महिलाओं द्वारा किये जाने वाले दैनिक कार्यों को अमूमन छोटा या कम आंका जाता है जबकि देखा जाए तो अगर यह छोटे कहे जाने वाले काम महिलायें न करें तो व्यक्ति का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। सिर्फ कहने को तो लोग कह देते हैं कि कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता लेकिन अपने ही घरों में वह उन कामों को छोटा कहते दिखते हैं जो घर की महिलाएं करती हैं।
ग्रामीण महिलाएं सुबह उठते ही दैनिक क्रिया-कलापों में जुट जाती हैं और उनके काम का कोई अंत ही नहीं होता। इस फोटो सीरीज़ में हमने ग्रामीण महिलाओं के उन कामों की झलकियां दिखाने की कोशिश की है जिसे हम देखते तो हैं पर नज़र अंदाज कर देते हैं। उस पर सोचते तक नहीं। फोटो सीरीज़ देखिये और अपने विचारों को खंगालिए।
यह तस्वीर चित्रकूट जिले की है जहाँ आदिवासी महिलाएं जंगल से लकड़ी काटकर बेचने जाती हैं। इतिहास गवाह है कि बुंदेलखंड की महिलाओं ने कभी हार नहीं मानी, चाहे खेतों का काम हो या घर का। उन्होंने हर जगह अपना लोहा मनवाया है। ऐसा सुनने में आया है कि जंगल से लकड़िया काटते वक्त इन महिलाओं को कई हिंसक जानवरों से भी सामना होता है पर वह कहती हैं क्या करें यही उनकी रोज़ी-रोटी का जरिया है।
चित्रकूट का पाठा क्षेत्र और वहां के कोल आदिवासी समुदाय का एकमात्र रोज़गार जंगल से लकड़ी लाना और बेचकर घर खर्च का जुगाड़ करना जग ज़ाहिर है। कानपुर से इलाहाबाद (प्रयागराज) और झांसी से इलाहाबाद तक चलने वाली दो ट्रेनें हैं। इन ट्रेनों में सवार होकर आदिवासी महिलाएं और लड़कियां हर रोज जंगल जाती, लकड़ी लाती और फिर शहर जाकर बेचती आ रही हैं।
100 रूपये से ढाई या तीन सौ की प्रतिदिन की इनकी पूंजी होती और उस पैसे से अपने रसोई का खाने-पीने का समान जैसे दाल, चावल, आटा,सब्ज़ी, तेल, मसाला हर दिन के इस्तेमाल की चीजें लेकर आती हैं।
महिलाएं कभी घर में फ्री बैठ सकती हैं भला! वो भी जब आवंला और आम का सीज़न हो? नहीं न। घर के कामों से फ्री होकर वह आम व आंवलें का अचार बनाकर कर रख दें ताकि खाने का स्वाद बढ़ जाए। यह तस्वीर चित्रकूट जिले के प्रेम सिंह की बगिया में आवंला बीनती महिलाओं की है।
आज की महिलाएं पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। ऐसा कोई भी काम नहीं है जिसे महिलाएं न कर रही हों। पुरुष हल चला रहा है तो महिला बीज की बुवाई कर रही है। यह तस्वीर देखकर एक अलग तरह की सुःखद अनुभूति होती है।
महिलाएं अक्सर खेतों में काम करते दिख जाएंगी लेकिन क्या उनके नाम ज़मीन होती है? इसकी बात कोई नहीं करता। अगर सर्वे किया जाए तो मुश्किल ही होगा की महिलाओं के नाम ज़मीन होगी। सरसों ओसाती इस महिला की मुस्कान यह बयां नहीं होने देती। ऐसा लगता है बिना क्रेडिट ही सारा काम किये जा रही है।
अगर हम औज़ार उठाने की बात करें तो सबसे पहली छवि हमारे जहन में पुरुषों की ही आती है पर क्या ऐसा सोचना सही है? मनरेगा का काम जहाँ महिला और पुरुष दोनों करते हैं उसी दौरान यह तस्वीर हमारी रिपोर्टर ने क्लिक की है। महिलाएं कई वर्षों से उगी झाड़ियों को साफ़ करने में लगी हैं।
खेतों में मूंग तोड़ती यह तस्वीर बहुत प्यारी और आकर्षक लग रही है। अभी मूंग बुवाई का मौसम है और बारिश आते-आते इसकी तोड़ाई शुरू हो जाती है। तब महिलाएं पड़ोस की महिलाओं को मज़दूरी यानी पैसे देकर मूंग तोड़ने के लिए लेकर जाती हैं। मिल जुलकर हँसते-गुनगुनाते कब काम खत्म हो जाता है पता ही नहीं चलता।
यह है महिलाओं का संघर्ष और उनकी दिनचर्या से जुड़े घर के कामों के पीछे की झलक जिसमें अक्सर उन्हें दिखाया नहीं जाता और न ही उनका नाम होता है। महिलायें घर के अलावा भी बहुत कुछ करती हैं। हमने सोचा कि क्यों न महिलाओं की ऐसी तस्वीरों को साझा करें जो देखने में आकर्षक भी हो और लोगों के ऐसे शब्दों पर विराम लगाने के लिए काफी भी हों।
( यह फोटो लेख यूपी, अयोध्या से ललिता देवी द्वारा खबर लहरिया के 20 साल पूरे होने पर ‘मैं भी पत्रकार सीरीज़‘ के तहत चयनित किया गया है। )
“मैं खबर लहरिया से 2011 से जुड़ी हूँ जब पहली बार खबर लहरिया ने फैज़ाबाद जिले में अपना एडिशन निकालने के लिए सर्वे करने की पहल शुरू की थी।
खबर लहरिया ने 2012 में फैज़ाबाद में एडिशन शुरू करने के लिए वैकेंसी निकाली थी। मुझे एक संस्था के सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा यह बात पता चली। मैं अपने घर से दूर शहर कभी नहीं गई थी। खबर लहरिया में चयन होने के लिए मैंने भी फॉर्म भरा और उस दिन पहली बार मैं गांव से फैज़ाबाद प्रेस क्लब पहुंची। वहां मेरा सेलेक्शन भी हुआ।
खबर लहरिया के बारे में कम शब्दों में कह पाना असंभव है, बस इतना ही की खबर लहरिया से हमें एक नई उड़ान मिली है। नई जिंदगी और जिंदगी जीने का मकसद मिला है। खबर लहरिया दबी हुई महिलाओं के लिए एक बुलंद आवाज़ है, महिला सशक्तिकरण की मिशाल है। एक शब्द में बोले तो यह मेरे परिवार से बढ़कर भी है। खबर लहरिया से हमें खुद के पैरों पर खड़ा होकर आत्मसम्मान से जीने की आज़ादी मिली है।
बीस वर्ष पूरे होने पर बहुत-बहुत शुभकानाएं। खबर लहरिया अब विदेशों में अपना झंडा गाड़ चुकी है। आगे भी ऐसे ही वह देश के कोने-कोने तक अपनी पहुँच बनायें।”
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