गेंदा रानी कहती हैं, “एक महीना हो गए मुझे आंखें बनवाए। मुझे डॉक्टर ने मना किया है कि आप धुंए में खाना नहीं बनाएंगी। आंखों से दिख नहीं रहा था क्योंकि एक लोगों के लिए खाना हो तो तुरंत बन जाता है। सौ-सौ बच्चों का खाना बनाना है वह भी चूल्हे में, तो आंखें तो खराब ही होंगी। कई बार मास्टरों से मांग की कि हमें गैस सिलेंडर भरवा दीजिए हम भी गैस सिलेंडर से खाना बनाएंगे और बच्चों को खिलाएंगे। हमारा भी स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और टाइम से खाना भी बनेगा।”
रिपोर्ट – श्यामकली
ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर महिलाएं मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाती हैं लेकिन चूल्हे से उठते धुंए का असर उनकी आँखों पर पड़ता है जिससे उनकी आंखे खराब हो जाती हैं। धुआँ होने से कई तरह की साँस की बीमारी भी होती है। घरों में तो खाना मिट्टी के चूल्हे पर बनता है क्योंकि उनकी मज़बूरी है। इतनी महंगाई में वो गैस सिलेंडर के पैसे कहाँ से जुटा पाएंगी। बात करें सरकारी स्कूल में खाना बनाने की तो वहां तो गैस सिलेंडर की सुविधा होनी चाहिए। स्कूलों में जो खाना बन के तैयार होता है उसे मिड डे मील कहा जाता है। आधुनकि दौर में आज भी उत्तर प्रदेश के महोबा जिला के कबरई ब्लॉक के गांव में प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक अटघार विद्यालय में मिड डे मिल का खाना महिलाएं मिट्टी के चूल्हे पर बनाती हैं।
ऐसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2021 में उज्ज्वला योजना चलाई थी जिसमें उत्तर प्रदेश में गरीब परिवार को 8 करोड़ सिलेंडर गैस चूल्हे मुफ्त में मिले हैं। कुछ महिलाओं को धुँवा से छुटकारा तो मिलेगा लेकिन उन महिलाओं का क्या जो स्कूलों में जाकर फिर से उसी धुवाँ का सामना करती हैं। हम बात कर रहें हैं महोबा जिले की जहां आज भी महिलाएं मिड डे मील चूल्हे पर बनाकर आंसू बहा रही हैं। महोबा जिला के कबरई ब्लाक के गांव अटघार जूनियर और प्राथमिक विद्यालय में खाना बनाने के लिए पांच महिलाएं लगी हैं पर वह मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाती हैं। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय में उत्तर प्रदेश में 2004 से बच्चों के लिए मिड डे मील का खाना पका पकाया मिलता है।
प्राथमिक विद्यालय अटघार जहां पहली कक्षा से पांचवी कक्षा तक के बच्चे पड़ते हैं। रानी जो मिड डे मिल का खाना बनाती हैं, उनका का कहना है कि “2009 से मैं खाना बना रही हूं, मेरे पति भी नहीं है। मजबूरी है खाना बनाना, जिससे मैं अपने चार बच्चों का भरण पोषण कर सकूं। 2009 से खाना बनाते हुए चूल्हे में आंखें तक खराब हो गई हैं, लगता है कि 2000 रुपए महीने मिल रहे हैं उतना ही बहुत है। क्या करेंगे कहां जाएंगे बच्चे लेकर? सौ बच्चों का खाना तीन लोग मिलकर बनाते हैं।”
ये भी देखें – लकड़ियों के सहारे चल रहा जीवन, जल रहा घर का चूल्हा
चूल्हे पर काम करते हुए ऑंखें हुई खराब
गेंदा रानी कहती हैं, “एक महीना हो गए मुझे आंखें बनवाए। अपने बदले में एक को लगाई हुई हूं क्योंकि मुझे डॉक्टर ने मना किया है कि आप धुंए में खाना नहीं बनाएंगी। आंखों से दिख नहीं रहा था क्योंकि एक लोगों के लिए खाना हो तो तुरंत बन जाता है। सौ-सौ बच्चों का खाना बनाना है वह भी चूल्हे में, तो आंखें तो खराब ही होंगी। कई बार मास्टरों से मांग की कि हमें गैस सिलेंडर भरवा दीजिए हम भी गैस सिलेंडर से खाना बनाएंगे और बच्चों को खिलाएंगे। हमारा भी स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और टाइम से खाना भी बनेगा। हम 8:00 बजे सुबह आ जाते हैं और खाना बनाने लगते हैं तब भी 1:30 बज जाते हैं।”
ललिता और फूल कुंवर जूनियर स्कूल में खाना बनाती है। इनका कहना है कि “हमारे स्कूल में किचन पक्की है और खाना हमें चूल्हे में बनाना पड़ता है। किचन के अंदर चूल्हे पर वहां रोटी बनाते हैं तो बहुत धुआँ लगता है और पसीना आता है। इसलिए अब किचन के बाहर ही चूल्हा बनाए हुए हैं खाना बनाने के लिए। बाहर इतनी तेज धूप हो जाती है खाना बनाते समय कि 5 घंटा खाना बनाना मुश्किल पड़ता है। जिस दिन रोटी बनाते हैं उस दिन और दिक्कत होती है। अब क्या करें बच्चों को खाना तो खिलाना ही है चाहे जैसे बनाएं। यहां के टीचर कभी गैस सिलेंडर नहीं रखवाए हैं ताकि हम गैस सिलेंडर से खाना बना सके। कहते हैं टीचर्स से तो कहते हैं कि सिलेंडर बहुत महंगा आता है आप खाना लकड़ी से बनाओ और कंडा- लकड़ी साल भर के लिए रख देते हैं। हम गरीबों की कौन सुनने वाला है, अगर किसी से ज्यादा कहते हैं तो बस धमकियां देते हैं कि आपको नहीं बनाना है तो मत बनाइए दूसरी खाना बनाने वालियों को लगा लेंगे।”
पूर्व माध्यमिक विद्यालय अटघार के इंचार्ज अध्यापक ने बताया है कि “8 जुलाई से हमारे यहां खाना बनाना शुरू हो गया है। खाना प्रधान जी बनवा रहे हैं वह कैसे बनवा रहे हैं यह उनकी जिम्मेदारी है।”
ये भी देखें – जरूरी क्या है दिया जलाना या चूल्हा?
प्रधानाध्यापक ने कहा महिलाओं को गैस सिलेंडर की समझ नहीं
जब इंचार्ज प्रधानाध्यापक अरुण त्रिपाठी से बात की गई तो उनसे पूछा गया कि अगर खाना बनाने वाली लेट आती हैं और खाना समय से बच्चों के लिए नहीं बनेगा तो आप क्या कहेंगे? उन्होंने जवाब दिया कि हम प्रधान को फोन लगाएंगे कि खाना बनाने वाली नहीं आई है। वो आई है तो समय से नहीं बना कर दी है। जो खाना बनाती हैं वह हमसे कभी नहीं कही है कि हम चूल्हा में खाना नहीं बनाएंगे हमें गैस सिलेंडर रखवा दो। पहले गैस सिलेंडर में ही खाना बनता था लेकिन एक बड़ी आग लग गई थी लगभग तीन-चार साल पहले, इन महिलाओं को गैस सिलेंडर जलाना नहीं आता है। इस वजह से खाना चूल्हे में बनाया जा रहा है।
महिलाओं ने प्रधानाध्यापक की बात से किया इंकार
जब मिड डे मिल का काम संभाल रही महिलाओं से पूछा तो उन्होंने प्रधानाध्यापक की बात से इंकार कर दिया कि आग लाइट से लगी थी, ना कि सिलेंडर से। वह अपने बचाव के लिए ऐसा कह रहे हैं कि सिलेंडर से आग लगी थी। हमारे भी घर में गैस सिलेंडर है, कभी-कभार खाना गैस सिलेंडर से ही बनता है। मानते हैं कि बड़ा चूल्हा होगा स्कूल के लिए पर उनको बताना तो होगा और ना ही कभी उन्होंने बताया है और ना ही कभी गैस सिलेंडर आया है खाना बनाने के लिए।”
खंड शिक्षा अधिकारी कबरई मनीष यादव ने बताया है कि ऐसी शिकायत मेरे यहां नहीं आई है अगर ऐसी शिकायत है कि उन्हें चूल्हे से दिक्कत हो रही है तो मैं अब देख लूंगा।
प्रधान सुदामा के घर गए बात करने गए तो पता चला कि प्रधान घर में नहीं महोबा में है। उनके पति रमाशंकर कुशवाहा ने बताया कि खाना इसलिए मिड डे मील का बनवा रहा हूं चूल्हे में कि बच्चे चूल्हे के खाने से स्वस्थ रहें और चूल्हे में हमेशा खाना हमारे विद्यालय में बनता आया है। अगर खाना बनाने वालों को दिक्कत हो रही है चूल्हे में खाना बनाने के लिए तो वह हमसे कहें। हम किसी और खाना बनाने वाले को ढूंढ सकते हैं क्योंकि बच्चों को स्वास्थ्य देखना है हमें चूल्हे के खाना का टेस्ट ही अलग रहता है।
‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’