यूपी में इस समय जगह-जगह चुनावी बहार आयी हुई है। चुनाव जीतने के लिए नए-नए पैतरे अपनाये जा रहे हैं। इसी बीच बाँदा जिले की महिलाएं भी अब चुनाव में अपने कदम रखने में पीछे नहीं है। उन्होंने भी अब आगे आना शुरू कर दिया है। एक तरफ जहां जागरूकता और होते बदलावों के बाद भी महिलाओं को चार दीवारी के अंदर कैद रखा जाता है। आज वही महिलायें उन लाइनों को पार करके अपनी खुद की मंज़िले चुन रही है। उनका यह पड़ाव असल बदलाव को दर्शाता है।
यूपी पंचायत राज चुनाव में इस बार कुछ सीटें महिलाओं के लिए भी आरक्षित की गयी थी। जिसका महिलाओं ने पूरी तरह से लाभ उठाया और चुनावी मैदान में लड़ने के लिए आ खड़ी हुईं। जानकारी के अनुसार, इस बार निर्वाचन आयोग ने महिलाओं के लिए ज़्यादा सीटें आरक्षित की थी।
पंचायत चुनाव ज़ोरो-शोरो पर है। गांव में महिला सीट हुई तो प्रधानी पाने की तलाश में लोग खुद व खुद आधुनिक हो गए हैं। वह न सिर्फ अपनी पत्नी मां और बहनों को चुनाव लड़ा रहे हैं बल्कि वह अब उनकी घूंघट का पर्दा भी हटवा रहे हैं। पुरानी और दबी-कुचली परम्पराओं को पीछे छोड़ते हुए वह उनके समर्थन और जीत के लिए उनके साथ घर-घर जाकर वोट भी मांग रहे हैं।
बदली चुनाव की तस्वीर
अगर यूपी के बुंदेलखंड क्षेत्र की बात की जाए तो यह इलाका अपनी बदहाली और रूढ़िवादी परंपराओं के लिए जाना जाता है। इन रीति-रिवाज़ों के तहत ज़्यादातर महिलाएं घर में ही रहकर घर के सारे काम संभालती है। जिसकी वजह से उन्हें अपने गाँव और क्षेत्र के रास्तों व मोहल्लों के बारे में जानकारी तक नहीं हो पाती। यह कोई नयी बात नहीं है।
जब भी खबर लहरिया की रिपोर्टर्स द्वारा महिलाओं से किसी भी मुद्दे पर बात किया जाता है तो यह सामने आता है कि उन्हें बहुत-सी चीज़ों की जानकारी ही नहीं है। इनमें से कई महिलाएं तो गांव की प्रधान भी होती हैं। लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें गाँव में हो रही चीज़ों की खबर नहीं होती। लेकिन इस बार के पंचायत राज चुनाव में सारी तस्वीरें बदल रही हैं।
जीतने पर क्या मिलेगा बराबरी का हक ?
आरक्षण में गड़बड़ी आने पर लंबे समय से तैयारी कर रहे दावेदारों ने इस बार अपने घर की महिलाओं के सहारे चुनाव मैदान में उतरने का फैसला लिया है। पंचायत चुनाव में जिले में जो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हुई हैं। वहां अब क्षेत्रीय नेताओं ने अपनी-अपनी पत्नियों को मैदान में उतार दिया है। इसी के साथ महिला दावेदारों के पति और उनके समर्थक कदम से कदम मिलाकर चुनाव प्रचार भी कर रहे हैं। बड़े-बड़े पोस्टरों में महिला प्रत्याशियों के साथ उनके पति या बेटे की फोटो बड़े नाम के साथ छपी हुई है।
लेकिन अब देखना यह है कि क्या जिस तरह का नजारा प्रचार-प्रसार और पोस्टरों में दिख रहा है। क्या वह आगे काम में भी बराबरी देगा? क्या महिला सीट आने के बाद वह महिला खुद अपना काम कर पाएगी या सिर्फ चुनावी मैदान के लिए मोहरा बनाकर उन्हें खड़ा किया गया है?
ये है आरक्षण की स्थिति
चुनाव आयोग ने जिला पंचायत की 30 सीटों में से 10 और 469 ग्राम पंचायतों में से 160 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर रखी हैं। इतना ही नहीं इसके अलावा बांदा जिले के आठ ब्लॉकों में से तीन प्रमुख ब्लॉक के पद भी महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए हैं। अब ऐसे में पहले से ही राजनीति में सक्रिय और माहिर रहने वाले नेताओं ने अपनी पत्नियों को चुनाव मैदान में उतार कर प्रत्याशी बनाया है।
इससे एक बात तो साफ होती है कि महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारने की वजह, उन्हें आगे लाने से ज़्यादा सत्ता की ताकत को हासिल करना है। हालांकि, अब महिलाएं उन्हें मिले लाभ का कितना फायदा उठा पाती हैं। यह उन पर निर्भर करता है। यह भी की वह चुनाव जीतने के बाद सामने रहकर अपने पद के कार्यभार को संभालती हैं या नहीं।
वहीं अगर इसी चीज़ को दूसरे नज़रिये से देखा जाए तो जो पुरुष पहले के चुनाव में प्रत्याशी रह चुके हैं। उनके द्वारा अपनी पत्नियों को सामने से चुनाव लड़वाना सरहानीय कार्य है। सामने से आकर बड़े स्तर पर कार्यभार संभालना, चुनाव लड़ना ग्रामीण महिलाओं के जीवन में एक नए बदलाव की तरफ इशारा करता है।
इस खबर को खबर लहरिया के लिए गीता देवी द्वारा रिपोर्ट किया गया है।