गेंहूं और चने को अच्छे से धोकर कोहरी बनाई जाती है। कोहरी बनाने के लिए एक रात पहले रातभर उसे फूलने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर इसे अगली सुबह निकालकर पानी के एक बर्तन में डालकर धीमी आंच पर पकाया जाता है।
बुन्देलखण्ड। एक समय था जब ग्रामीण क्षेत्रों में ज़्यादातर लोग नाश्ते में चना और कठिया गेहूं की ‘कोहरी’ खाया करते थे। सर्दियों में ज्वार और मूंग या रेऊंछा की कोहरी खाया करते थे। सर्दियों में ज्वार का हरा-हरा ताज़ा दाना खेतों से आता था। फिर हरी चटनी या गुड़ के साथ उसे खाते थे। आहा! क्या स्वादिष्ट मिठास होती थी। अब कोहरी के लिए शहरों के लोगों को मुंह ताककर गांव की ओर देखना ही पड़ता है।
ये भी देखें – सर्दियों में खाएं बाजरे से बने व्यंजन, शरीर के लिए है फायदेमंद, बीमारी को भी रखता है दूर
दादी-बाबा के साथ कोहरी खाने की कहानी
अब धीरे-धीरे गांव का देसी खान-पान, त्योहार, तौर-तरीके और परंपरा सब बिखरती जा रही है। फिर भी कभी-कभी पुराने खान-पान और दादी-बाबा की अनकही कहानियां याद आती हैं।
अभी कुछ दिनों पहले जब हम एमपी में चुनाव कवरेज के लिए गांव गए थे, वहां एक छोटी-सी बच्ची अपने दादा के साथ ज्वार का भउंटआ लेकर आ रही थी। उसे देख हमें अपने पुराने दिन याद आ रहे थे, जब मैं बचपन में अपने बाबा के साथ बैठकर कोहरी खाया करती थी। वह गुड़ से खाते थे और मैं हरी चटनी के साथ, बहुत मज़ा आता था। इतना ही नहीं बाबा और मेरे बीच कॉम्पिटिशन भी होता था कि कौन जल्दी खाएगा फिर क्या था जमकर ठहाके लगाते थे।
आर्द्रा त्यौहार में खाते थे कोहरी
‘कोहरी’ का वो बचपन वाला स्वाद आज भी मुझे इतना याद है कि कोहरी देखते ही मेरी ज़ुबान पर उतर आता है। अब मैं गांव से दूर कस्बे में रहती हूँ पर इस मौसम में हर साल उसे याद करती हूं। बेमौसम बरसात की तरह वो दिन और महीने आते है और गुज़र जाते हैं। मुझे याद ही नहीं रहता कि मैं जून में होने वाले आर्द्रा त्योहार में गेहूं और चने की कोहरी बना कर खा सकूं या फिर नवंबर में ताजे ज्वार के दाने और मूंग या रेऊंछा की कोहरी बना कर खा सकूं।
कोहरी ज़्यादातर किसानों के घरों में ही बनती थी लेकिन आर्द्रा के त्योहार में हर कोई बनाता था। पहले किसान कठिया गेहूं बहुत बोया करते थे। इस गेहूं की उपज अब कम होने से इसकी बुआई भी क्षेत्र में न के बराबर है लेकिन हाँ, अभी-भी आर्द्रा के त्यौहार में लोग गेहूं और चने की कोहरी ज़रूर बनाते हैं।
ऐसा नहीं है कि जिस कस्बे में मैं रहती हूँ वहां के बाजार में वो चीजें मिलती नहीं हैं। खैर मैं अपने हिस्से की ‘कोहरी’ तो देर-सवेर किसी तरह खा ही लूंगी। जैसे अभी हाल ही में अगस्त के महीने में जब पूरी टीम के साथ राजस्थान जा रही थी, तो बस में कठिया गेहूं और चने की कोहरी हरी चटनी के साथ मज़े से खाई थी। आपको भी कोहरी को ज़रूर से चखना चाहिए और गांव की उन पुरानी चीजों को याद रखना चाहिए।
ये भी पढ़ें – महुआ (Mahua) से बनने वाले व्यंजन
‘कोहरी’ से जुड़ा मज़ाकिया वाक्य
सर्दियों का समय था। अभी भी याद है, बचपन में जब मैं ज्वार और रेऊंछा की कोहरी खा रही थी तो खाते-खाते मैंने अपनी दादी से पूछा था कि इसका नाम ‘कोहरी’ ही क्यों है? इस सवाल पर मेरी अम्मा कहती हैं कि ‘शायद कोहरे या बरसात के समय में कोहरी ज्यादा खाई जाती है, इसी वजह से इसे कोहरी कहा जाने लगा होगा।’ मैं ज़ोर से हंसी, मेरी दादी मां से छुपकर कुछ भी बोलती हैं। कहतीं, किसान के घर की है ना तू इतना भी नहीं पता।
बता दूँ, बुंदेलखंड क्षेत्र में ‘कोहरी’ को गेहूं की नई फसल के उत्सव के रूप में देखा जाता है। यह पीढ़ियों से चला आ रहा है कि आषाढ़ में लगने वाले आर्द्रा के त्योहार पर गेंहू और चने की कोहरी बनाई और खाई जाती है। सर्दियों में आनाज के रुप में ज्वार और मूंग या रेऊंछा की कोहरी बनाकर खाई जाती है। इतना ही नहीं कोहरी खाने के फायदे भी बहुत होते हैं क्योंकि यह मोटा अनाज होता है।
सेहत के लिए भी बेहतर है ‘कोहरी’
कोहरी तो कभी-भी बनाकर खाई जा सकती है खासकर चना और गेहूं की या फिर रेऊंछा मूंग की या फिर तिल डालकर। नये गेहूं से बनी कोहरी बरसात में होने वाले रोगों से शरीर की सुरक्षा करती है और लड़ने को ताकत देती है। ऐसा इलसिए क्योंकि यह कठिया गेहूं और चने से बनी होती है, जो लाल रंग का मोटा गेहूं होता है जिससे स्वाद और पौष्टिकता बढ़ती है। इसी तरह ज्वार और मूंग की कोहरी जो सर्दी में खाते हैं, उसे खाने से सर्दी नहीं लगती।
ऐसे बनाकर खाएं ‘कोहरी’
गेंहूं और चने को अच्छे से धोकर कोहरी बनाई जाती है। कोहरी बनाने के लिए एक रात पहले रातभर उसे फूलने के लिए छोड़ दिया जाता है। फिर इसे अगली सुबह निकालकर पानी के एक बर्तन में डालकर धीमी आंच पर पकाया जाता है। जब कोहरी पक जाती है और पानी सूख जाता है तो वह हल्की गली हुई दिखती है। अच्छी तरह से उबलने के बाद कोई कोहरी में देसी घी और शक्कर मिलाकर खाया जाता है,तो कुछ लोग शक्कर की जगह गुड़ मिलाकर खाते हैं। कुछ लोग तो हरा धनिया, मिर्च और लहसुन की चटनी के साथ खाते हैं जोकि बहुत ही स्वादिष्ट होता है।
अम्मा बताती हैं कि अब त्योहार में भी कोहरी बनाने का चलन गांव से लगभग खत्म होता जा रहा है। किसानों के घरों को छोड़कर जहां बुजुर्ग महिलाएं हैं, वहीं ‘कोहरी’ बनती है। आज की युवा पीढ़ी को पुरानी परंपरा वाला खान-पान नहीं भाता, जो इसके विलुप्त होने की एक वजहों में से एक है।
आज कल की युवा पीढ़ी को शहर के दो कमरे वाला मकान ही अपना घर लगता है। उसका बचपन भी तो वहीं आसपास के किसी पार्क में खेलते हुए बीतता है। वो गांव की सौंधी मिट्टी में लौटा ही नहीं, ना गांव के खान-पान और धूल-मिट्टी का स्वाद उसने चखा तो फिर उसे गांव वाले घर के आंगन, गांव की चौपाल या बगीचों और खेतों में उगने वाली ज्वार, मूंग, रेऊंछा या गेंहू चना की कोहरी कैसे पसंद होगी।
लेकिन हां, जिसने ये बचपन जीया है , कोहरी बनाई और खाई है और साथ में दूसरों को भी खिलाई है…… वह किसी भी शहर के कोने में क्यों ना बैठा हो, कभी ना कभी अपने गांव की याद और पुराने खान-पान की याद खासकर आर्द्रा के त्योहार में बनने वाली गेंहू और चना की कोहरी और सर्दियों में ज्वार और मूंग की कोहरी मौसम देखकर याद आ ही जाती होगी।
इस लेख को गीता देवी व संध्या द्वारा लिखा गया है।
‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’