खबर लहरिया Blog किसान अन्नदाता ही नहीं अन्नदात्री भी, फिर भी ज़मीन पर कोई अधिकार क्यों नहीं?

किसान अन्नदाता ही नहीं अन्नदात्री भी, फिर भी ज़मीन पर कोई अधिकार क्यों नहीं?

किसान देश का अन्नदाता होता है, जो पूरे देश का भरन-पोषण करता है। लेकिन किसान सिर्फ अन्नदाता ही नहीं अन्नदात्री भी होती है। हमने किसानों के बारे में तो बात की, मगर महिला किसानों के बारे में बात करना भूल गए। वैसे तो सरकार किसानों की मदद करने के बहुत से दांवे करती आयी है। उनके लिए सरकार ने कहने को तो प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री कृषि विकास योजना, ग्रामीण भंडारण योजना, महिला किसान सशक्तिकरण योजना, प्रधानमंत्री सम्मान निधि योजना आदि शुरू की है। पर लागू की गयी सारी योजनाएं, किये गए दांवो की तरह ही फ़ीकी है। 2018-19 के डाटा के अनुसार 70 प्रतिशत महिला किसान खेती करती है।

खबर लहरिया की चीफ रिपोर्टर मीरा देवी, द्वारा रिसर्च से अनुभूति सिंह और महिला किसान अधिकार मंच की सुलेखा सिंह ने महिला किसानों से जुड़ी समस्याओं के बारे में चर्चा की है। जिसकी पूरी खबर और वीडियो आप खबर लहरिया के वेबसाइट पर जाकर देख सकते हैं।

खेती का काम महिलाओं की ज़िम्मेदारी मानी जाती है पर अधिकार नहीं। जब खबर लहरिया की चीफ रिपोर्टर मीरा देवी ने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान महिला किसान से पूछा कि क्या कभी उन्हें नहीं लगता कि खेती की ज़मीन उनके नाम भी होनी चाहिए तो महिला किसान का कहना था कि ” जब घर में पति है , ससुर है तो मेरे नाम ज़मीन कैसे हो सकती है। इनके जाने के बाद बेटे के नाम हो जायेगी”। उनका कहना था कि उनके मन में कभी ख्याल ही नहीं आया कि ज़मीन उनके नाम पर भी होनी चाहिए।

किसानो से जुड़े सक्रीय संगठनों को भी योजनाओं की नहीं है जानकारी 

बुंदेलखंड में दो संगठन बहुत सक्रीय रूप से काम करते हैं। पहला, भारतीय किसान यूनियन और दूसरा बुंदेलखंड किसान यूनियन। जब  इन संगठनों से पूछा गया कि क्या उन्हें कभी लगा कि महिलाओं के नाम भी ज़मीन होनी चाहिए, तो उन्हें यह सवाल बहुत अटपटा लगा क्यूंकि उन्हें यह कभी ख्याल ही नहीं आया कि ऐसा भी कुछ होना चाहिए। जब संगठन में काम करने वाली महिलाओं से महिला किसानों के हेतु योजनाओ के बारे में पूछा गया, तो उन्हें भी किसी सरकारी योजना के बारे में नहीं पता था। यहां तक की संगठन के अधिकारी को भी योजनाओं की कोई जानकारी नहीं थी। मोबाइल पर गूगल करने के बाद उन्हें महिला सशक्तिकरण योजना के बारे में पता चला। की सिर्फ यही एक योजना है जो महिलाओं के लिए काम करती है।

महिला किसान और उनसे जुड़े सवाल

why farmers dont have rights on land ?

कभी सोचा है कि महिला किसान कौन होती हैं और उन्हें कैसे परिभाषित किया जाता है ? वह महिलाएं जो अपने ज़मीन पर खेती करती हैं, जो अपने पारिवारिक ज़मीन पर खेती करती हैं या जो किराये पर ली हुई ज़मीन पर खेती करती है, क्या उनके लिए कोई अलग शब्द या नाम इस्तेमाल किया जाता है ?

अगर हम महिलाओं के नज़रिये से देखें तो वह सारी महिलायें जो खेत में किसी भी तरह का काम करती है। चाहें वह बटाई का काम हो, खेत में मज़दूर के रूप में काम करना या पशुपालन करना आदि। यह सब चीज़े एक-दूसरे जुड़ी हुई हैं। उन सबकों को हम महिला किसान कहेंगे। 

महिला किसान अधिकार मंच की सुलेखा सिंह ने बताया कि जब पति कमाने के लिए बाहर जाता है , तो वह खेती की सारी ज़िम्मेदारी महिला पर छोड़ कर जाता है। लेकिन खेत उसके नाम नहीं करता। महिला को किसी भी तरह की मान्यता नहीं मिलती। सुलेखा सिंह का कहना है कि वह महिलाएं भी महिला किसान है जो मिट्टी के ढेर में से धान बिन कर घर लाती है और घंटों मेहनत करके धान को साफ़ करती है ताकि वह अपने परिवार का भरन- पोषण कर सके। 

वह अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं कि एक महिला किसान जिसके नाम पर उसकी ज़मीन है, वह बिना अपने बेटे की मंज़ूरी के बिना ज़मीन को नहीं बेच सकती। और यह चीज़ आज भी मौजूद है। तो यह कैसा अधिकार है , जब उसे ज़मीन बेचने के लिए मंज़ूरी लेने की ज़रुरत पड़ रही है ?

महिला किसानों का फसल बोने में कितना खर्चा होता है और उससे उनकी कितनी आय होती है ?

15 अक्टूबर महिला किसान दिवस के मौके पर खबर लहरिया की टीम ने इस पर खबर की थी जिसमे जब महिला किसान से उसकी लागत के बारे में पूछा गया तो उसका कहना था कि सात से दस हज़ार उन्हें खेती में लग जाते हैं। खेती करने के लिए उन्हें अपने गहनों को भी गिरवी रखना पड़ता है। कई बार उन्हें क़र्ज़ भी लेना पड़ता है क्यूंकि उनके पास खेती के लिए ज़रुरत के हिसाब से पैसे नहीं होते।  लेकिन जब फसल अच्छी नहीं होती तो उन पर क़र्ज़ और भी दोगुना हो जाता है। छोटे किसानों का उनकी फसल से खुद की ही बहुत मुश्किल से जीविका चलती है। ऐसे में उनकी आय बिलकुल भी नहीं होती और ऊपर से क़र्ज़ का भार आये दिन बढ़ता रहता है।

ज़मीन पर अधिकार को लेकर यह है महिला किसानों का कहना

जिला बाँदा, बल्लान और नौगवां गांव में लगभग 10 किसान महिलाओं से बात की गयी। जिनमें से सिर्फ तीन ही ऐसी महिलाएं थी, जिनके नाम पर खेती की ज़मीन थी। और वो भी सिर्फ इसी वजह से थी क्यूंकि उनके पिता या पति नहीं थे। नौगवां गांव की 53 वर्षीय आमना कहती है उनके पास पांच बीघा ज़मीन है। जिसमें से ढाई बीघा ज़मीन उनके पति के मरने के बाद उनके नाम हो गयी है और बाकी की ढाई बीघा ज़मीन उनकी सास के नाम पर है। वह रोपाई, बुआई, खेत आवंटन आदि सारे काम करती हैं। जब उनसे सरकारी योजना से मिलने वाले लाभों के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि उन्हें सरकार की किसी भी योजना का लाभ नहीं मिला है। उनका कहना है कि पैदावार अच्छी नहीं होती, जिसकी वजह से आजीविका चलाने में भी उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

12 से भी कम प्रतिशत महिलाओं के पास ज़मीनी अधिकार

जब खेती की ज़मीन पर अधिकार और नाम की बात आती है, तो उसमें कभी-भी महिलाएं शामिल नहीं होती। कभी सोचा है कि हमेशा पुरुषों के ही नाम खेती की ज़मीन क्यों होती है ? कभी पिता, फिर पति और बेटा, इनके बीच ही क्यों खेती की ज़मीन का अधिकार जाता है? वह अधिकार महिला किसानो को क्यों नहीं मिलता ? एक बात यह भी है कि महिला के नाम पर ज़मीन भी सिर्फ उसी वक़्त करवायी जाती है, जब उसका पति या पिता कोई नहीं होता। ऐसे में महिला के नाम पर ज़मीन की रजिस्ट्री कराने में छूट मिलती है। यह देखते हुए परिवार वाले महिला किसान के नाम पर ज़मीन करवाते है। खाद्य प्रबंधन द्वारा जारी किये गए आंकड़ों के अनुसार 12 प्रतिशत से भी कम महिला किसानों के नाम पर ज़मीन है। ऐसा कभी क्यों नहीं सोचा गया कि महिला किसानों को भी खेती की ज़मीन पर बराबर अधिकार दिया जाना चाहिए ? आखिर कब तक महिलाओं के काम को निस्वार्थ के काम के तराज़ू से तोला जायेगा।

किस समय महिला के नाम पर ज़मीन की जाती है ?

– चाटुकार लोग रजिस्टरी  के पैसे बचाने के लिए महिलाओं के नाम ज़मीन दर्ज़ करवाते हैं।  

– जिनके पास ज़्यादा सम्पत्ति है और उन्हें सरकार को अपनी सम्पत्ति का मानक पेश करना होता है। उस समय वह सरकार से अपनी अधिक सम्पत्ति छिपाने के लिए ज़मीन महिला के नाम कर देते हैं। 

– अगर पति,पिता या ससुर नहीं है , तब मज़बूरी में ज़मीन महिला के  नाम की जाती है।  

रजिस्टर किसानों को ही योजना का लाभ

अगर सरकार की तरफ से किसानों को मिलने वाले लाभों की बात की जाए तो वह लाभ सिर्फ उन किसानों को ही मिलता है , जिनकी रजिस्ट्री हो रखी है और जिनके नाम पर ज़मीन है। ज़मीन तो सिर्फ पुरुष किसानों के नाम पर है, तो सरकारी योजनाओं से महिला किसानों को कोई लाभ नहीं मिल पाता। जबकि वह अधिक मेहनत करती है। सिर्फ इसलिए क्यूंकि उनके नाम ज़मीन नहीं, उनसे उनके मेहनत से मिलना वाला अधिकार भी छीन लिया जाता है। खबर लहरिया कि चीफ रिपोर्टर मेरा देवी का कहना है कि जब किसान अपनी फसल सरकार को बेचता है तो वह पैसा आने में साल, दो साल लग जाते हैं। ऐसे में वह अपनी अगली फसल के लिए बीज भी नहीं खरीद पाता।

महिला किसान उधार कहाँ से लेती हैं ?

– स्वयं सहायक ग्रुप से लेती है, फिर उन पैसों को किश्तों में चुकाती हैं।  

– गहने गिरवी रखती हैं। 

– बैंक, फाइनांस कंपनियों से ऋण लेती हैं। 

महिला खेत के लिए ऋण लेती है और उसे चुकाती है। लेकिन जब खेत पर मान्यता की बात आती है तो कह दिया जाता है कि वह महिला किसान नहीं है। यह कहने वाले सबसे पहले उसके अपने परिवार के ही लोग होते हैं। फसल से आय न मिलने पर वह महिला किसान जो स्वयं घर चलाती है, परिवार के भरन-पोषण के लिए पशुपालन, दूध बेचना, मनरेगा का काम, किसी के घर में काम, मज़दूरी आदि कार्यों के ज़रिये अगली फसल के समय तक जीविका चलाती है।

पुरुषों के मुकाबले वेतन भत्ता कम मिलता है

4 जनवरी 2018 की गांव कनेक्श की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश, बहराइच के ब्लॉक रीसिया, गांव दूरा की रामा कहती हैं कि ‘मैं अपने खेत में काम तो करती हूं, अपने पति के साथ दूसरों के खेतों में भी मजदूरी करती हूं। मेरे पति को एक दिन का 250 और मुझे 200 रुपए मिलते हैं।आदमी लोग ज्यादा मेहनत करते हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा मजदूरी मिलती है’।

मध्यप्रदेश में भी पुरुषों को 127.59 रुपए और महिलाओं को 135.45 रुपए की मजदूरी मिलती है। ज़्यादा मेहनत व मज़दूरी करने के बाद भी उन्हें पुरूषों के समान वेतन नहीं मिलता। जबकि वे पुरुषों से अधिक परिश्रम करती हैं।

महिला किसानो के लिए कौन-सी  योजनाएं मददगार हैं ?

पहली बात तो यह है कि महिला किसानों को पता ही नहीं होता कि उनके लिए कोई योजना है। जिससे की उन्हें फायदा मिल सकता है। अगर हम महिला सशक्तिकरण योजना की बात करें तो इसका मतलब है महिलाओं को अलग-अलग पद पर नियुक्त करना है। उन्हें सशक्त बनाकर आत्मनिर्भर करना। जिसे की 2007 में लागू किया गया था। ये कैसा सश्क्तिकरण है जब महिला के पास खुद के नाम की ज़मीन का अधिकार ही नहीं है। 

दूसरी है प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना, जिसका फायदा कुछ किसानों को मिला है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत तीन किस्तों में साल में 6000 रूपये दिए जाते है, यानी तीन महीने में दो हज़ार रूपये। यह योजना भी महिला किसानों के लिए नहीं बल्कि सिर्फ किसानों के लिए हैं। अब यहां फिर से ज़मीन की मान्यता की बात आ जाती है। जब ज़मीन महिला के नाम ही नहीं तो यह योजना भी महिला किसानों के लिए किसी काम की नहीं है। दूसरी बात यह कि जिन्हे इस योजना से लाभ मिल रहा है उन्हें पैसों के लिए बार-बार बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं तब कहीं जाकर उन्हें पैसे मिलते हैं।

अगर योजनाओ और लाभों की पहुँच की बात की जाए, तो उन्ही किसानो को लाभ मिलता है जिनके पास पहुंच और साधन है। छोटे किसान अकसर पहुँच और साधन न होने की वजह से अछूते रह जाते हैं।

महिला किसान सरकार की किसी योजना के बिना भी आत्मनिर्भर है ,लेकिन उनके पास अधिकार नहीं है। कहते हैं कि अधिकार के साथ ज़िम्मेदारी आती पर, वह ज़िम्मेदारी तो कब से निभा रही हैं, पर उनके अधिकारों का क्या ? अगर मौजूदा योजनाएं सशक्त होती, तो शायद अभी तक महिला किसानों को उनका हक़ मिल गया होता। जो योजनाएं सालों से चल रही है, उनका क्या लाभ जब वह उस चीज़ के लिए काम ही नहीं कर रही जिसके लिए योजनाओ को लागू किया गया था। आखिर कब तक महिला किसान बेनाम रहेंगी। उन्हें कब वही अधिकार और समानता मिलेगी, जो एक पुरुष किसान को मिलती है।