खबर लहरिया Blog महिलाएं कम आय में बना रही फूलों की माला, महिला रोज़गार योजनाओं की दिखा रही फेल तस्वीर

महिलाएं कम आय में बना रही फूलों की माला, महिला रोज़गार योजनाओं की दिखा रही फेल तस्वीर

ग्रामीण महिलाओं तक महिला रोज़गार योजनाओं की पहुँच न होने की वजह से वह कम आय में फूलों की माला बना रहीं हैं।

varanasi news, rural women are making flower garlands in low income, showing failure of women's employment schemes

                                                                                    अड़हुल के फूलों की माला बनाती ग्रामीण महिलाएं

महिलाएं घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए छोटे-छोटे रोज़गार करना शुरू कर देती हैं। बेशक़ उस रोज़गार से ज़्यादा कमाई न हो पर थोड़ी आय कुछ नहीं से तो अच्छी ही होती है। सरकार भी महिलाओं के रोज़गार, उनके उत्थान के लिए राज्य में कई योजनाएं चला रही हैं और कुछ तो बहुत पहले से हैं। जैसे – समूह सखी, ग्रामीण आजीविका मिशन योजना, यूपी महिला सामर्थ्य योजना इत्यादि।

इन सभी योजनाओं में महिलाओं को कौशल सिखाने के साथ-साथ उन्हें रोज़गार देने व छोटे उद्योग खोलने में महिलाओं की मदद करने की बात कही गयी है। जैसा की हमने आर्टिकल की शुरुआत में कहा कि ग्रामीण महिलाएं वह रोज़गार करती हैं जिससे उन्हें ज़्यादा आय तक नहीं मिलती, यह परिस्थिति यही दर्शाती है कि महिलाओं के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में चलाई जा रही योजनाओं की पहुंच उन तक है ही नहीं।

अपनी योजनाओं के ज़रिये महिलाओं की बढ़ोतरी के दावे करते रेकॉर्ड ऐसे में सिर्फ हवा-हवाई प्रतीत होते हैं। यूपी महिला सामर्थ्य योजना के तहत सरकार ने 200 करोड़ का बजट रखा है और इसके साथ ही सूक्ष्म,लघु व मध्यम उद्योग संचालित किये जाने के दावे किये हैं। यह दावें ही हैं क्यूंकि वास्तविकता में ज़रुरत के क्षेत्रों में यह योजनाएं व इनके नाम लोगों ने सुनें भी नहीं हैं।

ऐसे में महिलाएं स्वयं अपने लिए रोज़गार ढूंढती हैं। उस रोज़गार में मेहनत ज़्यादा और भले ही पैसे कम हो, उससे उन्हें ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता क्यूंकि उनके लिए वो कम पैसे ही उनकी ज़रुरत और उनकी पहुँच है।

ये भी देखें – छतरपुर: मज़बूरी में शुरू किये रोज़गार से बनाई अलग पहचान

कम आय है पर हाथ फैलाना नहीं पड़ता

varanasi news, rural women are making flower garlands in low income, showing failure of women's employment schemes

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए रोज़गार का अभाव होना उन्हें कम पैसे में पूरे-पूरे दिन काम करने के लिए मज़बूर करता है। खबर लहरिया ने अपनी रिपोर्टिंग में देखा कि वाराणसी जिले के ब्लॉक चिरईगांव, गांव छाही की महिलाएं अड़हुल के फूलों से माला बनाने का काम करती हैं। इन महिलाओं का यही कहना है कि फूलों की माला बनाना बैठने से अच्छा है। रोज़गार ढूढ़ने कहां जाएं। इससे परिवार को कुछ सहारा हो जाता है।

रेखा कहती हैं, महंगाई बढ़ गयी और रोज़गार नहीं है। पुरुष काम के लिए इधर-उधर भटक रहें हैं। ऐसे में महिलाओं के लिए कहां से काम मिलेगा। फूलों का रोज़गार करने वाला मालिक उनके घरों में फूल देकर चला जाता है। गाँव में पांच घरों की महिलायें फूलों की माला बनाती हैं।

कहतीं, 100 माला बनाते हैं तो 15 रूपये मिलते हैं। ऐसे ही दिन में 2 या ढाई सौ फूलों की माला बना लेते हैं। गरीब आदमी के लिए तो 200 रूपये भी बहुत है। इस पैसे से घर में तेल-साबुन आदि चीज़ें आ जाती हैं।

आगे कहा, “आदमी के पल्ले पैसा बचता कहां है जो वो हम लोगों को दे। जब कोई चीज़ नहीं रहती तो कभी-कभी परिवार में झगड़ा भी हो जाता है।”

शीला के अनुसार, माला बनाने से उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाने की ज़रुरत नहीं पड़ती। बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी ने महिलाओं को तनाव में डाल दिया है। फूलों की माला बनाने से महीने के हज़ार या पंद्रह सौ की कमाई हो जाती है। अब वह लोग घर बैठे क्या करें। मनरेगा में मज़दूरी भी नहीं है। माला बनाने से उन्हें थोड़ी मदद मिल जाती है।

वहीं फूलों की माला बनाने के रोज़गार में एक समस्या यह भी है कि इसे सिर्फ मौसम के अनुसार ही किया जा सकता है। जिस मौसम में फूल नहीं निकलते, उस समय रोज़गार का कोई और ज़रिये ढूँढना पड़ता है।

अंततः, महिलाएं रोज़गार के लिए सरकार पर पूर्णतयः निर्भर नहीं है। वह सरकारी योजनाओं का इंतज़ार नहीं करतीं कि वह उन तक पहुंचेंगी। यह स्थिति कहीं न कहीं सरकार द्वारा महिलाओं के रोज़गार के लिए शुरू की गयी योजनाओं के नाकामयाबी को दर्शाती हैं।

इस खबर की रिपोर्टिंग सुशीला देवी द्वारा की गयी है। 

ये भी देखें – चित्रकूट: मुझे गर्व है कि मैं एक दलित महिला हैंडपंप मैकेनिक हूं

 

‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our premium product KL Hatke