खबर लहरिया औरतें काम पर स्वयं सहायता समूह की मदद से बचत कर रही महिलाएँ

स्वयं सहायता समूह की मदद से बचत कर रही महिलाएँ

ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं स्वयं सहायता समूह में जुड़कर बढ़ चढ़ कर बचत करने का प्रयाश करती हैं। खुद अपनी और अपनी सहेलियों को जोड़कर बचत करने के लिए प्रेरित करती हैं। घर से पाई पाई रुपये जोड़कर एक समूह में इकट्ठा करती हैं फिर उसका बचत भी करती हैं। इस बचत से वह खुद अपने लिए कितना कर पाती हैं और अगर नहीं कर पाती तो क्यों? महिलाओं के नाम सरकारी योजनाओं का उद्घाटन तो होता है लेकिन मिलता कितना हैं।

महिलाएं ही क्यों बचत करें? क्या पुरुष भी कर पाते हैं पैसों की बचत और उनको महिलाओं की बचत पर कितना भरोसा है जैसे तमाम सवालों को जानने के लिए हम मिले स्वयं सहायता समूह में काम करने वाली महिलाओं से। इंटरव्यू के माध्यम से जाना कि यह काम कितना लाभदायक है। इस पर महिलाओं ने खुलकर बोला, तो चलिए और सुनिए कि उन्होंने क्या कहा। बांदा जिले के डिंगवाही गांव की दो ऐसी महिलाओं से मुलाकात हुई जो समूह की सदस्य हैं। बिंदी पत्नी प्रभुदयाल अनुसूचित जाति से हैं।

इनकी उम्र 47 साल की है और इनको पढ़ने का मौका नहीं मिला। तीन लड़का दो लड़कियों में से ढंग की पढ़ाई किसी ने नहीं की। एक लड़की और एक लड़के की शादी हो चुकी है। उनके पति ही हैं जो दिल्ली में रहकर मजदूरी करते हैं तो घर खर्च किसी तरह से चल रहा है। पांच बीघे खेती तो है लेकिन पैदावारी बहुत कम होती है। जब पति की मजदूरी नहीं लगी तो घर खर्च के लिए कर्ज भी लेना पड़ता है। कई बार पड़ोसियों और रिश्तेदारों से कर्ज लेना पड़ा है। उनके पास गहनों में कील, बाले, पायल और बिछिया हैं जिनको रोज के पहनने में इस्तेमाल करती हैं।

इतना है भी नहीं कि वह उसको बेचकर या गिरवी रखकर खर्च चला सकें। सरकार के पैसे से उनको डर लगता है इसलिए उन्होने कभी भी बैंक से लोन नहीं लिया। गरीबी हालत ने उनको स्वयं सहायता समूह से जोड़ दिया। एक साल पहले ही वह समूह से जुड़ी हैं पचास रुपये महीने की क़िस्त आठ बार जमा कर चुकी हैं। जैसे ही इस पैसे की जमा तारीख आती है तो सोचना पड़ता है कि कैसे व्यवस्था होगी। किसी भी हाल में घर से या कर्ज लेकर जमा ही करना पड़ता है। चौबीस वर्षीय नीता डिंगवाही गांव की रहने वाली हैं।

वह अनुसूचित जाति से हैं। खेती नहीं है उनके नाम और न ही उनके जेवर हैं कि अपने दो छोटे बच्चों के भविष्य की अच्छी प्लानिंग कर सकें। पति हर रोज गांव से करीब पन्द्रह किलोमीटर दूर बांदा शहर मजदूरी करने आते हैं। जरूरी नहीं कि रोज मजदूरी मिल ही जाए तो वापस होना पड़ जाता है। भविष्य में बच्चों की पढ़ाई और पालन पोषण के लिए समूह से जुड़ गई। हर महीने 50 रुपये जमा करती हैं। बहुत मुश्किल से हो पाता है इन पैसों का जुगाड़। सरकारी योजनाओं में से सिर्फ राशनकार्ड है जिसमें राशन मिल जाता है।

बांदा शहर से लगभग बारह किलोमीटर दूर नरैनी जाने वाले रोड पर बसा है बांधा पुरवा गांव। यहां की रहने वाली पचपन वर्षीय मुन्नी बताती हैं कि वह अनुसूचित जाति से हैं। उनके समूह का नाम निरंकारी महिला स्वयं सहायता समूह है। वह इस समूह की अध्यक्ष है। पढ़ाई तो नहीं कि लेकिन थोड़ा थोड़ा लिख पढ़ लेती हैं और अभी भी पढ़ने के लिए लालायित हैं। वह बहुत मेहनती हैं लेकिन पति ने आजतक पैसे कमाने का काम नहीं किया चाहे वह किसानी ही क्यों न हो। उन्होंने अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ जो कि अब सभी शादीशुदा हैं उनको लेकर ईंट पठाई का काम किया।

उसी में लगभग पांच विसुवा रहने के लिए जमीन खरीदी। कच्चे घर बनाये और अब एक पक्का भी बन रहा है। करीब चार तोला सोना और दो किलो चांदी खरीदी थी। घर में ट्रैक्टर लाने के लिए वह भी बेंच दी। अब थोड़ा ही बचा है जिसको पहने रहती हैं। पांच बीघे खेती है उसमें गेंहू चावल और अरहर हो जाती है। वह पांच साल से स्वयं सहायता समूह से जुड़ी हैं। मिलकर समूह का संचालन करती हैं। उनको समूह से जुड़कर लाभ मिला है। कई बार वह लोन ले चुकी हैं घर के बड़े खर्च चलाने के लिए और फिर चुका भी दी हैं।

कोषाध्यक्ष विद्या के पति वृन्दावन का कहना है कि वह इस समूह और पत्नी की बचत पर भरोसा करते हैं। उनकी दो बहुये भी इस समूह में काम करती हैं। कई बार उन्होंने पैसा लिया है फिर उसको भर दिया है। इन समूहों में पुरोइशों को जगह नहीं मिलती वरना वह भी काम करें। समूह में नहीं जुड़े लेकिन समूह से संबंधित काम अपनी पत्नी और बहुओं के सहयोग के रूप में करते हैं। उनकी उम्र पचपन साल है और राजनीति शास्त्र से परास्नातक की डिग्री हासिल किए हैं। इसलिए समूह से जुड़ना और जोड़ना महिलाओं के लिए बहुत फायदेमंद है।

भले ही उनको इस छोटी बचत को जुगाड़ने में मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान होना पड़ता हो लेकिन भविष्य में आने वाली आर्थिक परेशानी का समाधान इन बचत समूहों में भी शामिल है।