हर किला युगो –युगो तक अपने साथ एक राज़ छिपा कर चलता है। राज़ या तो दिल दहलाने वाला होता है या तो चौकाने वाला। उत्तर प्रदेश के जिला बाँदा के कालिंजर किला का इतिहास भी कुछ ऐसा ही है। इस किले के इतिहास में भी ऐसे कई राज़ छुपे है जो लोगो को कालिंजर जाने को मज़बूर करते है। इस किले ने बहुत सी कहानियां लिखी और कही हैं।
यह किला ज़मीन से 800 फ़ीट ऊपर पहाड़ी पर बना हुआ है। यह विंध्याचल पर्वतमाला के अन्य पर्वत जैसे मईफ़ा पर्वत, फ़तेहगंज पर्वत, पाथर कछार पर्वत, रसिन पर्वत, बृहस्पति कुण्ड पर्वत, आदि के बीच बना हुआ है। किले की लम्बाई 108 फ़ीट है। हिन्दू पौराणिक ग्रंथो में कई जगह कालिंजर के बारे में बताया गया है। कालिंजर का अर्थ होता है ‘ कल को जर्जर करने वाला‘ . अलग –अलग युगों में कालिंजर को अलग–अलग नाम से जाना गया। हिन्दू महाकाव्यों के अनुसार सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यमगढ , द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में किले के नाम कालिंजर पड़ा।
फारसी इतिहासकार फ़िरिश्ता के अनुसार, 6वीं शताब्दी में केदार राजा नामक व्यक्ति ने कालिंजर शहर की स्थापना की। उसके बाद 15वीं शताब्दी तक कालिंजर किले पर चंदेल शासको का ही राज रहा। महमूद ग़ज़नवी ,कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू ने किले पर कब्ज़ा करने की बहुत कोशिश की। किले को अपने अधीन करने के लिए बहुत सारी लड़ाइयां भी लड़ी गयी। मगर कोई कामयाब नहीं रहा। सिर्फ बाबर ही किले पर कब्ज़ा कर सका , जिसका ज़िक्र बाबरनामा , आइने अकबरी आदि ग्रंथो में किया गया है।
बाबर ने कालिंजर के किले को उपहार के रूप में बीरबल को दे दिया। बीरबल के बाद किले पर बुन्देल राजा छत्रसाल का अधिकार हो गया। इसके बाद पन्ना के शासक हरदेव शाह ने इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया। 1812 में किले पर अंग्रेज़ो का राज हो गया। ब्रिटिश सरकार ने किले के कई भागो को तोड़ दिया है जिसके निशान किले में आज भी मौजूद है। 1947 में भारत की आज़ादी के साथ –साथ किला भी शासको के राज़ से मुक्त हो गया।
किले में घुसते ही हमें कई छोटी–बड़ी गुफाएं दिखाई देती है। गुफाएं ऐसे की वो खत्म कहां होगी ,किसी को पता ही नहीं। किले में राजा महल और रानी महल के दो बड़े–बड़े महल है। महल में एक जलाशय है जिसे पातालगंगा के नाम से जाना जाता है। यहां के पांडव कुंड में चट्टानों से लगातार पानी टपकता रहता है। यह कहा जाता है कि यहां कभी शिव की कुटिया हुआ करती थी। जहां शिव भक्त आकर तपस्या करते थे। शिव की कुटिया के नीचे से ही पातालगंगा होकर बहती थी। उसी से ये कुंड भरता था।
किले में है सात बड़े द्वार
किले में अद्भुत गुफाओं के आलावा सात बड़े दरवाजे भी है। पहले दरवाजे को सिंह द्वार, दूसरे को गणेश द्वार, तीसरे को चंडी द्वार, चौथे द्वार को स्वर्गारोहण या बुद्धगढ़ द्वार कहते है। चौथे द्वार के पास एक जलाशय है जिसे भैरवकुंड या गंधी कुंड खा जाता है। किले के पांचवे दरवाजे हनुमान द्वार को बहुत ही कलात्मक तरीके से बनाया गया है। दरवाजे पर मूर्तियां ,चंदेल शासको से जुड़े लोगो के चित्र व श्रवण तथा उसके माता–पिता की भी तस्वीर भी बनाई हुई है। छठा दरवाजा लाल द्वार कहलाता है। इस दरवाजे के पश्चिम में हम्मीर कुंड है। सांतवे मतलब आखिरी दरवाजे को नेमि द्वार खा जाता है। इस दरवाजे को महादेव द्वार भी कहते है। इन सात दरवाजो के आलावा किले में मुगल बादशाह आलमगीर औरंगज़ेब ने भी कई दरवाजे बनवाए। उनमे चौबुरजी दरवाजा, बुद्ध भद्र दरवाजा, और बारा दरवाजा शामिल है।
कुछ रहस्य्मयी कहानियां
किले के बारे में लोगो से कुछ रहस्य्मयी कहानियां भी सुनने को मिलती है। कहा जाता है कि रात के समय में किले से घुंघरुओं की आवाज़ आती है। 1500 साल पहले रानी महल में हर रात महफिले सज़ा करती थी। जिसमे पद्मावती नाम की नर्तकी नाचती थी। वो देखने में इतनी खूबसूरत थी की जो भी उसे देख ले तो बस देखता ही रह जाता था। जब वह नाचती थी तब चंदेल राजा नर्तकी की घुंघरू की धुन में खो जाते थे। पद्मावती भवान शिव की भक्त थी। हर कार्तिक पूर्णिमा की रात को खुलकर नाचती थी। इस दौर में पद्मावती तो नहीं है लेकिन उसके घुंघरुओं की धुन आज भी किले में सुनाई पड़ती है। एक दौर में उसकी घुंघरुओं की धुन से लोग अपने होश खो देते थे, पर आज उसी धुन से लोग डर जाते है।
नीलकंठ मंदिर
इसके आलावा किले के अंदर नीलकंठ मंदिर भी है। समुन्द्र मंथन के समय जब भगवान शिव ने समुन्द्र मंथन से निकला जहर पीया था, तो वह काल को हराने के लिए कालिंजर के किले में ही आए थे। यहीं विश्राम करके शिव ने समय को हराया था जिसकी वजह से किले को कालिंजर के नाम से जाने जाना लगा। मंदिर में आने के दो रास्ते है। रास्ते में बहुत साड़ी गुफाएं और चट्टानें हैं जिन्हे काटकर वहां कई नकाशी की गयी हैं। मंदिर के दरवाजे पर चन्देल शासक ने शिव गायन लिखा हुआ है। साथ ही गमन्दिर के अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग भी है। मंदिर के ऊपर पानी का प्राकृतिक स्त्रोत है , जो कभी नहीं सूखता। इस पानी के ज़रिए शिवलिंग का अभिषेक प्राकृतिक रूप से हमेशा होता रहता है। मंदिर के ऊपरी भाग में जल के स्त्रोत के लिए चट्टानों को काटकर दो कुंड बनाए गए है जिंन्हें स्वर्गरोहण कुंड कहते है। चट्टानों पर काल –भैरव व कई देवी –देवताओ की चित्र बनाए गए है।
दवाईयों और नायाब पत्थरो से भरपूर है कालिंजर
कालिंजर हीरों, ग्रेनाइट पत्थर , वनो में सागौन , साखू , शीशम के लिए जाना जाता है। साथ ही किले के पास कुठला ज्वारी के घने जंगलो में रक्त वर्णी राम का चमकदार मिलता है। प्राचीन काल में इससे सोना बनाया जाता था। इस पत्थर को पारस पत्थर के नाम से भी जाना जाता है। यहां के पहाड़ो पर कई प्रकार की दवाईयां भी मिलती है। जैसे –यहां उगने वाली सीताफल की पत्तियों और बीज से दवाईयां बनती है। गुमा के बीज और हरड़ के इस्तेमाल बुखार को ठीक करने के लिए किया जाता है। मोरफली का इस्तेमाल पेट के इलाज के लिए किया जाता है , इसके आलावा यहां फल्दू, कूटा, सिंदूरी, नरगुंडी, रूसो, सहसमूसली, पथरचटा , गूमा, लटजीरा, दुधई व शिखा आदि प्राकृतिक दवाईयां भी मिलती है।
कालिंजर किले का प्रमुख मेला
कालिंजर किले में पांच दिन तक कतकी मेला मनाया जाता है। जिसे कतिकी मेला भी कहा जाता है क्यूंकि यह कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह मेला कालिंजर किले का सबसे प्रमुख उत्स्व है। हज़ारो की संख्या में श्रद्धालु मेले में आते है। कहा जाता है की चंदेल शासक परिमर्दिदेव के समय इस मेले की शुरुआत की गयी थी जो आज तक लोगो द्वारा मनाया जा रहा है। लोग महोत्स्व के दौरान सरोवरों में नहाते है और किले में बने मंदिरो के दर्शन करते है। अगर खाने की बात की जाए तो यहां को बर्फी , गन्ने व सीताफल आदि चीज़े काफी मशहूर हैं। लोगो मेले के दौरान इन चीज़ों का भी मज़ा उठाते हैं ।
किस तरह से कालिंजर पहुंचे
कालिंजर किले तक पहुंचना बेहद आसान है। अगर आप हवाई मार्ग से आना चाहते हैं, तो आपको सबसे नजदीकी एयरपोर्ट खजुराहो और कानपुर उतरना पड़ेगा। जहां से आप रेल मार्ग या सड़क मार्ग से आप कालिंजर तक पहुंच सकते हैं। रेल मार्ग से कालिंजर आने के लिए आपको बांदा रेलवे स्टेशन (58 किमी) या सतना रेलवे स्टेशन (85 किमी) उतरना होगा। दोनों ही स्टेशनों से बस और टैक्सी की विशेष सुविधा मौजूद है। जिसके ज़रिए आप किले तक आसानी से पहुँच सकते हैं।