एक मज़दूर होना आसान नहीं होता और न आसान होता है रोज़ लड़कर पेट भरना और अगले दिन की कामना करना।
रोज़गार की तलाश लोगों को पलायन करने के लिए मज़बूर कर देती है। विस्थापन सिर्फ एक व्यक्ति का ही नहीं बल्कि पूरे परिवार, यहां तक कभी-कभी तो पूरा गांव ही रोज़गार हेतु पलायन कर जाता है। यूपी का बुंदेलखंड क्षेत्र इस मामले में सबसे आगे है। यहां के अधिकतर मज़दूर बेरोज़गारी की वजह से ईंट-भट्टों में काम के लिए जाते हैं। यूपी के अधिकतर जिलों में लोग ईंट-भट्टे में जाकर काम करते हैं।
खबर लहरिया की चीफ़ रिपोर्टर गीता देवी ने ईंट-भट्टों में काम करते मज़दूरों को काफ़ी करीब से देखा। रिसर्च और डॉक्यूमेंट्री के काम के लिए उन्हें अकसर भट्टों में जाना होता। हमारी रिपोर्टर ने भट्टों पर मौजूद मज़दूरों से बात की। उनसे उनके सफर को हमारी डॉक्यूमेंट्री के ज़रिये दिखाने को पूछा और उनके साथ की इज़ाज़त मांगी। कई लोगों को कहीं न कहीं यह तो पता था कि बहुत लोग मज़दूरी के लिए जाते हैं पर कहां जाते हैं, यह हमेशा सवाल रहता।
लोगों से मिलना-जुलना और बातचीत हुई। लोग भी खुश दिख रहे थे। हमारी रिपोर्टर भी भट्टे मज़दूरों के साथ निकल पड़ीं पर अब भी एक मुश्किल थी। वह यह कि भट्टे में वह पहुँच तो जाएंगे लेकिन अंदर जाना और मालिकों से मिलना, यह सब कैसे होगा। इसके लिए थोड़ी जद्दोजहद करनी पड़ी लेकिन फिर आखिर में इज़ाज़त मिल ही गयी।
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समस्यांए अभी खत्म नहीं हुई थीं। लोगों को कैमरे के सामने लाना आसान नहीं था। कई परिवारों से बात की गयी। बहुत से परिवार तैयार भी हो गए लेकिन जब शूटिंग का समय आया तो उन्होंने मना कर दिया। चीज़ें थोड़ी उलझ सी गयीं थीं। जब किसी चीज़ के लिए बहुत मेहनत की गयी हो और अंत में वह काम पूरा न हो, इसका एहसास किसी के लिए अच्छा नहीं होता। हमारी रिपोर्टर के लिए भी नहीं था। जब चीज़ें तय तरीके से नहीं हुई तो चीज़ों को करने का तरीका बदल दिया गया। अब डॉक्यूमेंट्री में उनके घर से भट्टे तक के सफ़र और उनकी परेशानियों को कैमरे के ज़रिये उजागर करने का उपाय निकाला गया। इस दौरान जो भी देखा, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो गए कि आखिर एक मज़दूर को पेट भरने के लिए न जाने कितनी ही मुश्किलों से गुज़रना पड़ता है।
अपने घरों से भट्टों की तरफ पलायन करने की तैयारी लोग एक हफ्ते पहले से ही शुरू कर देते हैं। आठ महीने के लिए गेहूं, आटा, दाल व कपड़े सब पैक कर वह लोग परिवार सहित मज़दूरी के लिए निकल जाते हैं। कहा जाए तो, वह अपनी पूरी गृहस्थी समेट कर रवाना होते हैं।
जिस दिन गाड़ी उन्हें लेने आती है उस दिन के लिए वह नाश्ता बनाकर रखते हैं। इस दौरान उनके चेहरे पर घर को छोड़ जाने का दर्द साफ़ तौर पर झलकता दिखाई देता है। हमारी रिपोर्टर ने देखा कि गाड़ी में सामान इतना भरा था कि बैठने की जगह नहीं थी। लोग भी ऐसे भरे थे जैसे भूसा ठूस कर भर दिया हो। ऐसे ही हमारी रिपोर्टर ने लोगों के साथ चार घंटे का सफर तय किया। रास्ता इतना खराब था कि हर जगह धूल उड़ रही थी। सांस लेना भी मुश्किल था। लोग इसी तरह से हरियाणा, पंजाब और राजस्थान तक ईंट पाथने के काम के लिए जाते हैं।
सरकार कहती तो है कि यूपी में लोगों के लिए रोज़गार उत्पन्न किया गया है पर कहां, बस यही दिखाई नहीं देता। शायद लोगों की ही गलती है, उनकी आँखे ही नहीं है क्षेत्र में रोज़गार देखने की, क्यों? क्षेत्र में रोज़गार के नाम पर बस एक मनरेगा योजना चल रही है जिसमें दिहाड़ी मज़दूर को 1 दिन का सिर्फ 204 रूपये मिलता है। आज की महंगाई में 204 रूपये में गुज़ारा हो सकता है क्या? अगर किसी के परिवार में आठ या दस लोग हैं तो इतने में सबका पेट कैसे भरेगा? लोगों को मुश्किल से 90 या 100 दिन का काम मिलता है। कभी-कभी वह भी नहीं मिलता। मिल गया तो मज़दूरी नहीं मिलती। बस इसी वजह से लोग मज़बूरन ईंट भट्टों में काम करने के लिए परिवार सहित निकल पड़ते हैं। परिवार में जितने लोग होते हैं, उसके अनुसार लोग मिल-जुलकर कम से कम हज़ार से 15 हज़ार रूपये तक कमा लेते हैं।
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जब मज़दूर भट्ठों में जाते हैं तो 15 दिनों तक वह अपने परिवार के साथ खुले आसमान के नीचे ही रहते हैं। इसका अनुभव मज़दूरों के साथ रहने के दौरान हमारी टीम ने भी किया। लोग जब भट्टे पर पहुंचे तो लोग अपना सारा सामान उतारकर वहीं ज़मीन पर बैठ गए क्यूंकि उन्हें रहने के लिए और कोई जगह नहीं दी गयी थी। मालिक द्वारा बस लोगों को फड़ (खेतों को चिकना कराकर देना ) बनाने के लिए दे दिया जाता है। फड़ बनाने में लोगों को 15 दिन का समय लग जाता है। तब तक वह बिना छत के ही रहते हैं। खेत सपाट हो जाने के बाद लोग उस जगह लकड़ी से झुग्गी बनाते हैं। बाद में मालिक द्वारा उन्हें टीन सेट दिया जाता है जिसका इस्तेमाल लोग झोपड़ी को ढकने के लिए करते हैं।
लोग काम शुरू करते हैं तो कम से कम चार से पांच हज़ार ईंट पाथते हैं फिर उसे सुखाते हैं। इसके बाद वह उन ईंटों से झुग्गी बनाते हैं और अपने परिवार सहित सर्दी हो या गर्मी, आठ महीनों तक उसमें गुज़ारा करते हैं। लोग सिर्फ 4 महीने के लिए ही अपने घर जाते हैं और इसके पीछे भी एक बहुत कारण रहता है। बरसात के दिनों में भट्ठों का काम बंद हो जाता है। लोग जितने दिन रहते हैं, काम करते हैं। हर 15 दिन में उन्हें खर्च के लिए पैसे मिलते हैं जिससे वह राशन, सब्ज़ी आदि चीज़ें खरीदते। जब 8 महीने बाद हिसाब होता तो खाने के खर्चे को काट-वाटकर जो पैसे बनते, वह उन पैसों को लेकर घर आते हैं। उन्हीं पैसों में वह लोग बरसात के 4 महीने निकालते हैं। यह समय बीतने के बाद वह फिर से काम शुरू कर देतें।
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दशहरे के त्यौहार के समय मज़दूर अपने-अपने घरों की तरफ जाना शुरू कर देते हैं। घर जाने से पहले वह जिस ठेकेदार के साथ आये हुए होते हैं, वह उनसे पेशकी के तौर पर पैसे लेते हैं। कोई 10 हज़ार लेता है, कोई 20 हज़ार तो कोई 50 हज़ार। परिवार में लोगों के हिसाब से मज़दूर पैसे लेते हैं। अगर लोगों को लगता है कि वह हर 4 हज़ार ईंट निकाल लेंगे तो वह उसी हिसाब से पैसे लेते हैं। लिये पैसे से ही वह अपने घर की व्यवस्था करके जाते हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं जिनमें बुज़ुर्ग होते हैं तो उनकी व्यवस्था करके जानी होती है। आपको बता दें, जो पैसे लोग ठेकेदार से लेते हैं वह ये पैसे भट्ठे में काम करने के दौरान चुकाते हैं और इसके बाद जो पैसे बचते हैं वह अपने घर लेकर जाते हैं।
मज़दूरों को 1 हज़ार ईंट बनाने पर 6 सौ रूपये मिलते हैं। भट्टे में मज़दूर अलग-अलग तरह का काम करते हैं। कोई ईंट पाथने का काम करता है, कोई ईंट जलाने का, कोई ईंट निकालने का और कोई रापस का। रापस के काम में मज़दूर ईंट की राख को निकालने का काम करते हैं। बाद में जब नई ईंट बनती है तो इस राख को ईंट पर बिछा दिया जाता है। मेहनत तो हर काम में होती है लेकिन सबसे ज़्यादा मेहनत और खतरा जलाई के काम और निकासी के काम में होता है। इन कामों में महिलाएं भी अपनी भागीदारी निभाती हैं। यहाँ तक हमने यह भी देखा कि छोटे-छोटे बच्चे भी गाड़ी से ईंटा लेने आते हैं।
मज़दूर का पूरा परिवार अपने बच्चों के साथ काम पर लग जाते हैं। ऐसे में बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। जब हमने इस बारे में मजदूरों से बात की तो मजदूरों ने कहा कि, “पेट देखें या बच्चों की पढ़ाई। अगर बच्चों की पढ़ाई के लिए गांव घर में रुकते हैं, तो यहां कोई धंधा भी तो नहीं है जिससे वह कमा-खा सके। इसी वजह से मजबूरी में वह निकल जाते हैं। चाहते तो हैं कि उनके बच्चे भी शिक्षित हों, आगे बढ़ें, वह भी एक अच्छी जिंदगी जीये, लेकिन कैसे जीयें जब कोई रोज़गार ही नहीं है। अगर उनके जिलों में कोई फैक्ट्री वगैरह हो जाए, रोज़गार मिलने लगे, हर दिन काम मिले तो उनको ज़रुरत ही ना पड़े। भले ही वहां दो पैसे कम मिले लेकिन वह अपने घर में रहे। अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कराये और सुकून से कमाये-खाएं।”
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मज़दूरों ने यह भी कहा कि, “अगर उनके क्षेत्र में ही काम मिलने लगे तो उनको इस तरह की स्थितियों में न रहना पड़े क्योंकि वहां पर ना तो शौचालय की व्यवस्था होती है, ना ही पानी की कोई खास व्यवस्था होती है। दवा-दारू का भी प्रबंध नहीं होता। जंगल के बीच पड़े होते हैं जहां से अस्पताल और बाज़ार काफ़ी दूर होते हैं। खेतों में ही गांव से दूर भट्ठे होते हैं।”
मज़दूरों ने आगे कहा, “गर्मियों में तो वह रात में काम करते हैं क्योंकि दिन में बहुत ज़्यादा धूप हो जाती है। सर्दी में वह दिन में काम करते हैं पर 8 महीने का जो काम होता है वह बहुत ही मेहनत का होता है। हमेशा उनके हाथ-पैर मिट्टी से ही भरे रहते हैं। उन्हें न खाने का होश रहता है और न ही आराम करने का।”
वह लोग बस यही सोचते कि वह वहां आराम करने के लिए थोड़ी जाते हैं। बस यह सोचते हैं कि जितना काम हो जाएगा उतना उनका पैसा बनेगा। इसलिए वह अपने काम में अड़े रहते हैं। कुछ ऐसी ही होती हैं एक ईंट-भट्टे में काम करने वाले मज़दूर की कहानी।
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