थारू जनजाति का नाम सुनते ही जेहन में वो रंग बिरंगी चोली घाघरा और दुपट्टे के साथ -साथ हाथ पैरों में चांदी के कड़े पहने महिलाओं की तस्वीर उभरती है। वैसे तो बदलते समय में पुराने पहनावे की घाघरा चोली का स्थान अब सलवार कुर्ता व जींस टाप ने ले लिया है। लेकिन महोबा जिले में थारू जनजाति के लोग आधुनिकता के दौर में भी पुरानी परंपराओं को संजोए हुए हैं। यहां आज भी परंपराओं का उतना ही सम्मान है, जितना पिछली पीढिय़ों में था। ऐसा नहीं कि यह समुदाय तेजी से हो रहे सामाजिक बदलाव से अछूता है। पर अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए भी वह उतना ही सचेत हैं आइये मिलवाते हैं आपको ऐसी ही कुछ थारु जनजाति की कुछ बुजुर्ग महिलाओं से जो परंपरागत पहनावा पहनती हैं।
जिला महोबा ब्लॉक जैतपुर कस्बा अजनर में लगभग 25 आदिवासी परिवार रहते हैं। हमने बढ़ते फैशन को लेकर यहां की महिलाओं से बात की। वह कहती हैं कि मन तो उनका भी करता है। कभी-भी वह पहन भी लेती हैं।
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वह आगे कहती हैं कि, ‘पहले में और अब में बहुत बदलाव आ गया है। पहले ज़्यादातर हम लोग सोने और चांदी के गहने पहनते थे। डेली यूज़ में पुराने गहने भी बहुत अच्छे लगते थे। हमारे दुपट्टे में भी चांदी की घुंघरू लगी रहती थी। अब इतना खर्च बढ़ गया है और महंगाई आ गई है जिससे की रोज़ का कमाना-खाना मुश्किल पड़ रहा है। पहले हम लोग चांदी का चूड़ा पहनते थे। अब तो बस चांदी का ही गोटा पहन रहे हैं।’
जब उनसे पहनावे के बारे में बात की गयी कि लहंगा कितने मीटर का बनता है? उन्होंने बताया कि 15 मीटर का उनका लहंगा बनता है और 2 से ढाई मीटर की चोली अकोटी बनती है। दुपट्टा अलग से ओढ़ते हैं। पुराने लोगों ने यह भी बताया है कि वह लोग अपने हाथों से ही लहंगा सिलते हैं। एक लहंगा 2 दिन में सिल पाते हैं। सारी मेहनत सुई-धागे की होती है।
महिलाएं आगे कहती हैं कि पहले की महिलाओं को देखते हुए उन्होंने उनकी तरह वस्त्र पहनना शुरू कर दिया। यह पहनना उनकी मजबूरी भी है। वह कहती हैं, ‘यह घाघरा नहीं पहनेंगे तो हमारी जात की कैसे अलग से पहचान होगी। हम अलग से पहचान को लेकर यह घाघरा पहनते हैं।’
दूसरी बात यह है कि वह लोग घाघरा इसलिए पहनती हैं क्योंकि उन्हें लोहा कूटना पड़ता है। लोहा कूटने में साड़ी फिसल जाती है लेकिन लहंगा नहीं फिसलता। लहंगा ढका हुआ भी होता है और ढीला भी। शादी में लोग आज भी लहंगा ही पहनते हैं और नाक में बड़ी बाली।
महिलाएं कहती हैं,’हमारा भी दिल करता है कि हम भी अच्छे घरों में रहें। अच्छे कपड़े पहने पर हमारे नसीब में यह सब चीजें नहीं है। फिर भी जो भी है वह हम खुशी से जीते हैं और खुशी से पहनते-ओढ़ते हैं।’
वह आगे कहती हैं कि, ‘ढाई सौ ग्राम के तो हमारे पैरों के पहनने के चूड़ा होते हैं। यही हम पहनते हैं। पहले ज़्यादातर कानों में और गले में भी पहनते थे लेकिन अब उतना गुंजाइश नहीं है। फिर भी अभी इतना है कि पैरों में बड़े-बड़े बिछिया डाले रहते हैं। उसे अपने हाथ से ही बनाते हैं। हमारा काम है हम हंसिया-खुरपी बनाते हैं।’
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