खबर लहरिया Blog मानसिक रोग से ग्रस्त बीजेपी कार्यकर्ता ने काटी 14 साल के बच्चे की नाक, क़ानूनी नियम होने के बावजूद नहीं मिली सज़ा

मानसिक रोग से ग्रस्त बीजेपी कार्यकर्ता ने काटी 14 साल के बच्चे की नाक, क़ानूनी नियम होने के बावजूद नहीं मिली सज़ा

मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति द्वारा किये गए क्राइम के लिए भी कानून में सज़ा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में यह कहा गया है कि सिर्फ “मानसिक रूप से बीमार” लोग और मनोरोगी एक आपराधिक मामले से प्रतिरक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं, क्योंकि जब अपराध किया गया, उस समय पागलपन को सिद्ध करना उनकी ज़िम्मेदारी है।

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                                                      संजू नामदेव व अभय नामदेव

मानसिक रोग के व्यक्ति द्वारा किये गए क्राइम्स पर अमूमन उतनी सख़्ती से कार्यवाही नहीं होती जितनी की होनी चाहिए। दलील यह होती है कि क्योंकि व्यक्ति मानसिक तौर पर स्वस्थ नहीं है तो उसे नहीं पता कि वह क्या कर रहा है या जो उसने किया है वह क्राइम के घेरे में आता है। ऐसे में कई बार आरोपी मानसिक रोग का इस्तेमाल करते हुए बच निकलता है।

ऐसे कई मामलों के लिए भारतीय कानून में कुछ नियम बनाये गए हैं। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अभियुक्त को अपने पागलपन को साबित करना होता है, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (संक्षेप में ‘साक्ष्य अधिनियम’) की धारा 105 के आधार पर उत्पन्न होता है। यह मामले जब अदालत में जाते हैं तो आरोपी को कोर्ट के सामने यह स्वयं साबित करना होता है कि क्राइम करते समय वह विकृत-चित्त (अस्वस्थ्य दिमाग) हो गया था।

खबर लहरिया की रिपोर्टिंग के दौरान भी कुछ ऐसा ही मामला सामने आया है जिसमें व्यक्ति के क्राइम को यह बताकर कम आंका जा रहा है कि व्यक्ति मानसिक तौर पर बीमार है व उसे गिरफ़्तार कर क़ानूनी कार्यवाही नहीं की जा रही।

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अस्वस्थ मानसिकता का हवाला व क्राइम

ललितपुर जिले के लक्ष्मीपुर मोहल्ले में 14 साल के बच्चे का 6 अगस्त 2022 को नाक काटने का मामला सामने आया है। आरोप है कि अभय नामदेव जब रात के तकरीबन 9:30 बजे होटल से वापस घर की तरफ जा रहा था उस समय दिमाग से अस्वस्थ भाजपा कार्यकर्ता सचिन साहू ने बच्चे पर हमला कर दिया।

जब आस-पास के लोगों की नज़र पड़ी तो सब अभय को बचाने के लिए इकठ्ठा हो गए। ऐसे में अभय की जान तो बच गयी पर इस बीच दिमाग से अस्वस्थ आरोपी सचिन साहू ने दांत से बच्चे की नाक काट दी, जिसके बाद अभय की हालत काफ़ी गंभीर हो गयी।

बता दें, बच्चे की माँ नहीं है। पिता भी हमेशा शराब के नशे में रहते हैं। खुद का अपना कोई घर भी नहीं है। वह सड़क किनारे अपने पिता के साथ रहता है। पिता के शराब में चूर होने की वजह से अभय ने खुद ही अपने जीवन की ज़िम्मेदारी ली है। 14 साल की छोटी उम्र से ही वह कमाकर अपना भरण-पोषण करता है।

डर से नहीं लिखवाई FIR

यह आरोप है कि क्योंकि आरोपी के पास सत्ता की ताकत है और उनकी आर्थिक स्थिति सही नहीं है, इसी डर की वजह से उन्होंने थाने में घटना को लेकर रिपोर्ट भी दर्ज़ नहीं कराई है।

पैसों की कमी से नहीं हो पाई सर्जरी

चाइल्डलाइन द्वारा घटना के बाद अभय को ललितपुर अस्पताल में भर्ती कराया गया। अस्पताल में चोट की ड्रेसिंग के बाद अभय को झाँसी मेडिकल कॉलेज में रेफ़र कर दिया गया। यहां के डॉक्टर ने अभय की सर्जरी के लिए 16 अगस्त की तारीख दी थी पर पैसों की कमी की वजह से उसकी सर्जरी नहीं हो सकी।

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चाइल्डलाइन काउंसलर इलाज का खर्चा दिलाने में कर रहे मदद

खबर लहरिया ने अभय के इलाज आदि चीज़ों को लेकर चाइल्डलाइन काउंसलर ज्वोनी राजा से बात की, जिन्होंने बच्चे को अस्पताल में भर्ती कराया था। उनका कहना है कि उन्होंने बच्चे के इलाज वह अन्य खर्चे के लिए दूसरी पार्टी से बात की है। दूसरी पार्टी द्वारा दवाइयों आदि चीज़ों के लिए 10 हज़ार रूपये तक देने की बात मान ली गयी है। बाकी अस्पताल में बच्चे का इलाज मुफ़्त किया जा रहा है। अभी फिलहाल बच्चे की सर्जरी हेतु डॉक्टर से फाइनल तारीख को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं हुआ है।

मैं गरीब हूँ, मैं नहीं लड़ सकता – अभय के पिता

“मैं गरीब हूँ। मैं लड़ाई नहीं लड़ पाऊंगा। मैनें शिकायत की थी। मेरे पास न तो FIR की कॉपी है और न ही मेरे पास पैसे हैं जो मैं दौड़-भागकर लड़ाई लड़ूँ। मैं तो खुद रोड पर रहता हूँ। मेरे सिर पर छत नहीं है। मेरे बच्चे का बस इलाज हो जाए। वह लोग इलाज कराये। सर्जरी अस्पताल में फ्री होनी चाहिए। जो भी दवाई का खर्च हो वह दे दें। मुझे नहीं लड़ना – अभय के पिता संजू नामदेव”

इलाज हेतु पैसे देने के लिए हैं तैयार

आरोपी सचिन साहू के बड़े भाई संजय साहू का कहना है कि उसकी उम्र 43 साल है और उसकी शादी भी नहीं हुई है। वह मानसिक रूप से बीमार है और उलटी-सीधी हरकतें करता है। लोगों पर हमला करता है। भाइयों द्वारा मन में धोखा शब्द डाल देने की वजह से वह भड़क उठता है। नहीं तो वह शांत ही रहता है।

वह भाजपा में किसी पद पर नहीं है पर उनके लिए वह प्रचार-प्रसार का काम करता है। रात-दिन उसी में लगा रहता है। वह मानते हैं कि बच्चे के साथ गलत हुआ है। वह 10 हज़ार रूपये देने को तैयार हैं। वह पैसे संजू नामदेव को नहीं देंगे। चाइल्डलाइन वाले को देंगे।

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अस्पताल में चल रहा है आरोपी का इलाज – सब इंस्पेक्टर

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                       सदर चौकी के सब इंस्पेक्टर अभिषेक पावांर

ललितपुर सदर चौकी के सब इंस्पेक्टर अभिषेक पावांर का कहना था कि उनके पास ऐसी कोई शिकायत नहीं आई है। जब उन्हें सूचना की घटना मिली तो वह आरोपी सचिन साहू को पकड़ने गए। वहां जाकर हालात ऐसे हो गए कि आरोपी को पकड़ना मुश्किल हो गया। दस पुलिस वालों को आरोपी को संभालना पड़ा। आरोपी की स्थिति को देखते हुए उसे जेल नहीं भेजा सकता। उसका झांसी मेडिकल कॉलेज में इलाज चल रहा है।

Legal व Medical insanity के बीच अंतर

Live Law की रिपोर्ट में बताया गया कि Legal (लीगल) एवं Medical insanity (चिकित्सा पागलपन) के बीच अंतर भारतीय दंड संहिता की धारा 84, insanity के चिकित्सा परीक्षण से अलग कानूनी परीक्षण निर्धारित करती है। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि भले ही व्यक्ति चिकित्सीय रूप से विकृत-चित्त का हो लेकिन उसका कानून की नज़र में विकृत-चित्त होना आवश्यक है (इस धारा का लाभ लेने के लिए)।

भले ही कोई व्यक्ति मानसिक बीमारी का इलाज करवा रहा हो या वो रोगी हो, पर अगर वह अपराध को समझता है या वो अपने कार्य की प्रकृति को समझता है और फिर कोई अपराध करता है तो उसे कानून की नज़र में स्वस्थ चित्त ( मानसिक तौर पर स्वस्थ) का माना जायेगा।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में यह कहा गया है कि सिर्फ “मानसिक रूप से बीमार” लोग और मनोरोगी एक आपराधिक मामले से प्रतिरक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हैं, क्योंकि जब अपराध किया गया, उस समय पागलपन को सिद्ध करना उनकी ज़िम्मेदारी है। इसलिए व्यवहार में, मानसिक रूप से बीमार हर व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं किया जाता है। इसी तरह कानून की नज़र में पागलपन और चिकित्सीय रूप से पागलपन के बीच एक अंतर होना चाहिए है।

रिपोर्ट के अनुसार, सुरेन्द्र मिश्रा बनाम झारखंड राज्य [(2011) 11 SCC 495] के मामले में, यह बताया गया था कि ‘मानसिक रोग से पीड़ित प्रत्येक व्यक्ति को आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं किया जाता है।’

वहीं सुझाव दिया गया था कि विभिन्न विवादों और भ्रमों से बचने के लिए ‘मानसिक पागलपन’ शब्द की एक अच्छी तरह से परिभाषित परिभाषा होनी चाहिए, जो ‘मानसिक रोग’ और संहिता द्वारा मांगी गई ‘कानून की नज़र में पागलपन’ और ‘चिकित्सीय पागलपन’ में अंतर कर सके।

आरोपी की मानसिक स्थिति के बारे में परिवार व पुलिस द्वारा कहा तो जा रहा है लेकिन डॉक्टर द्वारा इसका कोई सर्टिफिकेट सामने पेश नहीं किया गया है, जो यह स्पष्ट करता हो कि आरोपी सच में मानसिक रोगी है। हालांकि, आरोपी के भाई द्वारा पीड़ित को दवाई खर्चा देने की बात कही गयी है पर इसमें भी एक प्रश्न रह जाता कि जब कानून में ऐसे मामलों को लेकर नियम है तो फिर क्यों आरोपी के खिलाफ़ कोई रिपोर्ट नहीं लिखी गयी?

इस खबर की रिपोर्टिंग नाज़नी रिज़वी द्वारा की गयी है। 

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