खबर लहरिया Blog लकड़ियों के सहारे चल रहा जीवन, जल रहा घर का चूल्हा

लकड़ियों के सहारे चल रहा जीवन, जल रहा घर का चूल्हा

ग्रामीण क्षेत्र विकासशील देश में आज भी कहीं पिछड़ा हुआ है। लकड़ियां आज भी उनके जीवन का अहम हिस्सा बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों तक न तो सुविधाओं की पहुँच है और न ही सरकार की योजनाओं की। रोज़गार और आय तो बस लकड़ियां बेचना है। इसी से जैसे-तैसे ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले परिवार अपना घर चलाते हैं।

                                                                                       जंगल से लकड़ियां लाती महिलाएं ( फोटो साभार – खबर लहरिया)

घर का चूल्हा भी लकड़ियों से ही जलता है। यूँ तो सरकार ने यह कहते हुए साल 2016 में उज्ज्वला योजना की शुरुआत की थी कि सभी बीपीएल और एपीएल परिवारों को सरकार द्वारा गैस सिलिंडर मुफ्त उपलब्ध कराया जाएगा। जिन परिवारों तक योजना की पहुँच हुई वह महंगे गैस सिलिंडर के दामों की वजह से कभी गैस सिलिंडर का इस्तेमाल ही नहीं कर पाए। गैस भरवाने के लिए न तो पैसे थे और न ही उतनी समर्थता।

ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों का जीवन आज भी लकड़ियों पर आश्रित है जहां अमूमन महिलाएं आपको लकड़ियों का गट्ठर लिए जंगल से निकलती हुई दिखाई देंगी।

खबर लहरिया ने जंगल से लकड़ी काटकर ले जाती महिलाएं, रोज़गार व उज्ज्वला योजना पर काफी रिपोर्टिंग की है। सब में एक चीज़ जो सामान्य लगी वह यह थी कि योजनाओं व रोज़गार के अवसर से ग्रामीण क्षेत्र सरकार के कई विकास के वादों के बाद भी काफी दूर खड़े हो रखे हैं। पिछड़े हुए कस्बे व मजरा तो विकास के नक्शे पर दिखाई तक नहीं देते या उनके बारे में ही किसी को कुछ पता ही नहीं होता।

ऐसे में पिछड़े क्षेत्रों के लिए लकड़ी ही उनका एकमात्र रोज़गार का ज़रिया व जीवन यापन का साधन नज़र आता है। जंगल उनका साथी, दोस्त होता है।

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लकड़ियां, रोज़गार व भोजन

              गैस महंगा होने की वजह से चूल्हे पर खाना बनाती हुई महिला ( फोटो साभार – खबर लहरिया )

चित्रकूट जिले के लोरी ग्राम पंचायत की रानी बताती हैं, “हम सुबह घर का सारा काम पूरा करके, तीन-चार किलोमीटर जंगल लकड़ी लेने जाते हैं और शाम को 4 बजे लौटते हैं। तब जाकर एक हफ्ते के लिए लकड़ियां इकट्ठी होती हैं। हमारे पास पैसा नहीं है कि गैस भरा ले। गैस का दाम भी साढ़े ग्यारह सौ है। हम लोग जो हैं गरीब हैं, मज़बूर हैं। वह लोग आसानी से गैस भराकर प्रयोग कर सकते हैं, खाना बना सकते हैं मगर गैस को हम सिर्फ देख सकते हैं। कई महिलाएं तो चूल्हे को बोरी में बंद करके रख दी हैं।

यह बोरी में ही रखे सही लगती है। हमारे को एक बार मिली थी तो भरवाए थे। दूसरे बार में पति कहने लगा कि गैस सिलिंडर को भरवाने के लिए बजट नहीं है। बच्चे को पढ़ाना-लिखना है। खुद का खर्च भी देखना है।”

पन्ना जिले के कल्यानपुण में रहने वाली महिलाओं ने बताया कि बेरोज़गारी इतनी ज़्यादा है कि भरण-पोषण के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। आज कल मज़दूरी नहीं लगती इसलिए लोग जंगलों में जाकर लकड़ियां काटकर लाते हैं। उन लकड़ियों के गट्ठे बनाकर बेचते हैं। लकड़ियां 100-50 रूपये में बिक जाती है जिससे वह अपने बच्चों का भरण-पोषण करते हैं।

लकड़ियां, ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के लिए उनकी जीविका का हिस्सा बन चुकी हैं जो उन्होंने खुद नहीं अपनाया है बल्कि उन्हें उसे मज़बूरी में अपनाना पड़ा जिनके ज़िम्मेदार कहीं न कहीं पिछड़े क्षेत्रों में योजनाओं की पहुँच, विकास, रोज़गार के अवसर प्रदान करने वाले अधिकारी व प्रशासन हैं।

इस खबर की रिपोर्टिंग अलीमासहोद्रा द्वारा की गयी है। 

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