खबर लहरिया Blog MANREGA News: मनरेगा संकट में, मजदूरों की गारंटी कमजोर और हक की लड़ाई तेज 

MANREGA News: मनरेगा संकट में, मजदूरों की गारंटी कमजोर और हक की लड़ाई तेज 

6 सितम्बर 2025 को नई दिल्ली में नरेगा संघर्ष मोर्चा (NSM) द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस ने एक कड़वी सच्चाई को सामने रखी ‘मनरेगा संकट में है’। मनरेगा मजदूरों के स्वतंत्र यूनियनों के इस गठबंधन ने एनडीए सरकार पर मनरेगा के लिए पर्याप्त धान न देने, मांग को दबाने और बहिष्करी डिजिटल नियंत्रण थोपने का आरोप लगाया।

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सांकेतिक तस्वीर (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

भारत गांवों का देश है। आज भी देश की आधी से ज़्यादा आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है और उनका जीवन खेती-बाड़ी और दिहाड़ी मजदूरी पर टिका हुआ है। लेकिन जब खेती से पेट नहीं भरता और शहरों में रोजगार पाना मुश्किल होता है, तब मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम ही लाखों ग्रामीण और परिवारों के लिए सहारा बनता है। यह योजना सिर्फ रोजगार नहीं देती बल्कि लोगों में यह भरोसा भी जगाती है कि जब कहीं और काम न मिले तो कम से कम सरकार सौ दिन का मजदूरी वाला काम तो देगी। लेकिन अब इसमें एक नया मोड़ आया है। 

बता दें 6 सितम्बर 2025 को नई दिल्ली में नरेगा संघर्ष मोर्चा (NSM) द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस ने एक कड़वी सच्चाई को सामने रखी ‘मनरेगा संकट में है’। मनरेगा मजदूरों के स्वतंत्र यूनियनों के इस गठबंधन ने एनडीए सरकार पर मनरेगा के लिए पर्याप्त धान न देने, मांग को दबाने और बहिष्करी डिजिटल नियंत्रण थोपने का आरोप लगाया। बता दें नरेगा संघर्ष मोर्चा जो इस योजना पर काम करने वाले यूनियनों और संगठनों का एक समूह है ने राष्ट्रीय राजधानी में एक संवाददाता सम्मेलन में अधिकारियों को सचेत किया।

(NSM) जो मनरेगा मज़दूरों के स्वतंत्र यूनियनों और अधिकार संगठनों का गठबंधन है, ने साफ-साफ कहा कि सरकार की नजरअंदाज, कम बजट और डिजिटल नियंत्रणो की वजह से यह योजना अपने मूल मकसद से भटक रही है। मनरेगा मजदूरों ने साफ कहा कि वे रोज़ काम मांगते हैं, लेकिन उन्हें समय पर काम नहीं मिलता, जो काम मिलता है, उसकी मजदूरी बहुत कम है, वेतन महीनों तक अटका रहता है।

मोर्चे ने क्या कहा – 

संगठन ने मांग की है कि मजदूरों को कम से कम राज्य का न्यूनतम वेतन मिले और इसे बढ़ाकर ₹800 प्रतिदिन किया जाए। उन्होंने पश्चिम बंगाल में मनरेगा रोकने को राजनीतिक प्रतिशोध बताया और कहा कि यह मजदूरों के अधिकारों पर हमला है। NSM का कहना है कि मनरेगा कोई खैरात नहीं बल्कि मज़दूरों का कानूनी अधिकार है और इसे कमजोर करने का विरोध जारी रहेगा।

Press Release by NSM

Press Release by NSM

NSM के द्वारा प्रेस विज्ञप्ति (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

मोर्चे ने कहा कि “बजट कटौती ने इस कार्यक्रम को पंगु बना दिया है वेतन बेहद कम है और दोषपूर्ण डिजिटल प्रणालियों के कारण लाखों श्रमिकों को इससे बाहर रखा जा रहा है। जो कभी मांग-आधारित अधिकार-आधारित कार्यक्रम था वह अब एक शीर्ष-स्तरीय कल्याणकारी योजना बनकर रह गया है।”

ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों का हवाला देते हुए, एनएसएम ने बताया कि वार्षिक बजट का 60 प्रतिशत  ₹51,521 करोड़ अगस्त 2025 तक ही खर्च हो चुका है जिससे मजदूरी भुगतान में देरी हो रही है और काम की मांग कम हो रही है। मोर्चा ने यह भी कहा कि 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मजदूरी अभी भी वैधानिक कृषि न्यूनतम मजदूरी से कम है। एनएसएम ने घोषणा की, “हमारी मांग स्पष्ट है प्रत्येक नरेगा मजदूर को कम से कम अपने राज्य का न्यूनतम वेतन मिलना चाहिए और सरकार को ₹800 प्रतिदिन के सम्मानजनक वेतन की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।”

केंद्र सरकार पर प्रहार 

मोर्चा ने पश्चिम बंगाल में मनरेगा को लगातार स्थगित करने की केंद्र सरकार की भी निंदा की, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के 1 अगस्त, 2025 तक इस योजना को फिर से शुरू करने के आदेश की अवहेलना है। वक्ताओं ने कहा, “यह मज़दूरों के जीवन की कीमत पर राजनीतिक प्रतिशोध से कम नहीं है। अगर भ्रष्टाचार ही मुद्दा है, तो सामाजिक लेखा परीक्षा और शिकायत निवारण प्रणालियों को मज़बूत करें, लाखों मज़दूरों को सज़ा न दें।”

मोर्चे ने ​​सरकार द्वारा इस कार्यक्रम के लिए सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.3 प्रतिशत आवंटित करने की आलोचना की, जो अनुशंसित 1.6 प्रतिशत से बहुत कम है। अर्थशास्त्री राजेंद्रन नारायणन ने इस बात पर प्रकाश डाला कि “कोविड के दौरान इस तरह के अपर्याप्त वित्तपोषण में मामूली राहत मिली थी, जब सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.58 प्रतिशत आवंटन किया गया था। लगातार अपर्याप्त वित्तपोषण के कारण भुगतान में देरी हो रही है और काम की मांग कम हो रही है।” उन्होंने आगे कहा “विश्व बैंक के शोधकर्ताओं ने कहा था कि इस कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से चलाने के लिए, कम से कम जीडीपी का 1.6 प्रतिशत आवंटित किया जाना चाहिए। अभी कितना आवंटित किया गया है? यह जीडीपी का लगभग 0.3 प्रतिशत है। आज का आवंटन इतना ही है। आवंटन केवल कोविड वर्ष में थोड़ा अधिक हुआ था जब यह जीडीपी का 0.58 प्रतिशत था।”

मोर्चे ने यह भी कहा कि 2022 में एनएमएमएस ऐप के लिए डुप्लिकेट कम करना अनिवार्य है वास्तव में “डुप्लुयोग और बढ़ोतरी” में वृद्धि का कारण बना है। श्रमिक दो साल से अधिक समय से इसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं, और 2023 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर 60 दिनों की हड़ताल भी दी थी। उन्होंने कहा कि एबीपीएस के कारण बड़े पैमाने पर लोगों को बाहर किया गया है। “आधार और जॉब कार्ड के बीच में मामूली बदलावों के कारण एमजीएनआरईजी अधिनियम के विपरीत, वेतन और काम दोनों को खारिज किया जा रहा है।”

प्रेस कॉन्फ्रेंस में कौन-कौन थे शामिल 

प्रेस कॉन्फ्रेंस में वक्ताओं में राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन के मुकेश, संगतिन किसान मजदूर संगठन की रामबेटी, पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति की अनुराधा तलवार, दलित बहुजन फ्रंट के शंकर और समाज परिवर्तन शक्ति संगठन की मंदेश्वरी शामिल थीं।

एनएसएम ने सरकार से की ठोस मांगें 

  • मजदूरी बढ़ाकर कम से कम 800 प्रतिदिन की जाए।
  • NMMS ऐप और ABPS पेमेंट सिस्टम को तुरंत खत्म किया जाए।
  • मजदूरी का भुगतान 15 दिन के भीतर हो।
  • काम की गारंटी 100 दिन से बढ़ाकर 200 दिन की जाए।
  • पश्चिम बंगाल में मनरेगा तुरंत बहाल किया जाए।
  • सामाजिक ऑडिट को मजबूत किया जाए ताकि भ्रष्टाचार रुके।
Agitation

आंदोलन (फोटो साभार: सोशल मीडिया)

डिजिटल ताले में फसता जा रहा है रोजगार 

योजना में काम पाने और पेमेंट के लिए मज़दूरों पर NMMS ऐप और आधार-आधारित भुगतान सिस्टम (ABPS) थोपा गया है। लेकिन समस्या ये है कि गांवों में नेटवर्क नहीं होता, ऐप पर रोज़ाना फोटो अपलोड न कर पाने से मज़दूर काम से बाहर कर दिए जाते हैं, लाखों मजदूरों के खाते ABPS से जुड़ नहीं पा रहे जिससे वेतन फंस रहा है। झारखंड के संतोष उरांव कहते हैं, “नेटवर्क नहीं आता, ऐप पर फोटो नहीं चढ़ता। सुपरवाइज़र कहता है तुम काम ही मत करो। यह तो मज़दूरों को बाहर करने की चाल है।”

योजनाएं सिर्फ फ़ाइलों में जिसे लेकर मनरेगा में ग्रामीणों द्वारा किए गए कई आंदोलन 

देश में मनरेगा के लिए सरकार द्वारा नियम और योजनाएं तो निकाली जाती हैं लेकिन धरातल में स्थिति कुछ और ही होती है। इसी से संबंधित खबर लहरिया टीम ने कई जगहों पर ग्राउंड रिपोर्टिंग भी किया है जहां लोगों की अलग-अलग परेशनियां सामने आई।

इन्हीं मुद्दों को लेकर पहले भी नरेगा संघर्ष मोर्चा (NSM) और विभिन्न किसान-मजदूर संगठनों ने समय-समय पर बड़े आंदोलन किए। सबसे बड़ा आंदोलन अगस्त 2022 में किया गया था, जब देश भर से आए मज़दूरों में दिल्ली के जंतर मंतर पर तीन दिनों तक धरना दिया था। इसी दौरान उनकी मुख्य मांग थी कि बकाया मज़दूरी का तुरंत भुगतान हो, बजट बढ़ाया जाए और योजना में पारदर्शिता लाई जाए। इसके बाद फरवरी 2023 से लेकर अप्रैल तक जंतर मंतर पर सौ दिनों तक लगातार विरोध प्रदर्शन चला। इसमें मज़दूरों ने एनएमएमएस (NMMS) और आधार आधारित भुगतान प्रणाली को हटाने, समय पर मज़दूरी देने और पर्याप्त बजट की मांग की। 

इसी दौरान फरवरी 2023 में एक और आंदोलन हुआ जहां मज़दूरों ने NMMS एप को ‘निगरानी और औज़ार’ बताते हुए इसका विरोध किया। उनका कहना था कि इस डिजिटल व्यवस्था से मज़दूरों का शोषण बढ़ रहा है और काम की गारंटी कमजोर हो रही है। अप्रैल 2023 में एक और बड़ी पहल हुई, जब मजदूरों ने पूरे देश में करीब 10,000 जगहों पर रैलियां और विरोध प्रदर्शन किए। इन प्रदर्शनों का मकसद था कि मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अधिनियम जैसी योजनाओं को कमजोर न किया जाए।

अगस्त सितंबर 2024 में मज़दूरों ने पोस्टकार्ड अभियान चलाया और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर ख़ासतौर पर पश्चिम बंगाल पर मनरेगा काम तुरंत शुरू करने की मांग रखी। उसी महीने 28 सितंबर को रांची में एक विशाल प्रदर्शन हुआ। इसमें झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओड़िसा और बंगाल से हज़ारों मज़दूर शामिल हुए। 

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इसके बाद दिसंबर 2024 में मज़दूर फिर दिल्ली पहुंचे। उन्होंने दो दिन तक धरना दिया और ग्रामीण विभाग मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाक़ात की। मज़दूरों की मुख्य मांगे थीं – जॉब कार्ड बहाल किए जाए, समय पर मज़दूरी मिले और डिजिटल आधार आधारित व्यवस्था हटाई जाए। इस दौरान मज़दूरों ने बाबा साहब अंबेडकर को श्रद्धांजलि भी अर्पित की।

मनरेगा करोड़ों ग्रामीण परिवारों की जीविका की सबसे बड़ी गारंटी है। दरअसल आज सवाल सिर्फ मनरेगा का नहीं उन मज़दूरों के अधिकार और गरिमा का है जो अपने श्रम से देश की रीढ़ की हड्डी बने हुए हैं। अगर सरकार वाक़ई ग्रामीण भारत को मज़बूत बनाना चाहती है तो उसे मनरेगा को नजरअंदाज़ करने के के बजाय मज़बूत करने की जरुरत है। मनरेगा का मज़बूत होना सिर्फ ग्रामीण भारत का जरुरत नहीं, देश के सामाजिक और आर्थिक ढाँचे को टिकाए रखने के लिए आवश्यक शर्त है। 

 

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