खबर लहरिया Blog संघर्ष और चुनौती के बीच ‘आराम’ की तलाश करती महिलाएं 

संघर्ष और चुनौती के बीच ‘आराम’ की तलाश करती महिलाएं 

फुर्सत जिसे आसानी से ‘आराम’ का नाम दे दिया जा रहा है, वह ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को आसानी से नहीं मिल पाता या ये कहें कि महिलाओं के लिए यूँ तो कभी भी कुछ भी आसान नहीं रहा है। शहरों में इसकी स्थिति थोड़ी सुधरी है पर ग्रामीण स्तर पर सुधार नज़र नहीं आता। 

                                                                                        फोन पर वीडियो देख मनोरंजन करती हुई महिलाएं व बच्चें

‘आराम’ जो  व्यक्ति के शरीर व मन से जुड़ा हुआ है, उसको पाना भी महिलाओं के लिए चुनौती है, संघर्ष है। वह संघर्ष जो पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को दिया है। वहीं जब हम महिलाओं के आराम को ग्रामीण क्षेत्रों से जोड़ते हैं तो वहां पर पितृसत्तात्मक समाज के साथ-साथ स्थापित रूढ़िवादी विचारधाराएं जो सदियों से महिलाओं को दहलीज़ के पीछे रख उनके साथ हिंसा करती आई हैं, सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। 

फुर्सत जिसे आसानी से ‘आराम’ का नाम दे दिया जा रहा है, वह ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को आसानी से नहीं मिल पाता या ये कहें कि महिलाओं के लिए यूँ तो कभी भी कुछ भी आसान नहीं रहा है। शहरों में इसकी स्थिति थोड़ी सुधरी है पर ग्रामीण स्तर पर सुधार नज़र नहीं आता। 

सुरभि यादव (वीमेन एट लीज़र की क्रिएटर) ने महिलाओं के आराम को “एक नारीवादी समस्या” कहा। मैं इसे थोपा हुआ संघर्ष कहूंगी जो पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को दिया है। 

हम इसे थोड़ा और समझेंगे और सवाल पूछेंगे कि ग्रामीण स्तर पर महिलाओं के लिए आराम क्या है? वह इसे कैसे परिभाषित करती हैं? उनके सामने क्या चुनौतियाँ आती हैं? वह इसे कहां खोजती है? यह किसके पास कितना है इत्यादि चीज़ों के बारे में हम ग्रामीण महिलाओं से ही जानेंगे। 

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सामाजिक बंधन व महिलाएं 

“ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत काम होता है, औरतों के पास तो बिलकुल भी समय नहीं होता” – खबर लहरिया की रिपोर्टर शिव देवी ने कहा। ऐसे में महिलाओं के लिए खुद के लिए फुर्सत का समय तलाशने को संघर्ष न कहा जाए तो क्या कहें? 

एक तरफ पैतृक समाज द्वारा महिलाओं पर थोपी गयी सामजिक ज़िम्मेदारियां और दूसरी तरफ लिंग आधारित हिंसाएं। महिलाओं का जीवन ही चुनौती और संघर्ष बन गया है जहां उन्हें बिना लड़े कुछ भी खुद नहीं मिला। 

सामाजिक बंधन महिलाओं से उनकी आज़ादी, उनसे उनका समय छीनते हैं। शिव देवी कहती हैं, “देहात में लड़कियों को बाहर जाने, अपने लिए कुछ करने की आज़ादी नहीं है।”

इसी में अगर हम ग्रामीण क्षेत्र से संबंध रखने वाली कामकाजी महिला के संघर्ष की बात जोड़ें तो ‘महिला काम करती है’, बस यही बात समाज की नज़र तिरछी करने के लिए काफी होती है। वहीं अगर महिला देर रात तक आये तो समाज यह मौका ताना देने से कैसे छोड़ दे? समाज का यह तंज खुद में ही लिंगात्मक भेदभाव को दर्शाने के लिए काफी है। 

खबर लहरिया की रिपोर्टर सुनीता देवी ने कहा, “समाज हमेशा से महिलाओं को बदनाम करता आ रहा है – मेरी शादी से पहले जब में खबर लहरिया के प्रिंट अख़बार के लिए काम कर रही थी, कई बार मुझे काम की वजह से देर तक रुकना पड़ता था। गांव वाले और पड़ोसी अपने हिसाब से इस चीज़ पर अपनी धारणा बनाते और खुले तौर पर टिप्पणी कसते।“वह इतनी रात तक घर से बाहर क्यों रहती है?”

भेदभाव से भरा पितृसत्तामक समाज हमेशा से महिलाओं के लिए वह द्वंद्व रहा है जो आज 21वीं सदी में भी ज्यों का त्यों है। वह सदी जिसे बदलाव की घड़ी कहा जाता है। नए सफर का नया पन्ना कहा जाता है। 

ज़िम्मेदारियों का भार व खाली समय 

“जब तुम्हारे पास अपने लिए खाली समय होता है तो अन्य चीज़ें आपके दिमाग को भर देती हैं- घर में क्या है, क्या नहीं है? और ऐसे ही समय निकल जाता है और हम अपने साथ समय नहीं बिता पातें। जब तक पता चलता है तो रात हो चुकी होती है” – श्यामकली कहती हैं। 

समाज द्वारा थोपी गयी ज़िम्मेदारियों को महिलाओं पर इस तरह से डाल दिया गया है कि वह अपने खाली समय में खुद के लिए कुछ कर पाने में भी संघर्ष करती नज़र आती हैं। वह जब तक यह सोच पाती हैं तब तक समय निकल जाता है और वह फिर से सामाजिक बंधनों में उलझ कर रह जाती हैं। 

यह इस तरफ भी इशारा करता है कि सामाजिक कामों के बीच महिलाओं के पास खुद के लिए थोड़ा समय भी नहीं होता। सामाजिक ज़िम्मेदारियों को कभी न पूरा कर पाने पर कई बार वह खुद को अपराधी भी समझने लगती हैं जोकि समाज की सीख है और यह चीज़ उनके खुद के पास पहुँचने के संघर्ष के रास्ते को थोड़ा और दूर कर देता है, एक अन्य चुनौती की तरह। 

ग्रामीण महिलाओं के लिए मनोरंजन 

खबर लहरिया की एक रिपोर्ट में, पन्ना जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाएं मनोरंजन के साधन और समय को व्यापक करती हुई दिखाई दीं। हमने जब इन महिलाओं से उनके मनोरंजन के तरीके के बारे में पूछा तो एक महिला कहतीं, जब मनोरंजन करना होता है तो सभी महिलायें एक साथ बैठकर ढोलक बजाकर अपनी-अपनी पसंद के गीत गाती हैं। कोई एक-दूसरे के साथ मज़ाक-मस्ती करता है तो कोई सुख-दुःख की बातें बता कर अपना मन हल्का करता है। मनोरंजन भी हो जाता है और दिल हल्का भी।

                                                                                                           ढोलक व गीत-बजाकर मनोरंजन करती हुई महिला

गीता नाम की महिला कहती हैं, जब मनोरंजन करना होता है तो एक दिन पहले ही आस-पास की महिलाओं को बता दिया जाता है कि अगले दिन अपने कामों को जल्दी करके वह फ्री हो जाएं। फिर समय निकालकर किसी के घर पर ढोलक बजाकर, मधुर गीत गाकर अपना मनोरंजन करते हैं।

अगर महिलाओं के अन्य मनोरंजन के ज़रिये की बात करें तो त्यौहार व शादी का समय भी उनके लिए फुर्सत, दिल को हल्का करने का अवसर होता है। इससे याद आता है कि खबर लहरिया की रिपोर्टर सहोदरा ने कहा था,

“किसी और के घर में शादी होती है तो कोई काम भी नहीं होता। सब मिलते हैं, गप्पे मारते हैं। इधर-उधर की बातें करते हैं और उसमें हँसी-मज़ाक भी करते हैं। महिलायें इसमें खासतौर पर एक-दूसरे से मिलने के लिए आती हैं क्योंकि ऐसे उन्हें घर से बाहर निकलने का मौका नहीं मिल पाता तो ऐसे समय में महिला अपने आपको बहुत फ्री मानती हैं।”

एक चीज़ जो आज सबके मनोरंजन का साधन बनी हुई है यानी की सोशल मीडिया, इससे ग्रामीण क्षेत्र भी अछूता नहीं है। खबर लहरिया की रिपोर्टर श्यामकली ने बताया, ‘ खाली समय में मुझे फोन चलाना और ये देखना पसंद है कि देश-दुनिया में क्या चल रहा है।”

कॉन्टिनेंटलिस्ट की प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं द्वारा मनोरंजन के संदर्भ में स्मार्टफोन का इस्तेमाल दोस्तों से बातें करना, यूट्यूब पर वीडिओज़ देखना, सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करना, गाने सुनने के लिए किया जाता है। ( यह एक संयुक्त आंकड़ा है) 

मनोरंजन व आराम का ज़रिया इन महिलाओं ने ढूंढ़ लिया जो उन्हें मानसिक व शारीरिक दोनों तरह से कुछ समय के लिए खुशी से भर देता है। 

महिलाओं के लिए खाली समय और मनोरंजन 

केएल रिपोर्टर्स ने अपने मनोरंजन का समय निकालने को लेकर अलग-अलग बातें रखीं। सहोदरा ने कहा, “पूरे हफ्ते काम करते हैं और जब संडे आता है तो मैं जल्दी-जल्दी काम खत्म करती हूँ ताकि मुझे पूरा एक पहर मिल जाए। घर में लड़ाई-झगड़ा भी होता है। मैं घर में काम बांट दी हूँ कि तुम खुद अपना कपड़ा धोओ ताकि मैंने अपने लिए समय निकाल सकूँ।” 

“मैं संडे का समय अपने खुद के सजने-संवरने के लिए निकालती हूँ। अपने लिए समय निकालने पर ख़ुशी महसूस होती है, ऐसे दिमाग में परिवार और काम को लेकर हमेशा टेंशन चलती रहती है”

नाज़नी कहती हैं, “मैं अपने खाली समय में अपने बालों को रंगति हूँ और स्वादिष्ट खाना बनाती हूँ।” मैं बस एक दिन अपने बाल रंगने, यह सोचने में कि मुझे क्या पहनना है करने में बिताना चाहती हूँ कि लेकिन पिछले 6-7 महीने से मुझे बिलकुल भी समय नहीं मिला। 

“मुझे पूरे दिन सोना पंसद है” – अलीमा 

अन्य महिला ने कहा, “शॉपिंग करना और घूमना मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा लगता है।”

इन चीज़ों के बाद यह एहसास भी होता है कि एक सुकूं की नींद, खुद को देखना, अपने लिए खाली समय का इंतज़ार करना महिलाओं के दैनिक जीवन में कितना बड़ा संघर्ष हैं जिससे वह रोज़ लड़ रही हैं। 

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असुरक्षा और डर 

                                                                                          ट्रेन में सफर करती हुई महिला ( फोटो – संध्या/ खबर लहरिया)

“सिर्फ कहने को कहा जाता है कि महिलाएं सुरक्षित हैं, वह कहीं भी घूम सकती हैं लेकिन मेरे अनुसार महिलाएं सुरक्षित नहीं है” – श्यामकली 

“महिलाएं घर से या तो मार्केट के लिए बाहर निकलती हैं या फिर खेत के लिए। इसके आलावा वह बाहर नहीं निकलती हैं।”

इससे तो यही सामने आता है कि बाहरी जगहों पर भी महिलाओं को सुरक्षा की कमी की वजह से आराम महसूस नहीं कर पातीं। 

हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां हर दिन महिलाओं के साथ होती हिंसाओं को दर्ज़ किया जाता है, वहीं  ग्रामीण क्षेत्रों में हुए मामले तो दर्ज़ भी नहीं होते। 

साल 2018 की थॉमसन reuters फाउंडेशन सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, भारत व पाकिस्तान का नाम दुनिया के 10 ऐसे देशों में शामिल हैं जहां महिलाएं सबसे ज़्यादा असुरक्षित हैं। 

 घर से बाहर महिलाएं कहां खोजती है आराम? 

                                                                                    बस में सफर के दौरान आराम करती हुई महिला ( फोटो – संध्या/ केएल )

अन्य रिपोर्ट्स ने बाहरी सुरक्षित जगहों को लेकर कहा, “कुछ ऐसी जगहें हैं जहां महिलाएं बस टाइमिंग के हिसाब से सुरक्षित हैं। बाकी वहां पर भी कई बार खतरा हो जाता है।”

“अगर महिलाएं अपने आप में थोड़ी स्ट्रांग है तो वह खुद को रेलवे स्टेशन या बस स्टॉप पर सुरक्षित महसूस कर सकती हैं” – नाज़नी 

“आखिरी बार हमने जब वी मेट देखी थी, जब मॉल बंद हुआ तो हमारा एक मनोरंजन का जरिया भी छिन गया” – सुनीता 

“टीकमगढ़ में एक पार्क है जहां सिर्फ महिलाएं घूमने के लिए आती हैं लेकिन सब वह पार्क से बाहर निकलती हैं तो वहां कई लोग खड़े रहते हैं। ऐसे में भी सुरक्षा का सवाल रहता है” – रीना 

“मुझे बस सबसे सुरक्षित लगती है।” – शिव देवी 

अततः, यही देखा गया कि महिलाएं  बस, ट्रेन, रेलवे स्टेशन, पार्क इत्यादि जगहों पर अपना आराम खोजती हैं। यह सारी जगहें भीड़-भाड़ वाली है जो मस्तिष्क के पीछे की विचारधारा को दिखाती है, जो उन्हें यह एहसास कराती है कि भीड़ में वह सुरक्षित है, लेकिन यह कहने के बावजूद भी कि वह इन जगहों पर सुरक्षित महसूस कर रही हैं यह उनकी पूर्ण सुरक्षा वाला जवाब नहीं होता। 

महिला, पब्लिक ट्रांसपोर्ट व हिंसा 

श्यामकली कहती हैं, “अगर कहीं दूर जाना है तो अपनी गाड़ी होना सबसे सही होता है। लम्बे सफर के लिए मैं बस नहीं लेती। एक बार सफर के दौरान एक आदमी मेरे बगल में आकर बैठ गया और मुझे छूने लगा। इस बारे में पता होने के बावजूद भी हम कई बार कुछ नहीं कर पातें। तो मैंने बस अपनी सीट छोड़ दी और दूसरी सीट पर जाकर बैठ गयी। कई बार हम अपनी आवाज़ उठाते हैं और कई बार नहीं उठा पातें। 

वह आदमी फिर बस से उतर गया और मुझसे पूछने लगा, इतनी रात को तुम कहां जाओगी? मेरे साथ आओ, राम घाट के पास मेरा एक कमरा है। मैंने कहा, तुमसे मतलब मैं कहां जाउंगी? तुम सीधा अपना रास्ता देखो।” 

सभी महिलाओं ने अपने आराम, अपनी चुनौतियों को लेकर अलग-अलग बातें रखीं। वहीं जो बातें सामान्य थी, असुरक्षा, डर, हिंसा व समाज जो आज भी महिलाओं को खुलकर जीने नहीं दे रही है। यह आज भी उनकी चुनौती, उनका संघर्ष है जो थोपा हुआ है जिसका उन्होंने चयन नहीं किया है।  

 

ये आर्टिकल एक केंद्रित समूह चर्चा पर आधारित है जो कॉन्टिनेंटलिस्ट की डिजिटल स्टोरी के लिए आयोजित किया गया था। आप कॉन्टिनेंटलिस्ट की स्टोरी यहाँ पढ़ सकते हैं जो दक्षिण और दक्षिण -पूर्व एशिया में महिलाओं के आराम और खाली समय को नारीवादी नज़रिये से दर्शाता है। 

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