जब भारत में क्वीर समुदाय (queer) के हक़ और अधिकार की बात होती है तो एक कदम पीछे जाकर यह सोचने की ज़रूरत है कि क्या समाज और नियम का जो पहले से ढांचा बना हुआ है, क्या हम खुद को उसमें देखते हैं, नहीं क्योंकि वो ढांचा ही हमें निकालकर बना हुआ है।
रिपोर्टिंग व लेखन – संध्या
जब हम मानव अधिकारों की बात करते हैं तो क्या हमारा कानून, हमारा समाज उसमें LGBTQIA+ (Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, Queer, Intersex, and Asexual +) समुदाय को रखता है या नहीं? क्या उन अधिकारों में कभी LGBTQIA+ समुदाय को देखा या रखा गया है, यह एक सवाल है? क्योंकि मानव एक भाव है जिसका यूँ तो कोई वर्गीकरण नहीं है पर हाँ इसको वर्गों में ज़रूर से बांट दिया गया है। वह स्त्री और पुरुष का, बस।
10 दिसम्बर को हर साल “मानव अधिकार दिवस” मनाया जाता है जोकि इस साल भी मनाया जा रहा है। इस बार मानव अधिकार दिवस 2022 का विषय है “गरिमा, स्वतंत्रता और सभी के लिए न्याय’ ( Dignity, Freedom, and Justice for All) पर क्या यह चीज़ें LGBTQIA+ समुदाय को मिल पायीं हैं? यह एक और सवाल है जो न्याय, सुरक्षा व सम्मान का हवाला देने वाले नियमों के सामने आकर खड़ी हो जाती है।
क्या ये मानव अधिकार जिसकी चर्चा हमेशा की जाती है वह LGBTQIA+ समुदाय को मिल पाएं हैं या नहीं, इसे लेकर खबर लहरिया ने कृशानु से बात की, जो अपने आपको ट्रांस नॉन-बाइनरी व्यक्ति के रूप में पहचानती हैं। 23 साल की कृशानु एक सोशियोलॉजी की छात्रा होने के साथ-साथ एक ट्रांस राइट एक्टिविस्ट हैं और वह सेक्सुअल एंड रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड राइट्स को लेकर भी काम करती हैं।
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ट्रांस व्यक्ति व मूल मानव अधिकार
खबर लहरिया को दिए इंटरव्यू में कृशानु ने बताया, “आज अगर हम ट्रांस मानव अधिकार की बात करते भी हैं तो भारत में ट्रांस लोगों के लिए आरक्षण एक बहुत बड़ा मुद्दा है। ट्रांस एक्ट को हटाना और उसे असंवैधानिक घोषित करना एक बहुत बड़ा मुद्दा है और यह देखना कि एक क्वीर (queer) नज़रिये से गोद लेने का नियम व पारिवारिक विरासत नियम को कैसे समझा जाता है क्योंकि अब इसे पहले के ढांचे की तरह नहीं देखा जा सकता। अगर कोई हमारे लिए कोई कानून बना रहा है तो हमें उस टेबल पर बुलाये और उसका तरीका है कि वह हमें आरक्षण दें। ”
आगे कहा, ‘सामाजिक तौर पर हमें कोई इंसान की तरह नहीं देखता। जो गरिमा, अधिकार व आज़ादी का वादा किया जाता है, सब झूठे वादे हैं।’
देखा जाए तो इस बार के मानव अधिकार दिवस का विषय भी गरिमा, स्वतंत्रता और सभी के लिए न्याय रखा गया है। वहीं अगर हम मानव अधिकार से जुड़े मूल अधिकारों की बात करें जिसमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल है, क्या यह मूल अधिकार ट्रांस व्यक्तियों को मिले हैं? क्या वह समाज में और सरकार द्वारा बनाये नियमों के अनुसार इन अधिकारों का आनंद ले पा रहे हैं?
देश की परिकल्पना में ही क्वीर समुदाय नहीं
कृशानु की आवाज़ में थोड़ा गुस्सा था। वह कहती हैं, “आज़ादी के 75 साल बाद के बाद भी हमें आज़दी नहीं मिली है क्योंकि कभी यह सोचकर ही देश को नहीं बनाया गया है कि सबका समावेश इसमें हो सके। देश को सिर्फ कुछ लोगों के लिए सोचकर बनाया गया है। जो परिकल्पना है कि यह देश किसका है उस परिकल्पना में ही हम नहीं आते हैं।
जब हक़ और मानव अधिकार की बात होती है, जो हक़ और मानव अधिकार जैसे शब्द है इनका जन्म वेस्टर्न उदारवादी विचार के साथ होता है। एक राज्य होगा जो तुम्हारी रक्षा करेगा, तुम्हें हक़ देगा और उसके विस्तार से तुम्हें गरिमा,आज़ादी सब चीज़ें मिल जायेगी। मेरे ख्याल से वो नहीं होता।
हम इस हक़ और अधिकार के मामले में फंस से गए हैं क्योंकि कहने को हम आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में रहते हैं। इसके अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं है। इसे छोड़कर हम अपनी दुनिया कैसे बचाएं। अगर बसा सकते तो बसा लेतें क्योंकि नहीं चाहिए तुम्हारी दुनिया।
प्यासा फिल्म का गाना है ना, “जला डाला,फूंक डालो ये दुनिया” तो वही भाव है इस दुनिया के बारे में।”
कई बार अधिकार आपको दयनीय बना देते हैं
कृशानु कहती हैं, जब भारत में क्वीर (queer) के हक़ और अधिकार की बात होती है तो एक कदम पीछे जाकर यह सोचने की ज़रूरत है कि क्या समाज और नियम का जो पहले से ढांचा बना हुआ है, क्या हम खुद को उसमें देखते हैं, नहीं। क्योंकि वो ढांचा ही हमें निकालकर बना हुआ है। वो परिवार के हिसाब से बना है। आदमी-औरत के आधार पर बना है जिस परिवार की कल्पना में ही हम लोग नहीं है। आदमी-औरत के बाइनरी (binary) में ही हम लोग नहीं है तो उस ढांचे में अपनी जगह ढूंढ़ना मेरे हिसाब से निरर्थक काम है।
हक और अधिकार के साथ आप कई बार दयनीय भी हो जाते हैं, यह मैं ट्रांस एक्ट को मद्दे नज़र रखते हुए बोल रही हूँ। जब ट्रांस एक्ट 2019 पास हुआ था, 5 अगस्त 2019 को। वो ऐसा कानून है जिसे हम बहुत काला कानून मानते हैं। इसके बाद ट्रांस लोगों की ज़िंदगियां और भी बद्तर कर दी गयी हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि जब किसी महिला के ऊपर यौनिक हिंसा होती है तो उसके लिए सज़ा 7 से 8 साल है। इस एक्ट के तहत जब किसी ट्रांस व्यक्ति के साथ यौनिक हिंसा होती है तो उसकी सज़ा सिर्फ दो साल है तो इसका मतलब यह है कि आपका कानून यह सीधा-सीधा बोल रहा है कि आप कम इंसान हो।
ट्रांस एक्ट बनाने वाले ही होते हैं ट्रांस शब्द से अंजान
जिस तरह से कानून बनाया गया है, जिस तरह से उसकी भाषा लिखी गयी है, उसमें ट्रांस मस्क्युलाईन (Trans masculine) व्यक्ति के बारे में कुछ नहीं है। नॉन-बाइनरी (Non-Binary) लोगों के बारे में कुछ नहीं है।
वह लोग या राज्य हमारे लिए कानून बनाते हैं जो हमारी असलियत से बहुत दूर बैठे हुए हैं और वह सोचते हैं कि वह हमारे लिए एक्ट बना रहे हैं जबकि वो हमें जानते भी नहीं। हमें टेबल पर बुलाकर यह नहीं कहा जाता है कि आइये और बनाइये अपने लिए चीज़ें।
वह लोग एक्ट तो बना देंगे लेकिन यह क्यों और किसके लिए बना है फिर वही सवाल आएगा क्योंकि जो जीवन उन्होंने जीया है, यह उसमें परिभाषित नहीं हो रहा है। कोई हमसे पूछे तो बताएंगे कि ट्रांस होना क्या है होता है। यह बताएंगे कि हम अपनी ज़िन्दगी में किस तरह के अनुभव करते हैं।
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ट्रांस होना आज़ादी है
कृशानु ने कहा,
“जिस दिन मुझे पता लगा कि मैं ट्रांस हूँ उस दिन मुझे दुःख सा भी लगा। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मैं समाज में कैसे देखी जाउंगी। उस समय मुझे यह भी लगा कि उतनी आज़ादी मुझे पहले कभी महसूस नहीं हुई। जो मेरी आज़ादी, मेरी गरिमा और मेरी ख़ुशी है, ये सब मेरे ट्रांस होने से आती है।
ट्रांस होने की ख़ुशी और ट्रांस ज़िन्दगी जीने की खुशी ही ऐसी चीज़ है जो हमारे और हमारे पूरे समुदाय के लोगों को रोज़ ज़िंदा रखती है, एक दूसरे के साथ मिलकर। तो समुदाय में रहना और ट्रांस खुशी को अपनी ज़िन्दगी का केंद्र बनाना, वही लेकर हम आगे चलते हैं। जो हमें कोई राज्य नहीं देता, कोई मानव अधिकार नहीं देता। हम एक-दूसरे के लिए करते हैं।
“हम उन तरीकों में आज़ाद है जिन तरीकों में यह समाज खुद की आज़ादी नहीं देख सकता और इसलिए यह समाज हमसे जलता है।”
अंत में बात यही निकल कर आती है कि जिनके लिए अब नियम व कानून बनाये जा रहें हैं, उनसे ही यह नहीं पूछा जाता कि उन्हें क्या चाहिए। समाज द्वारा किया जाने वाला बहिष्कार खत्म नहीं होता है क्योंकि वह मर्द और पुरुष की पहचान से ही आगे नहीं बढ़ पाते। ट्रांस लोगों के लिए नियम व कानून भी उन्हें उनके अधिकार दिला पाने में असफल साबित होते हैं। इस असफलता को लेकर तो कई लोगों पर सवाल खड़ा होता है। वहीं, एक सवाल यह भी है कि इसमें कौन-कौन लोग शामिल हैं?
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Bahut bahut thank you itna acha essay likhne ke liye. Krishanu ki ek ek baat se Mai sehmet hu.