पत्रकारिता कोई भाषा नहीं है। एक ज़रिया है लोगों तक पहुँच उनकी समस्याओं को जानकर, उन्हें उजागर करने और सरकार तक उन्हें पहुँचाने का।
पत्रकारिता का असल सफर देश के उन ग्रामीण इलाकों के उन कच्चे रास्तों से शुरू होता है जिन गलियों की समस्याओं को समस्या की नज़र से नहीं देखा जाता। राष्ट्रीय मीडिया द्वारा उठाया नहीं जाता। फिर इन समस्यायों को उठाने के लिए कच्चे रास्तों से ‘ग्रामीण महिला पत्रकार’ निकलती हैं। ये ग्रामीण महिला पत्रकार देश को उन समस्यायों से रूबरू कराती हैं जो गाँवो के छोटे-छोटे कस्बों में दशकों से बसी हुई है।
इस “हिंदी पत्रकारिता दिवस” हम ग्रामीण महिला पत्रकारों के अख़बार से डिजिटल के सफर की कुछ झलकियां देखेंगे जो आपको उनसे जुड़ाव का अनुभव करायेंगी।
पत्रकारिता का रास्ता इस सड़क की तरह ही है। उबड़-खाबड़ जहां पैर संभाल कर चलना पड़ता है। अगर यहां संभल गए तो क़दमों को स्थिरता वाली भूमि का भी सहारा मिलेगा। झोला टाँगे हुए, पथरीले रस्ते से गुज़रती हुई ये महिलाएं ग्रामीण महिला पत्रकार हैं।
पत्रकारिता के क्षेत्र में महिला पत्रकार होना और फिर ग्रामीण महिला पत्रकार होना खुद में ही एक लड़ाई है।
ग्रामीण महिला पत्रकारों का यह सफर बहुत लम्बा है। हर घर तक खबर पहुंचे इसलिए ये ग्रामीण महिला पत्रकारें खुद उन गाँवों और कस्बों में बसे लोगों तक पहुँच रहीं हैं।
आज तो खबरें फोन, इंटरनेट, सोशल मीडिया, टीवी आदि के ज़रिये मिल जाती है लेकिन जब ये चीज़ें नहीं थी तब था “अख़बार।” अख़बार जिसमें समाज के सभी मुद्दों का समावेश होता है।
अख़बार पढ़ना किसी की ललक तो किसी की आदत होती है। सुबह का अखबार व्यक्ति को पूरे दिन और देश-दुनिया की जानकारी देने का काम करता है और पढ़ने का मज़ा भी।
आधुनिकता से दूर बसे गाँवों तक खबरें पहुंचे, उनकी समम्स्या, परेशानी गाँव की दहलीज़ पार कर खबरों के रूप में आगे पहुंचे, इस रूप में ‘खबर लहरिया’ जो की एक स्थानीय भाषा का अख़बार है, उसने कदम रखा। अमूमन लोग या तो अपनी भाषा से परिचित होतें या तो हिंदी से। इस अख़बार ने लोगों को स्थानीय और हिंदी दोनों ही भाषाओं में खबरों को पहुँचाने का काम किया।
लोगों की आवाज़ हर जन तक पहुंचे, इसके लिए अखबार के छपने के बाद उसे हर घर तक पहुँचाया जाता। पत्रकारिता के क्षेत्र में इन ग्रामीण महिला पत्रकारों ने पहले उनकी समस्याओं से उन्हें रूबरू करवाया और फिर अधिकारियों के कानों में समस्याओं को लेकर अख़बार ने सवाल उठाने का भी काम किया।
अब समय बदल रहा था, उसके साथ पत्रकारिता और उसके पहुंचाने का ज़रिया भी। खबरों को पहुंचाने के लिए अब इन ग्रामीण महिला पत्रकारों को खुद में बदलाव लाना था। भाषा वही थी बस उसे पहुँचाने का स्त्रोत, साधन बदल गया था।
देश डिजिटल हो रहा था लेकिन गाँव, कस्बे अभी-भी इस आधुनिकता से दूर थे। यह परिवर्तन कहीं ग्रामीणों की समस्याओं को एक बार फिर अनदेखा न कर दें तो इन ग्रामीण महिला पत्रकारों ने खुद को डिजिटल शिक्षा से परिचित कराया। बेशक़ इनके पास कोई हाई क्लास डिग्री नहीं थी पर ये महिलाएं कुछ बदलने की हिम्मत रखती थीं।
अब ख़बरें फोन से एक-दूसरे तक पहुंच रहीं थी। लेकिन भाषा ने इस बदलाव को कभी खबरों के आड़े नहीं आने दिया क्यूंकि बदला तो सिर्फ ज़रिया था। भाषा और उसके पीछे का महत्व वो हमेशा सामान रहा।
खबरें अब फोनों से रिकॉर्ड हो रही थी। भाषा स्थानीय होती या फिर हिंदी ताकि लोगों को उनकी भाषा में ही खबर मिल सके और उन्हें भाषा समझने में परेशानी न हो।
आधुनिकता की लहर में स्थानीय खबरों को स्थान प्राप्त हो, इसके लिए ग्रामीण महिला पत्रकारों ने खबरों के पहुँचाने के हर स्त्रोत और साधन को सीखा। डिजिटल युग में डिजिटल कैमरे को सीखने की पहल की।
सूरज अस्त हो रहा है। मिट्टी से सने पाँव अपने घर का रुख कर रहें हैं। ग्रामीण महिला पत्रकारों का यह सफ़र अकेला है पर इस रास्ते में राही कई हैं। ये राही ग्रामीणों की समस्याएं हैं, जिन्हें उजागर करने के सफर पर ग्रामीण महिला पत्रकार निकल चुकी हैं।
यह फोटो सीरीज़ ‘खबर लहरिया’ की ग्रामीण महिला पत्रकारों का सफर है जो यूपी, एमपी व बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में क्षेत्रीय व हिंदी भाषा में रिपोर्टिंग कर लोगों की आवाज़ों को बड़े स्तर पर रखने का काम कर रही हैं। इस बीच उनके रास्ते में कई मुश्किलें हैं क्यूंकि ग्रामीण महिलाओं को कोई पत्रकारों के रूप में नहीं देखता। साड़ी पहनी हुई महिला उनके लिए पत्रकार नहीं होती। इन सब रूड़ीवादी विचारधाराओं से लड़ते हुए ये ग्रामीण पत्रकार महिलाएं आगे बढ़ रहीं हैं और अपना रास्ता बना रहीं हैं।
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