बच्चे तो बच्चे मुनिया को बड़े भी दलित और अछूत बोल कर चिढ़ाते थे उससे घृणा करते थे।
एक लड़की थी मुनिया। बहुत चंचल और शरारती, उसे पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने का बहुत शौक था। अपने मां बाप की लाडली थी, बाकी भाई बहन से ज़्यादा प्यार मिलता है उसे। लेकिन मुनिया के पड़ोसी अपने बच्चों को मुनिया व उसके भाई बहन के साथ खेलने नहीं देते थे, क्योंकि मुनिया एक दलित परिवार से थी। दलित होने के कारण कोई भी उसके साथ नहीं खेलता था। मुनिया को बहुत बुरा लगता था। गलती से मुनिया किसी से टकरा जाती तो वह व्यक्ति अपने आप को अपवित्र मानता और तुरंत नहाने चला जाता।
मुनिया अपनी मां से पूछती कि मां यह लोग हमें अछूत क्यों समझते हैं? मां कुछ ना कहती अपने काम में व्यस्त रहती, उसके पास जवाब नहीं होता था शायद। लेकिन मुनिया निराश नहीं होती थी। वह प्रत्येक दिन होमवर्क करके स्कूल जाती। होशियार थी, मास्टर जी से उसे शाबाशी भी मिलती थी। लेकिन जब खाने की छुट्टी होती तो उसे आखिरी में थाली मिलती थी। उसे बाकी बच्चों से दूर बैठाया जाता था। भोजन भी सबसे आखिरी में मिलता। कभी-कभी तो रसोईया उसके लिए सब्जी नहीं बचाती थी। सिर्फ दाल चावल (भात) खाना पड़ता था। खाने के बाद सभी बच्चे खेलने चले जाते लेकिन रसोईया मुनिया को झाड़ू लगवाती थी यह कहकर कि वह अछूत है उसका खाया हम क्यों साफ करें।
बच्चे तो बच्चे मुनिया को बड़े भी दलित और अछूत बोल कर चिढ़ाते थे उससे घृणा करते थे। मुनिया क्या करती वो सब कुछ सुन कर घर आ जाती थी। एक दिन मुनिया जल्दी उठ कर पानी भरने पहले चली गई तभी वहां कई महिलाएं पानी भरने पहुंची। मुनिया को देखकर कहने लगी हे भगवान! आज सुबह-सुबह इसका चेहरा देख लिया, ना जाने आज का दिन कैसा होगा। उन्होंने मुनिया को दूर भगाकर खड़े रहने को कहा। जब सभी महिलाएं बारी- बारी से पानी भर कर चली गई तब मुनिया पानी भर पाई। इतना ही नहीं जब मुनिया तालाब पर नहाने जाती और किसी दिन वे महिलाएं वहां पहुंच जाती तो मुनिया को उस घाट से दूसरे घाट में भगा देते। कहते कि यह बड़े जाति वालों का घाट है। यहां भूल से भी मत आना, मुनिया वहां से चली जाती।
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एक दिन गांव में धार्मिक पर्व आया। मुनिया अपने भाई बहनों को लेकर वहां पूजा करने पहुंच गई लेकिन किसी ने उसे पूजा आरती नहीं करने दी। उसे दलित कहकर वहां से भगा दिया। मुनिया घबराई नहीं अपने घर आकर पूजा किया। उसके गांव में भंडारा हुआ मुनिया वहां खीर खाने गई लेकिन उसको अपने स्कूल के दोस्तों से दूर बैठाया गया उसने अकेले ही खीर खाई और घर आ गई। वो निराश नहीं हुई क्योंकि अब उसे आदत सी हो गई थी।
कुछ सालों बाद मुनिया को एक सहेली मिल गई। वह दोनों साथ खेला करते और दोनों पढ़ाई भी अच्छा करते थे। लेकिन मुनिया कभी भी अपनी सहेली के घर घूमने जाती तो वहां भी उससे भेदभाव होता उसे बैठने के लिए कुर्सी नहीं बल्कि चटाई दी जाती। पर अब यह सब मुनिया के लिए असहनीय था। वह सोचने लगी कि उसने दलित के घर में जन्म क्यों लिया? लोग उससे इतना दूरी बनाकर क्यों चलते हैं मानो उसे महामारी हो गई हो। मुनिया के मन में कई सवाल आते कि क्या दलित होना पाप है? वह धीरे-धीरे सबसे दूर होती गई और सारे सवाल उसके अंदर ही उबलते रहते। उसे गांव में घुटन होने लगी थी। बहुत अकेलापन भी महसूस होने लगा था।
एक दिन मुनिया की मुलाकात एक लड़की से हुई जो लाइब्रेरी चलाती थी। मुनिया उन्हें दीदी कहती थी। मुनिया को वह दीदी बहुत अच्छी लगी और मुनिया भी उनके साथ लाइब्रेरी जाने लगी। वहां कई तरह की किताबें थी जैसे- गीत, चुटकुले, कहानियां उनमें भीमराव अंबेडकर सावित्रीबाई फूले की किताबें भी थी। मुनिया को वह किताबें अच्छी लगी, वह रोज ही उन किताबों को पढ़ती और धीरे-धीरे मुनिया को अपने सवालों के जवाब और साथ में हिम्मत भी मिलती गई। जिस तरह भीमराव अंबेडकर के साथ हुआ था उसी तरह मुनिया के साथ भी हो रहा था।
मुनिया को अब समझ आने लगा कि वह गलत नहीं है, ना ही दलित होना पाप है। अब वो समझ गई थी कि लोग अपने- अपने जाति-धर्म को बड़ा बताने के लिए दलितों को छोटा और अछूत कहते हैं जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। अब मुनिया को पता चल गया था कि यह छोटी नहीं बल्कि लंबी लड़ाई है जिसे हमारे पूर्वजों ने सदियों से अपने अधिकार व सम्मान पाने के लिए लड़ते आ रहे हैं। अब मुनिया खुद को भी इस समाज के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार कर रही है।
हमारे समाज में ऐसी कई मुनिया हैं जो समाज में अपने हक और अधिकार की लड़ाई लड़ रही हैं। और जीती भी हैं हमें उम्मीद है की जीत मुनिया की होगी और वही लोग जो मुनिया के साथ जाति पाति और छुआछूत को लेकर भेदभाव करते हैं वही मुनिया को सलाम करेंगे।
इसे खबर लहरिया के लिए छत्तीसगढ़ से गायत्री द्वारा रिपोर्ट किया गया है।
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