21वीं सदी की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में कभी-कभार हमारी गति को एक ही चीज़ रोकती है, टूटी हुई चप्पल। कभी किसी ज़रूरी काम से आप बाहर निकलें हों और एकदम से आपकी चप्पल टूट जाए तो याद आते हैं मोची। हम तो उनके पास से अपने जूते चप्पल बनवा कर अपने सफर में आगे बढ़ जाते हैं लेकिन वो हमारे जैसे हमराहियों के इंतज़ार में गर्मी बरसात और जाड़े में दिनभर बैठे रह जाते हैं।
कोरोना काल के दौरान जब देशभर के लोग अपने-अपने घरों में थे तब ये मोची अपने ख़तम होते रोज़गार को लेकर चिंता में थे। लेकिन फिर अँधेरा छटा, लॉकडाउन हटा और मोचियों ने वापस से अपने काम में रफ़्तार पकड़ ली। वैसे इस काम को करते हुए ज़्यादातर आपने पुरुषों को ही देखा होगा, लेकिन आज हम आपको जिस मोची से मिलवाने वाले हैं वो न ही सिर्फ महिला हैं बल्कि इसी काम को करके अपने बच्चों के सपनों को साकार करने की कोशिश में लगी हुई हैं।
वाराणसी की काशीराम कॉलोनी में रहने वाली सीता हमें बताती हैं कि वो पिछले 30 साल से मोची का काम कर रही हैं। उनके पति ने उन्हें ये हुनर सिखाया और सीता ने इस हुनर को अपना पेशा बना लिया। सीता का कहना है कि इसी काम को करके वो अपनी दो बच्चियों को स्कूली शिक्षा दे रही हैं। मोची के काम के अलावा उनके पास रोज़गार का कोई दूसरा जरिया नहीं है। लेकिन वो अपने बच्चों को पढ़ाने और उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करने के सपने को लेकर तत्पर हैं। उन्हें उम्मीद है कि एक दिन उनकी बेटियां उनका नाम रौशन करेंगी।
सीता ने हमें बताया कि लॉकडाउन के दौरान उन्होंने कई तरह की आर्थिक परेशानियों का सामना किया लेकिन उन्हें भरोसा था कि अच्छे दिन वापस लौट कर आएँगे। सीता की अपने काम को लेकर ये लगन सराहने लायक है। वो अपने बच्चों के भविष्य को सुधारने के लिए सुबह से शाम अपनी दुकान पर बैठती हैं। और सबसे ख़ुशी की बात तो यह है कि जहाँ ग्रामीण इलाकों में आज भी लड़कियों की शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता है, वहीँ सीता मोची का काम करके अपनी दोनों बच्चियों की स्कूली शिक्षा का खर्च उठा रही हैं। हमारे समाज को सीता जैसी महिलाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए और महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उनका प्रोत्साहन करना चाहिए।
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