतवा नदी गठजोड़, हर घर नल जल परियोजना, अर्जुन बांध परियोजना,पाठा पेयजल योजना व दूसरी लंबित / भविष्यगत सिंचाई परियोजनाओं के साथ पहले से बनी बांध परियोजना में पानी उपलब्ध करवाने की चुनौती का भयावह होते जाना।

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वहीं दूसरी तरफ वनविभाग का सालाना पौधरोपण खेल जिसने अब तक इतने लाख पौधे बीते तीन दशक में रोपित किये है कि उनका तीन चौथाई पौधा भी जंगल बना होता तो हर बुन्देली के आंगन में जंगल होता। इसके बावजूद भी भ्रष्टाचार थमा नहीं है। पृथ्वी ( नदी,पहाड़ जंगल ) सहेजने को तत्पर सामाजिक कार्यकर्ता व पर्यावरण पैरोकार आज खुद की जमापूंजी से उच्च न्यायालय में जनहित याचिकाओं के सहारे गुहार कर रहे है लेकिन पृथ्वी के भक्षकों को तनिक भी शर्म नहीं हैं। उधर बुंदेलखंड में राजस्व रिकॉर्ड के मुताबिक 2069 तालाबों का खत्म होना जलसंकट का बड़ा कारण हैं जो पृथ्वी की शीतलता / नमीयुक्त वातावरण में प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।

पुराने तालाबों को संरक्षित करने के कानून ग्राउंड पर बेमानी हैं। सरकार की तालाब पर कब्जे हटाने,भूजल प्रदूषण दूर करने,नदी में सीवरेज रोकने को लेकर एनजीटी के सख्त आदेश व राज्य सरकार की जिलाधिकारी के नेतृत्व में गठित पूर्व समिति आज निष्क्रिय हो चुकी हैं। वर्षा जल को अपने गर्भ में रखकर तालाबों द्वारा पृथ्वी की सेवाभावना को आज समाज ने समझना बन्द कर दिया है। यह महज सेमिनार, डिबेट,कुछ जलप्रहरियों का व्यक्तित्व निखारने या उन्हें सरकार के सम्मान तक पहुंचाने का सुलभ रस्ता हैं। जलसंरक्षण का धरती पर एहसान करते हुए अपना पोर्टफोलियो मेंटेन करना यही विसंगतियों युवाओं को इनकी तरफ समग्रता से खींचने में नाकाम हैं जो वास्तव में होना चाहिए था। हैरानी नहीं कि अब तो कुछ आईएएस भी इस खेल को समझ चुके हैं और आत्ममुग्ध होकर जलसंरक्षण के ऐसे झुनझुने बजाते हैं जो उन्हें नीति आयोग,जलशक्ति मंत्रालय में प्रचारित करें। वे सम्मानित हो और फिर उनकी किताब लिखी जाए…..डायनामिक फला…. फला…..फला।

मीडिया इसका बहुत बड़ा टूलकिट हैं क्योंकि खबरों का बाज़ार कहता है रचनात्मक खबर करें। वह नहीं जो धरातल पर सत्यता को परखती हो और समस्या गायन से अधिक सामुदायिक रूप में उसका समाधान करवाने में सहपूरक, सहकारक,सहगामी,सहचर व सहयोगियों की कतार खड़ी करने वाली साबित हो सके।

सवाल यह भी क्या नदी और तालाब आरतियों से बचेंगे ? या उनमें सीवरेज की रोकथाम कर उनके मृत जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने से जिंदा होगीं ? यदि पिछले अस्सी साल में हर डीएम ने एक तालाब,एक नदी भी तकनीकी व प्राकृतिक तरीके से समाज को साथ लेकर बचाई होती तो अब तक देश की सभी नदियां खुशहाल होती। यही मसला तालाब पर भी लागू होता हैं। विडंबना है कि ब्यूरोक्रेसी सरकारी आदेश अनुपालित करवाने का रिकॉर्ड मजबूत करती रहती हैं और समाज जो ज़मीन सरकारी हैं वो ज़मीन हमारी हैं कि परिभाषा में अपने अवैध मंसूबों को पूरा करने में लगा देते है,रहें है।

देश की लाखों जल राशियों का सूख जाना पृथ्वी के आग होते जाने का सबब हैं। लाखों पेड़ों का कटते जाना जंगलों के विनाश की इबारत हैं। हजारों पहाड़ो का खंडहर होना भूगर्भीय जल का दफन होना है। बेदम नदियों में जगह- जगह क्रूरता से मौरम,बालू का जेसीबी,लिफ्टर,पोकलैंड मशीनों से खनन होना पृथ्वी के बंजर होने की कडुवी दास्तान हैं। यह जब माकूल तरीके से रुकेगा तभी पृथ्वी भारतीय परिप्रेक्ष्य में बचेगी। मनुष्यों में धरती के लिए स्नेह व मित्रवत व्यवहार का बरगद सुकून की कहानी लिख सकेगा।

( यह लेख बुंदेलखंड से आशीष सागर दीक्षित द्वारा लिखा और खबर लहरिया की सीरीज़ ‘मैं भी पत्रकार’ के तहत चयनित हुआ है।)

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नमस्ते। मेरा नाम आशीष सागर दीक्षित है। मैं उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड ज़िला बाँदा का रहने वाला हूँ। महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्विद्यालय से समाजकार्य में परास्नातक हूँ। सितंबर वर्ष 2009 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय में युवा उद्यमी के पद पर कार्यरत नौकरी छोड़कर विगत 12 वर्ष से पर्यावरण और जनसरोकार के मुद्दे पर संघर्षरत रहकर कार्य करता हूँ। प्रेस ट्रस्ट आफ बुंदेलखंड का फाउंडर सदस्य व www.ashishsagarptb.com वेबसाइट का संचालक हूँ।

“मैं यूपी बुंदेलखंड के बाँदा का मूल निवासी हूँ। इस नाते बुन्देली भाषा में शुरूआती दिनों से कॉम्पेक्ट आकार में खबर लहरिया अखबार पढ़ता रहा हूँ। तब यह कुछ क्षेत्र तक सीमित था। फिर यह अपनी कर्मठता से आगे बढ़ता गया और लीग से हटकर हाशिये पर खड़े समुदाय की खबरें लिखने-पढ़ने का सशक्त माध्यम बन गया।

मैं खबर लहरिया को पिछले 18 वर्षों से फॉलो कर रहा हूं। खबर लहरिया आधी आबादी ( नारी चेतना व उनकी आवाज़ ) को मुखरता से उठाने वाला आज बड़ा डिजीटल प्लेटफार्म हैं जो कम वैकल्पिक मीडिया मंच कर रहे हैं।

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