खबर लहरिया Blog वाराणसी: महिलाओं ने आत्मनिर्भर बनने के लिए ढूंढें नए रोज़गार

वाराणसी: महिलाओं ने आत्मनिर्भर बनने के लिए ढूंढें नए रोज़गार

पहले यह माला 6-7 रूपए में बिकती थी लेकिन अब ये लोग इसे 8 रूपए में बेचते हैं। इस रोज़गार की मदद से अब उन्हें किसी के सामने हाँथ नहीं फैलाने पड़ते और इन लोगों का समय भी इसी बहाने कट जाता है।

garland of flowers

उत्तर प्रदेश के ज़िला वाराणसी के डोमरी गाँव में महिलाओं ने रोज़गार के नए ज़रिए ढूंढ निकाले हैं। जहाँ एक तरफ देखा जाए तो देश के युवा रोज़गार के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं वहीं ग्रामीण क्षेत्र की इन महिलाओं ने ये साबित कर दिया है कि अगर दृढ़संकल्प हो तो क्या कुछ नहीं हो सकता।

इसी गाँव की रहने वाली शांति का कहना है कि वो और उनके गाँव की अन्य महिलाएं पिछले 7 से 8 सालों से गुजराती माला बना रही हैं और इस रोजगार की सहायता से वो अपने घर की आर्थिक स्थिति में योगदान दे पा रही हैं। उन्होंने बताया कि पहले यह माला 6-7 रूपए में बिकती थी लेकिन अब ये लोग इसे 8 रूपए में बेचते हैं। इन महिलाओं का कहना है कि इस रोज़गार की मदद से अब उन्हें किसी के सामने हाँथ नहीं फैलाने पड़ते और इन लोगों का समय भी इसी बहाने कट जाता है।

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दिनभर में बना लेती हैं 10-15 महिलाएं-

महिलाओं का कहना है कि गुजराती माला बनाने में ज़्यादा मेहनत नहीं पड़ती और दिनभर में ये लोग 10-15 मालाएं बना लेती , जिससे इनकी रोज़ाना 200-300 तक की कमाई हो जाती है। गाँव की कुछ महिलाएं बिंदी बनाने और गहने रखने वाले डिब्बे बनाने का भी रोज़गार कर रही हैं। इन छोटे-मोटे रोज़गारों से ये महिलाएं सशक्तिकरण की सीढ़ियां चढ़ रही हैं।

डुमरी गाँव की शीला भी अपने आप को बहुत खुशनसीब मानती हैं कि महंगाई और महामारी के इस दौर में उनके पास कमाने का एक स्त्रोत है। शीला का कहना है कि अब गाँव की महिलाओं को घर खर्च एवं अन्य निजी ज़रूरतों के लिए अपने पति या पुरुषों पर नहीं निर्भर रहना पड़ता। ये महिलाएं खेतों में फसल काटने का भी काम करती हैं और महीने में 3-4 हज़ार रूपए कमा लेती हैं।

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बच्चे भी इस रोज़गार में बढ़ चढ़ कर लेते हैं भाग-

गाँव के बच्चे भी महिलाओं के साथ इन्हीं कामों में व्यस्त रहते हैं। महिलाओं ने बताया कि स्कूल से आने के बाद इधर-उधर घूमने के बजाय बच्चे भी अपने परिवार की महिलाओं का इन कामों में हाँथ बटाते हैं।

गाँव के कुछ बच्चे ऐसे भी थे जिन्होंने अब आर्थिक तंगी एवं अन्य कारणवश पढ़ाई पूरी तरह से छोड़ दी है। इसी गाँव के संजू का कहना है कि अब जब स्कूल भी नहीं जाना होता तो दिनभर कुछ करने को नहीं होता। ऐसे में इन बच्चों ने सोचा कि परिवार का हाँथ ही बटा देना चाहिए। माला और अन्य चीज़ें बनाने का काम कर रहे इन बच्चों को भी उनके घरवाले कुछ पैसे देते हैं जिससे वो भी अपने निजी खर्चे निकाल सकें।

गाँव के बच्चों ने बताया कि सभी बच्चे मिलकर जमा किए गए अपने पैसों से कपड़े, चप्पल इत्यादि खरीद लेते हैं और ऐसा करके वो अपने परिवार के पैसे बचा लेते हैं। इसी रोज़गार में व्यस्त गाँव की किशोरियों का कहना है कि ये काम करके कमाए गए पैसे कई बार उनकी कोचिंग की फीस भरने और किताबें खरीदने में भी काम आ जाते हैं और वो अपनी पढ़ाई का बोझ अपने परिवार पर नहीं डालती हैं। भले ही इस काम से उतनी आमदनी नहीं होती है लेकिन ये लोग इसी रोज़गार की सहायता से स्वावलंबी बन रहे हैं और एक नए उजाले की ओर छोटे-छोटे कदम बढ़ा रहे हैं।

वाराणसी की ये महिलाएं हम सबके लिए मिसाल हैं कि कैसे एक छोटा सा रोज़गार उनके लिए वरदान बन चुका है। हम सभी को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और सीखना चाहिए कि जीवन में चुनौतियाँ तो हज़ार आएंगी लेकिन उनको हराकर उम्मीद के दरवाज़े खोलना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है।

इस खबर की रिपोर्टिंग सुशीला द्वारा की गयी है।

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