Women’s Land Rights: बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले ग्रामीण क्षेत्रों में घर के काम-काज से लेकर खेतों तक ज़्यादातर कामों की ज़िम्मेदारी महिलाओं के ही कंधों पर ही होती है। घर में हो या खेत-खलिहानों में काम करते हुए महिलाएं ही नजर आती हैं। इसके बाद भी उन्हें किसान होने का दर्जा नहीं मिलता। वो बस किसान की पत्नी के रूप में जानी जाती हैं या फिर किसका कि बेटी के नाम पर जानी जाती हैं। जबकि महिलाओं को ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है। इसके बावजूद भी महिलाओं को ज़्यादातर मजदूर ही समझा जाता है। बहुत ही कम घरों में ज़मीन की हिस्सेदारी में महिलाएं होती हैं। अगर होती भी हैं, तो जमीन के बहुत छोटे हिस्से पर।
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बांदा जिले से लगभग 40 किमी दूर नरैनी कस्बे के देविन नगर मोहल्ले में रहने वाली रीता विश्वकर्मा उम्र 35 साल बताती है,उनकी शादी एक किसान परिवार में हुई। शादी के कुछ सालों बाद लड़का ना होने के कारण पति ने दो छोटी बेटियों के साथ घर से कोविड के समय निकाल दिया। दोनों बेटियों कि जिम्मेदारी मेरे कंधे पर है।
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इतनी ज़्यादा मेहनत करने के बाद खेतों का मालिकाना हक पुरुषों के पास ही होता है। अगर कुछ गिनी-चुनी महिलाओं के पास ज़मीनी हक होता भी है,तो इसलिए क्योंकि उनके नाम करने से लिखी कम लगती है। इसलिए भी कुछ लोग करवा देते हैं, या फिर पति या पिता के मौत के बाद विरासत में महिलाएं आ जाती हैं, तो उनके नाम अपने से जमीन हो जाती है। यही कारण है कि महिलाएं ज़्यादा शोषण का शिकार होती है। उनके पास खुद का मालिकाना हक और वो पावर नहीं होता। ससुराल में वह पराई बेटी होती है और मायके में पराया धन इसलिए वह कहीं की हकदार नहीं हो पाती है। जबकि सरकार महिला और पुरुष, लड़के और लड़की सब में बराबर के हक की बात करती है। अगर जमीन पर महिलाओं का हक देखा जाए तो मुश्किल से 10 से 15 प्रतिशत ही होगा। जबकि ग्रामीण इलाकों में महिलाएं पुरुषों कि अपेक्षा ज्यादा घंटे काम करती हैं। उनको खेती किसानी के साथ-साथ घर और बच्चों की देखभाल भी करनी होती है।
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