दंगल जिसे कुश्ती, मल युद्ध, पहलवानी और अंग्रेजी में रेसलिंग भी कहा जाता है। यह खेल मिट्टी में खेला जाता है। महोबा जिला, गांव खरेला के रहने वाले गब्बर सिंह बचपन से ही पहलवानी करते आ रहे हैं। पहलवानी करना उनकी परंपरा है। वह बताते हैं, पहले उनके बाप-दादा पहलवानी करते थे। उन्हीं को देखते हुए वह भी करने लगे। यह बुंदेलखंड का कल्चर है। ज़्यादातर दंगल गांव-गांव में होते हैं।
यह सर्दी के महीनों में अच्छा होता है क्योंकि इसमें मेहनत का काम होता है। इसमें खान-पान की बहुत ज़रुरत होती है। वह लोग दंगल जीतते हैं तो उन्हें खुशी होती है। अगर वह दंगल हार जाते हैं तो लगता है कि उनकी पहलवानी में कुछ कमी रह गई है इसलिए वह हार गए हैं। वह यह भी कहते हैं कि वह लोग छोटे ही कपड़े पहनकर पहलवानी करते हैं। पहलवानी करते समय उन्हें ज़्यादातर ध्यान देना पड़ता है, कैसे मारते हैं आदि चीज़ों का। इन बातों का ध्यान देते हुए वह लोग पहलवानी करते हैं। अगर ध्यान ना दें तो सामने वाला हरा देता है।
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ब्रजराज गांव के रिवाई ने बताया है कि दंगल का शौक उन्हें बचपन से ही था। दंगल के लिए एक दिन का समय लगता है। उनके बच्चे भी पहलवानी करते हैं। उन्होंने कहा कि यह एक ऐतिहासिक चीज़ है जिसे वह करते रहेंगे।
गीता सिंह ने बताया है कि महिलाओं का दंगल सिर्फ शहरों में देखने को मिलता है। गाँवों में सिर्फ पुरुषों का होता है। महिलाओं को मौका नहीं मिल पाता है।
कुलपहाड़ कस्बे के रहने वाले उद्घोषक प्रदीप सिंह यादव ने बताया है कि जब दंगल होता है तो वह लोग माइक से बोलते हैं। बोलते समय बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। पूरी ज़िम्मेदारी उद्घोषक की होती है। वही हार-जीत का फैसला भी करता है।
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