खबर लहरिया Blog महिला आरक्षण पर नेतागिरी करने वाले ‘नेता जी’ के नाम खुला खत

महिला आरक्षण पर नेतागिरी करने वाले ‘नेता जी’ के नाम खुला खत

मैं सज्जो (बदला हुआ नाम) मध्यप्रदेश के आदिवासी समुदाय के जंगलों में बसने वाली चालीस वर्षीय महिला हूँ। कुछ सालों से थक चुकी हूं। कान पक गए महिला आरक्षण सुनते-सुनते। नेता जी! आप ही बताइये कि यह महिला आरक्षण होता क्या है? कहां से आया है? किसलिए आया है? भला महिला आरक्षण कभी दिखाई भी देगा?

                                                                                                                      इलस्ट्रेशन – ज्योत्सना सिंह

मैंने थोड़ा तो सुनी थी महिला आरक्षण के बारे में। 2004 की बात है जब मैं सरपंच पद के लिए चुनाव लड़ी थी, वह भी पति के कहने पर। आगे कहा,

“चुनाव के लिए अपने पति के पीछे-पीछे जाती रही सिर्फ कागजों में अंगूठा लगाने के लिए। जब प्रचार के लिए पर्चे छपे तो पति की फ़ोटो और नाम बड़ा-बड़ा लिखा गया था। मेरा नाम एक कोने में बगैर फ़ोटो के साथ लिखा गया था। अजीब तो लगा और पति से पूछा भी मैंने लेकिन कोई उत्तर ही नहीं मिला।”

मतदान के दिन वोट डालने आये लोग पति से बोलें और चलता बने। मुझसे बोला गया कि मैं दूर ही खड़ी रहूं। भला घूंघट किये मैं कब तक खड़ी रहती। कुर्सी पर भी बैठ नहीं सकती क्योंकि गांव के बड़े बुजुर्गों के सामने बहुएं कुर्सी पर बैठे, ऐसा भला कभी हो सकता था। मुझे पुराना किस्सा याद आ गया जब मैं बीमार हालत में कुर्सी पर बैठ गई थी। उसके ताने आज तक मिलते हैं। चलो यह दिन तो गुज़र गया। 

अब आया मतगणना का दिन। मेरे घर के सब लोग बहुत खुश थे। मुझे नई साड़ी पहनने को बोला गया। मैं अपने पति और गांव के बहुत सारे बड़े बुजुर्गों के साथ वोट गिनती होने की जगह पहुंच गई। आज तो बहुत भीड़ थी। खूब गाजा-बाजा, फूल-माला लिए लोग इतना खुश थे मानो कोई त्यौहार या शादी हो रही हो। थोड़ी देर बाद जैसे ही जिसकी ज़्यादा गिनती आए तो लोग ज़ोर-ज़ोर से जीत गए-जीत गए चिल्लाने लगे। मैं एक पेड़ के नीचे घूंघट की आड़ से सब देख खुश हो रही थी और अपना नाम सुनने को बेताब भी। तभी एक महिला पत्रकार आती हैं और मुझसे पूछने लगी कि मैं चुनाव में खड़ी हूं। मुझे समझ न आये कि क्या बोलूं हां या न। एक बार हां तो दूसरी बार न।

इतने में देखती हूं कि मेरे पति को फूल मालाओं से लाद दिया गया और कई लोग गोदी में उठाये हैं। सब बोल रहे थे कि हम जीत गए, हम जीत गए। बस उनके बगल से मैं भी चलने लगी। जीती मैं और माला पति को, अजीब लग रहा था पर बोल नहीं पाई। 

घर जाकर मैंने पूछना चाहा कि सरपंची महिला जीते और माला पुरुष के गले। मेरे पति बड़ी-बड़ी आंख निकालते और ज़ोर से चिल्लाते हुए बोले,

तेरा क्या मन है कि लोग तुझे माला पहनाएं, मंद बुद्धि औरत। माला पहनना मर्दों का काम है। कभी देखा है किसी महिला को माला पहनाते हुए। वो तो महिला सीट आ गई थी इसलिए कागजी काम तुम्हारे नाम करना पड़ा और आगे भी मुझे ही तो काम करना है। तुम क्या जानो सरपंच का क्या काम होता है। बस तुम्हारे अंगूठे के हस्ताक्षर की ज़रूरत होगी, जो हमारी मजबूरी है। कभी कहना भी नहीं कि तुम सरपंच हो।

पूरी पंचवर्षीय मेरे पति ही सारा काम करते रहे। जब लोग घर आते किसी काम से तो उन्हीं को पूछा जाता, उन्हीं से बात की जाती। मैं एक बार ज़िद करके ब्लॉक गई मीटिंग में शामिल होने के लिए तब वहां से पता चला कि ब्लॉक के तीस से पैंतीस परसेंट ऐसी ग्राम पंचायतें हैं जहां पर महिला सरपंच चुनी गईं हैं लेकिन उन सभी महिलाओं की कहानी मेरे ही जैसी थी। थोड़े दिन बाद मुझे और भी जानकारी हुई कि पंचायत से लेकर संसद तक में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति कुछ ऐसी ही है। तब समझ आई महिला आरक्षण की बात।

अब मैं पूछना चाहूंगी उन गला फाड़ राजनीतिक नेताओं से जो महिला आरक्षण का जाप करते हैं, वाह वाही! बटोरते हैं। क्या यही है महिला आरक्षण? जब चुनाव आते हैं तो ये महिला आरक्षण क्यों याद आता है? आखिरकार यह बिल लोकसभा और राज्यसभा के बीच क्यों डूबता-उतरता रहता है? 4 प्रधानमंत्री, 11 कोशिशें, 27 साल बीत गए लेकिन हर बार क्यों लगता है अड़ंगा महिला आरक्षण विधेयक पास होने में?

पहली बार प्रस्तावित होने के 14 साल बाद महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया। उसके बाद से 13 साल हो गए, ये बिल लोकसभा में पास नहीं हो सका। अब 2023 में मोदी सरकार ने भी इसे लोकसभा में पेश कर दिया है। अगर ये पारित हो गया तो लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित हो जाएंगी। 1993 में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों में पंचायतों और नगर निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गईं। मध्यप्रदेश समेत कई राज्य ऐसे हैं जहां स्थानीय निकाय चुनावों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण लागू किया गया है।

भारत में महिला आरक्षण विधेयक की कहानी भले ही 27 साल पहले शुरू हुई, लेकिन इसकी मांग एक सदी पुरानी है। महिलाओं के लिए राजनीति में आरक्षण की मांग आजादी के पहले से उठ रही है। 1931 में बेगम शाह नवाज और सरोजिनी नायडू ने इस संबंध में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था। इसमें महिलाओं के लिए राजनीति में समानता की मांग की गई थी।

भारत में मतदाताओं की बात करें तो पुरुष मतदाता की संख्या 47.27 करोड़ और महिला मतदाताओं की संख्या 43.78 करोड़ है। प्रतिशत के आंकड़ों में पुरुष मतदाता लगभग 52 फीसदी और महिला मतदाता लगभग 48 फीसदी हैं। वहीं, मतदान के मामले में भी पुरुषों से महिलाएं आगे रही हैं। पुरुष मतदाताओं ने लगभग 67.01 फीसदी मतदान किया तो महिला मतदाताओं ने लगभग 67.18 फीसदी वोटिंग की। जब महिलाएं देश की आधी आबादी हैं तो आरक्षण सिर्फ 33 प्रतिशत क्यों? आरक्षण आप मानते किसको हो? ऐसे, जैसे मैं और मेरी जैसी तमाम वह महिलाएं जिनको ज़ोर ज़बरजस्ती या पुतला बनाकर खड़ा कर दिया जाता है। असल में आप-हम महिलाओं को आरक्षण देना ही नहीं चाहते। इसका असल मकसद है महिलाओं पर वोट बैंक की राजनीति करना। चुनाव के आंकड़े बताने के लिए काफी हैं कि जब-जब महिलाओं ने बढ़-चढ़कर जिस नेता को वोट दिया है उसकी जीत हुई है। चाहें वह 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव हो या दिल्ली की आप पार्टी या पश्चिम बंगाल की टीएमसी पार्टी हो। 

नेता जी! अब आपसे उम्मीद है कि इस पर आप सब विचार करेंगे। हां, एक बार फिर ध्यान से पढ़ लीजिएगा। हो सकता है वह नेतागिरी आप भी कर रहे हों जिसमें महिला आरक्षण कभी लागू न होने वाली टीम में शामिल हों जिसके नाम यह खुला खत है।

 

लेखिका – मीरा देवी 
इलस्ट्रेशन – ज्योत्सना सिंह 

 

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