600 साल पुरानी ‘हज़रत खाकी शाह रहमतुल्लाह अलह’ झांसी जिले के नारायण बाग में स्थित है। इस दरगाह शरीफ में शिव जी का मंदिर व मज़ार दोनों एक परिसर में, एक ज़मीन पर है। यहां आने वाले भक्त भी एक है जो मंदिर-मस्जिद की ज़मीन देखकर नहीं बल्कि अपनी आस्था व विश्वास से जुड़कर यहां आते हैं।
“राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।”
(यानी राम-रहीम एक है, बस नाम दो रख दिए हैं। कबीर कहते हैं, दो नाम सुनकर भ्रम में मत पड़ना।)
न ज़मीन बंटी थी, न खुदा….. अगर कोई बंटा था तो वो था इंसान। वो इंसान जो आज भी बंटा हुआ है लेकिन जो एक है उसे बेशक कितनी ही ज़मीनों पर मस्जिद-मंदिर के नाम पर बाँट दो, ज़मीन कोई न कोई एक हिस्सा ऐसा ज़रूर मिलेगा जहां दोनों साथ मिलेंगे, जहां न प्रेम में कोई भेद होगा, न दिलों में और न ही भक्ति में। जहां तिज़ारत हर एक होगी और वह जगह है झाँसी की “खाकी शाह दरगाह शरीफ।”
600 साल पुरानी ‘हज़रत खाकी शाह रहमतुल्लाह अलह’ झांसी जिले के नारायण बाग में स्थित है। इस दरगाह शरीफ में शिव जी का मंदिर व मज़ार दोनों एक परिसर में, एक ज़मीन पर है। यहां आने वाले भक्त भी एक है जो मंदिर-मस्जिद की ज़मीन देखकर नहीं बल्कि अपनी आस्था व विश्वास से जुड़कर यहां आते हैं। हर कोई अपनी पहचान के खुदा की भक्ति करता है, जिसे वह मानता और जानता है।
देश जहां मंदिर-मस्जिद की ज़मीन और भक्ति के झूठे ढकोसले को पकड़ लड़ा जा रहा है, खुद को गिराया जा रहा है। वहीं यहां हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के लोग खुद को एक दूसरे में संजोये हुए हैं, एक दूसरे की आस्था के विश्वास को अपने दिलों में पिरो कर रखा हुआ है।
स्थानीय लोगों ने खबर लहरिया को बताया, यह मज़ार 600 साल पुराना होने के साथ-साथ पेशवाओं के पहले का है। यहां लोगों की आस्था कई पीढ़ियों से चली आ रही है। लोग आते हैं अपनी मुरादे मांगते हैं, लंगर करते हैं और फिर लौट जाते हैं। यहां के मुजबीर ही मजार व मंदिर दोनों की देखभाल करते हैं।
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दोनों समुदायों ने मिलकर बनाई रखी है एकता
मजार की देखभाल करने वाले मुजाबीर हनीफ शाह बताते हैं, यह इकलौता ऐसा मुस्लिम धार्मिक स्थल है जहां हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। ऐसा कहा जाता है कि यहां माथा टेकने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई व उनके पति गंगाधर राव भी आते थे। पहले यहां दूर-दूर तक जंगल हुआ करता था। लोग जंगल पार करके यहां दर्शन के लिए आते थे।
शब-ए-बरात (इबादत की रात) के दिन जब मज़ार की पुताई करते हैं तभी शिव मंदिर की भी पुताई कराते हैं। शिवरात्रि में पूजा व भंडारा करवाते हैं। दीपावली में मंदिर में दीये जलाते हैं और मजार को भी रौशन करते हैं। यही वजह कि यहां आज भी कोई हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ नहीं पाया है। हम मिलजुकर रहते हैं।
यहां भंडारे में बनने वाला प्रसाद शाकाहारी यानी वेज होता है। लंगर भी वेज ही बनता है और वही शिव जी को भोग लगाया जाता है। लंगर में मटर पुलाव,वेज बिरयानी,हलवा,पूरी-सब्ज़ी बनती है ताकि सभी लोग लंगर खा सके।
इस एकता को कायम रखने में दोनों समुदायों का योगदान है। दोनों समुदायों ने दिलों को जोड़कर रखा हुआ है। यहां आज भी राम-रहीम जैसे लोग हैं।
शब्बीर बताते हैं, उनकी चौथी पीढ़ी है जो मज़ार व मंदिर दोनों की देखभाल कर रही है। ‘हमें गर्व होता है, देश के बदलते माहौल में हम यहां एकता का पैगाम इस मज़ार और मंदिर की वजह से दे पा रहे हैं। इस जगह से लोगों की आस्था सैंकड़ों साल से है।’
मज़ार-मंदिर दोनों जगह है आस्था
एकता के स्थल पर आये दया शंकर बताते हैं, वह लगभग 10-12 साल से यहां आ रहे हैं। उनके परिवार व मोहल्ले के सभी लोग यहां आते हैं। मजार में भी मन्नत मानते हैं और मंदिर में प्रार्थना भी करते हैं।
मजार से 500 मीटर दूर ढीमर मोहल्ले की निवासी मिथलेश जिनकी उम्र 80 साल है, जब वह 15 साल की थीं तब से वह इस मज़ार में पहले बार आईं थी और तब से वह यहां आ रही हैं। कहती हैं, ‘हमारे यहां शादी कार्ड मज़ार में जाता है। शादी के खाने का पहला पत्तल मज़ार पर चढ़ता है।’
आस्था, प्रेम से जुड़ा हुआ है और प्रेम भेद को मिटा देता है जिसका प्रतीक है “खाकी शाह दरगाह शरीफ।”
इस खबर की रिपोर्टिंग नाज़नी रिज़वी द्वारा की गई है।
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