रामनामी समुदाय छत्तीसगढ़ के ऐसे समुदाय से आते हैं जिनके द्वारा पूरे शरीर पर राम का नाम गोदना से लिखवाया जाता है। यह समुदाय मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ में रहते है।
लेखन – रचना
छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जहाँ कई प्रकार की अलग-अलग जनजातियाँ हैं और उनके अलग-अलग संस्कृतियाँ और धरोहर भी हैं जिनकी परम्पराएँ लोगों को सुनने और देखने को मजबूर कर देती हैं। वर्तमान समय में कुछ अनोखी जनजातियाँ और उनकी वास्तविक कहानियाँ विलुप्त होती जा रहीं हैं या फिर उनकी जनसंख्या घटती जा रही है। जिसमें से एक हैं “रामनामी समुदाय” जो अपने पूरे शरीर पर राम नाम का गोदना (टैटू) करवाने के नाम से जाने जाते हैं। छत्तीसगढ़ में इन्हें “रमरम्हीया समाज” के नाम से भी जानते हैं। पूरे शरीर में राम नाम के गोदना के साथ वे अपने निराकार भक्ति के नाम से भी प्रचलित हैं। यमदास रामनामी कहते हैं “रामनामी संप्रदाय एक वर्ण एवं जाति विहीन समुदाय है जिसमें कोई गुरु शिष्य नहीं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है। कोई मूर्ती, मंदिर, देवी-देवता, कर्म कांड नहीं है। हमारे समाज में सब बराबर है” ये शब्द किसी फिल्म या नाटक का नहीं है ये शब्द छत्तीसगढ़ में स्थित जांजगीर-चांपा, रामनामी समुदाय के किसान और राम भक्त यमदास का कहना है।
वैसे तो राम नाम पर सियासी रोटियां खूब सेंकी जाती हैं लेकिन इन सब से अलग छत्तीसगढ़ में एक ऐसा समुदाय है जिन्होंने बिना कोई मूर्ति पूजा किए राम को अपने तन और मन में बसा कर निराकार भक्ति में लीन कर लिया है। अब इस समुदाय के लिए राम सिर्फ नाम नहीं बल्कि उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। रामनामी संप्रदाय के पांच प्रमुख प्रतीक हैं शरीर के हर अंग पर राम का नाम, शरीर पर रामनामी चादर, मोर पंख की पगड़ी और सिर पर घुंघरू इन रामनामी लोगों की पहचान मानी जाती है।
राम-राम का यह गोदना उनके सिर से लेकर पैर तक शरीर के हर हिस्से में स्थाई रूप से गुदवाया जाता है जिसमें महिलाएँ, पुरुष और बुजुर्ग सभी शामिल हैं। इस गांव में सुबह के अभिवादन से लेकर हर काम के साथ राम का नाम लिया जाता है। यह समुदाय राम की मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखता है। अपने हर निर्गुण स्वरुप के अराधना के सुंदर भजन हैं जिनमें रामचरित मानस की चौपाइयां शामिल हैं।कण कण में राम के होने की बातें कही जाती हैं इसलिए तीन सबसे बड़े निर्गुण आंदोलन मध्य भारत में हुए और इसका केंद्र छत्तीसगढ़ राज्य रहा था। इस आंदोलन की खास बात यह रही कि इस आंदोलन में उस समाज से अधिक लोग जुड़े जो अछूत माने जाते थे। यह छत्तीसगढ़ का एक ऐसा समुदाय है जिनके समाज का नींव जात-पात, ऊंच-नीच के विरोध में रखी गई है।
इस संप्रदाय को मानने वाले मुख्यतः रायगढ़, जांजगीर-चांपा, बिलासपुर तथा अन्य जिलों में महानदी के किनारे बसे गांवों में रहते हैं। कुछ लोग ओडिशा तथा महाराष्ट्र के सीमावर्ती गांवों में भी निवास करते हैं। प्रीति कुर्रे बताती हैं कि पिछले सौ सालों से हर साल महानदी के किनारे तीन दिन का भजन मेला जागरूकता के लिए इस समुदाय द्वारा आयोजित किया जाता है। इस मेले में एक सफ़ेद खम्भा होता है जिसमें मेले के दौरान सफ़ेद रंग का ध्वज उस खम्भें पर लगाया जाता है जिस पर राम-राम का नाम लिखा होता है। इसके साथ वाद्ययंत्र लेकर भजन गायन किया जाता है। सफ़ेद रंग इस लिए क्योंकि सफ़ेद रंग शांति का प्रतीक है,
यहां से हुई थी रामनामी समुदाय की शुरूआत
कबीरपंथ और सतनामी समाज की स्थापना के आसपास ही कहा जाता है कि अछूत कह कर मंदिर में प्रवेश करने से मना करने पर परशुराम नामक युवा (रामनामी समुदाय के संस्थापक) ने 19वीं शताब्दी में माथे पर राम-राम गुदवा कर इस रामनामी संप्रदाय की शुरुआत की। बीबीसी के एक रिपोर्ट के अनुसार राम का नाम लेने के कारण उनके पूर्वजों को अदालत तक के चक्कर लगाने पड़े। आरोप था उनके द्वारा राम का नाम लेने से, राम का नाम अपवित्र हो रहा है। फिर रायपुर के सेशन जज ने अंततः 12 अक्टूबर 1912 को फ़ैसला सुनाया कि ‘राम’ नाम किसी विशेष समूह की संपत्ति नहीं हो सकता, राम के नाम पर सबका अधिकार है। ऐसे में उन्हें अपने धार्मिक कामों से रोका नहीं जा सकता। इसके अलावा रामनामियों के मेले में सुरक्षा व्यवस्था के भी निर्देश बाद में जारी किए गए। इन्हीं सब कारणों से और आस्था से इस समुदाय ने अपने पूरे शरीर पर राम नाम का स्थाई गोदना करवाना शुरू किया। राम नाम के कपड़े पहनने लगे और इस समुदाय के लोगों के बीच राम नाम का टैटू गुदवाना एक परंपरा और संस्कृति बन गई। इस समुदाय के लोग इस मनुष्य रूपी शरीर को ही अपना मंदिर मानते हैं।
यमदास रामनामी कहते हैं “कितने लोग राम के मानने वाले हैं लेकिन हम सिर्फ़ मूर्ति पूजा में आश्रित नहीं रहते हैं। हमने तन में और कण-कण में राम को बसाया है। एक समय में हमारे समाज को अछूत माना जाता था इस लिए हमारा मानना है कि हमारे समाज में किसी भी तरह की भेद-भाव नहीं होगी। कोई ऊँच नीच या बंधन नहीं होगा। कोई मूर्ति पूजा नहीं, कोई लिंगभेद नहीं हमारे समाज में सब एक बराबर हैं”
गोदना के अलग अलग नाम
रामनामियों के पूरे शरीर पर बने गोदने का अलग-अलग नाम भी रखा गया है। प्रीति कुर्रे बताती हैं कि जो लोग माथे पर रामनाम गुदवाते हैं, उन्हें ‘सर्वांग रामनामी’ कहा जाता है। वहीं अगर कोई पूरे शरीर पर राम नाम गुदवाते हैं उन्हें ‘नखशिख’ कहा जाता है। इनमें से कई लोग एक हजार राम का नाम लिखवाते हैं कई लोग 108 और कई लोग सिर्फ़ माथे पर ताकि रामनामियों का पहचान दिख पाए और उनकी ये परम्परा भी चलती रहे। चईती एक 40 साल की महिला हैं, बताती हैं कि उनके मायके में ये गोदना का नियम नहीं है लेकिन जब उसकी शादी हुई और एक रामनामी समुदाय में आना हुआ तो उन्हें भी राम नाम का एक गोदना करवाना पड़ा। इस समुदाय में बिना मर्ज़ी किसी को पूरे शरीर पर गोदना करवाने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता लेकिन ये उस समुदाय की परम्परा है इसलिए राम का एक नाम अपने शरीर पर कराया ही जाता है लेकिन जो पुराने लोग हैं वे अपने आस्था में आज भी अपने पूरे शरीर पर गोदना करवाने में जरा भी झिझक नहीं रखते हैं। ऐसे लोग अब अपनी आयु के 70 से 80 वें वर्ष में हैं।
राम नाम नौकरी में बाधा और परम्परा विलुप्त होने का कारण
समय के अनुसार कई परंपराओं में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। वैसे ही रामनामियों में भी पूरे शरीर पर गोदना कराने की परंपरा धीरे-धीरे कम होती जा रही है। पूरे शरीर पर गोदना करवाने में लगभग एक महीने का समय लग जाता है। नई पीढ़ी नए युवा मेले और भजन में तो शामिल हो जाते हैं लेकिन गोदना नहीं कराना चाहते हैं क्योंकि रोजगार एक बड़ा कारण बन चुका है। वर्तमान में हर कोई नौकरी की तलाश में है और अगर किसी को सरकारी नौकरी करना है तो उसके लिए गोदने का निशान होने से चयनित नहीं हो पता है। इसके अलावा भी युवा काम के लिए बाहर जाते हैं और ऐसे गोदना भरे शरीर में काम कर पाना मुश्किल हो जाता है। वे इसी भय से अपने शरीर पर टैटू नहीं गुदवाना चाहते कि लोग उनका मजाक उड़ायेंगे और उन्हें ‘पिछड़ा’ कहेंगे और इसके कारण उन्हें काम भी नहीं मिलेगा। इसी वजह से अब कम ही लोग बचे हैं जिनके पूरे शरीर में राम नाम लिखा है और जो हैं वे भी सब बुजुर्ग हो गए हैं। ऐसे ही रामनामी समुदाय का यह संस्कृति, परम्पराएँ विलुप्त होती जा रही है। हालाँकि गोदना करवाने वाले और नहीं करवाने वाले में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। इस कारण इस समुदाय में आचरण की शुद्धता और राम-राम के प्रति श्रद्धा को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इन्हीं सब विचारों को नए पीढ़ियों तक पहुँचाने के उद्देश्य से अखिल भारतीय रामनामी सभा का गठन कर उसका पंजीयन कराया। अपने संस्कृति को बचाए रखने की यही सभा रामनियों की सामाजिक गतिविधियाँ और उनके बड़े भजन के लिए तीन दिवसीय भजन मेला का आयोजन कराया जाता है।
इस समुदाय की एक और ख़ास बात यह भी है कि जिसमें यमदास कहते हैं “उन्होंने एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश की है जो जाति, वर्ग तथा लिंगभेद से मुक्त हो। परशुराम ने कोई उत्तराधिकारी नहीं बनाया था। इसलिए इस संप्रदाय का संचालन चयनित पुरुषों तथा महिलाओं की एक स्थाई समिति करती है।”
वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र में कबीरपंथी संप्रदाय और सतनामी संप्रदाय का बहुत प्रभाव है। दामाखेड़ा नामक स्थान पर कबीरधाम की स्थापना भी की गयी है। अनेक गांवों में कबीर आश्रम हैं जो बात संत कबीर और सतनामी संप्रदाय पंद्रहवीं सदी में कह रहे थे, लगभग उसी बात को रामनामियों ने उन्नीसवीं सदी में आगे बढ़ाया है। सबसे पहले सतनामी ही रामनामी बने। सतनामी पंथ के प्रवर्तक गुरु घासीदास ने कहा “मनखे–मनखे एक बराबर। जिनके विचारों पर आज भी रामनामियाँ चल रहे हैं। इनका अपना कोई मंदिर नहीं है लेकिन इनका एक आश्रम है जहां महिला, पुरुष, बुजुर्ग सब मिलकर भजन करते हैं।
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